मानव कौल युवा नाटककार, कवि, कहानीकार और अब फिल्मकार भी हैं. उनकी प्रयोगधर्मिता उनकी पहचान है. नाटक शक्कर के पांच दाने, पार्क, मम्ताज भाई ने अंतरराष्ट्रीय सक्सेस पाई. शक्कर के पांच दाने का मंचन जल्द ही न्यूयॉर्क में डायरेक्टर मार्क ब्लूम करने वाले हैं. उन्होंने जजंतरम ममंतरम, १९७१ और आई एम् फिल्मों में बतौर अभिनेता भी काम किया है .उनकी खासियत है कि वो अपनी जमीन खुद तलाश करते हैं और लगातार कुछ नया करने की फ़िराक में रहते हैं. पिछले दिनों उनकी मनोभूमि की बाबत उनसे कुछ बातचीत हुई- प्रतिभा
सवाल- क्या नाटक या कोई और रचनात्मक विधा समाज के अंतिम छोर से संवाद कर पाने में सचमुच सफल हो पाती है?
माफी चाहता हूं, पर मुझे लगता है कि कोई भी विधा अगर यह दंभ भरे तो वह उस विधा की कोरी कल्पना है. कोई भी विधा या कलाकार अगर एक शब्द भी कहता है तो वह शब्द इस समाज का ही शब्द है... उसी के द्वारा दिया गया... जिसे वह वापस समाज के सामने परोस कर रख देता है. उसका समाज के विरुद्ध कहना... समाज की गलतियां निकालना... नए समाज की कल्पना करना सभी उसके आसपास के जिए का हिस्सा है. उससे ज़्यादा कुछ भी नहीं.
माफी चाहता हूं, पर मुझे लगता है कि कोई भी विधा अगर यह दंभ भरे तो वह उस विधा की कोरी कल्पना है. कोई भी विधा या कलाकार अगर एक शब्द भी कहता है तो वह शब्द इस समाज का ही शब्द है... उसी के द्वारा दिया गया... जिसे वह वापस समाज के सामने परोस कर रख देता है. उसका समाज के विरुद्ध कहना... समाज की गलतियां निकालना... नए समाज की कल्पना करना सभी उसके आसपास के जिए का हिस्सा है. उससे ज़्यादा कुछ भी नहीं.
सवाल- इन रचनात्मक अभिव्यक्तियों से क्या सामाजिक परिवर्तन में कोई असर पड़ता है? या ये महज सेल्फ सैटिस्फैक्शन के लिए है?
मैं समाज बदलने के बिलकुल खिलाफ हूं. ना तो मेरी समाज बदलने में, और ना ही उन लोगों में कोई दिलचस्पी है जो समाज बदलने के लिए कला का सहारा लेते है. सत्य इतना सरल और सामान्य है... जो लगभग सभी जानते हैं... उन सत्यों को लगातार दोहराते रहने से हम उन सारे सत्यों को गांधी बना देते है... जिसका अब किसी पर कोई असर नहीं होता.
शायद हमारी कला से हम एक सा संसार रच लेते हैं जिस संसार में बार-बार जाने से हमें शांति मिलती है...(या वह हमें असहज करता है). हमारी कला एक कन्फेशन बॉक्स की तरह काम करती है जहां जाकर हम एक बच्चे की तरह अपनी सारी कमियों, छलनाओं, कमीनेपन, अवसादों और पीड़ाओं को कह देते हैं.... उसे कह देने के बाद हम बहुत असहनीय हलकापन महसूस करते हैं.... और शायद जब कोई उस विधा को पढ़ता है या देखता है... तो यही बात उसे उसकी तरफ खींचती है...हम समाज के भीतर रहते हुए .. बहुत छोटे-छोटे संसार गढ़ते रहते हैं. इससे जीने में.... जीते रहने में एक तसल्ली बनी रहती है.
मैं समाज बदलने के बिलकुल खिलाफ हूं. ना तो मेरी समाज बदलने में, और ना ही उन लोगों में कोई दिलचस्पी है जो समाज बदलने के लिए कला का सहारा लेते है. सत्य इतना सरल और सामान्य है... जो लगभग सभी जानते हैं... उन सत्यों को लगातार दोहराते रहने से हम उन सारे सत्यों को गांधी बना देते है... जिसका अब किसी पर कोई असर नहीं होता.
शायद हमारी कला से हम एक सा संसार रच लेते हैं जिस संसार में बार-बार जाने से हमें शांति मिलती है...(या वह हमें असहज करता है). हमारी कला एक कन्फेशन बॉक्स की तरह काम करती है जहां जाकर हम एक बच्चे की तरह अपनी सारी कमियों, छलनाओं, कमीनेपन, अवसादों और पीड़ाओं को कह देते हैं.... उसे कह देने के बाद हम बहुत असहनीय हलकापन महसूस करते हैं.... और शायद जब कोई उस विधा को पढ़ता है या देखता है... तो यही बात उसे उसकी तरफ खींचती है...हम समाज के भीतर रहते हुए .. बहुत छोटे-छोटे संसार गढ़ते रहते हैं. इससे जीने में.... जीते रहने में एक तसल्ली बनी रहती है.
सवाल- नाटकों को लेकर मिलने वाला ऑडियंस का रिस्पांस किस तरह के भविष्य को रेखांकित करता है?
मैंने कभी इसके बारे में नहीं सोचा... पर मुझे लगता है कि मनोरंजन के इतिहास को अगर मैं देखूं तो जिस किस्म के मनोरंजन की आशा इस वक्त हमारा समाज करता है... (उदाहरण के बतौर जिस किस्म के नाटक और फिल्में ज़्यादा चलती हैं) उससे मेरा कोई वास्ता नहीं है. क्योंकि जिस तरह के नाटक मैं देखना चाहता हूं, जिस तरीके की कहानियां मैं पढऩा चाहता हूं मैं अंत में वही लिख रहा होता हूं. तो एक तरह से मैं कह सकता हूं कि मैं अपने मनोरंजन के साधन खुद जमा कर रहा होता हूं.
अब इसमें एक बात और है कि जैसे हम इस दुनिया में रहते हुए सब लोगों के करीब नहीं हो पाते, ठीक उसी तरह जब आपका नाटक देखने 400 या 500 लोग आते हैं तो कुल जमा चार पांच या ज़्यादा से ज़्याद दस लोग उसे करीब से समझ लेते हैं.. और यह काफी है.
नाटक यूं भी क्षणिक विधा है... नाटक के चलते हुए जो भी घट रहा होता है नाटक बस उतना ही है... भविष्य में आप उस नाटक को पढ़ सकते हैं.. पर खेला गया नाटक वहीं.. उसी वक्त खत्म हो जाता है.
अब इसमें एक बात और है कि जैसे हम इस दुनिया में रहते हुए सब लोगों के करीब नहीं हो पाते, ठीक उसी तरह जब आपका नाटक देखने 400 या 500 लोग आते हैं तो कुल जमा चार पांच या ज़्यादा से ज़्याद दस लोग उसे करीब से समझ लेते हैं.. और यह काफी है.
नाटक यूं भी क्षणिक विधा है... नाटक के चलते हुए जो भी घट रहा होता है नाटक बस उतना ही है... भविष्य में आप उस नाटक को पढ़ सकते हैं.. पर खेला गया नाटक वहीं.. उसी वक्त खत्म हो जाता है.
सवाल- अपने किये काम को लेकर कोई मोह न रखना कैसे संभव होता है, जबकि आजकल जरा सी सफलताएं लोगों के सर पर बैठ जाती हैं?
आपका खुद का लिखा हुआ आपको कुछ भी देता नहीं है... नाटक या कहानी के खत्म होते ही मैं बहुत गहरा ख़ालीपन महसूस करता हूं... कहीं कुछ बदल जाता हूं... मैं वह नहीं रहता जिसने वह नाटक या कहानी लिखी थी. सो मैं अपने नाटकों के सामने ही दर्शक सा हो जाता हूं.
मोह रखना तो दूसरी बात है मेरा उससे बहुत संबंध भी नहीं बचता है.
मोह रखना तो दूसरी बात है मेरा उससे बहुत संबंध भी नहीं बचता है.
सवाल- अपने नाटक खुद लिखने का क्या कारण है?
कारण वही है जैसा मैं देखना सुनना चाहता हूं... वैसा ही लिख देता हूं. और लिखने के अलावा मैं अपने साथ और कुछ भी नहीं कर सकता हूं.
सवाल- एक साथ कई विधाओं में काम करने के बाद सबसे ज्यादा जुड़ाव कहां पाते हैं?
सबसे ज़्यादा जुड़ाव कोरे पन्नों से है...जहां तक उत्साह की बात है मैं इस वक्त अपनी नई फिल्म, जो कि मैंने पूरी उत्तराखंड में बनाई है... से बहुत ही उत्साहित हूं. यह फिल्म हमारे ग्रुप अरण्य के काम का ही एक हिस्सा है.... मैं इस तरीक़े के कामों को लेकर हमेशा से उत्साहित रहता हंू, जब कुल जमा बीस लोग.. बिना किसी पैसे के... किसी एक विचार के पीछे आपके साथ हो लेते हैं. हम सब लोगों ने मिलकर यह फिल्म बनाई है... आशा है जल्द ही लोगों के सामने आएगी.
(आई नेक्स्ट के सम्पादकीय पेज पर २२ मई को प्रकाशित)
Bahut hi saarthak charcha.
ReplyDeleteAabhar.
............
खुशहाली का विज्ञान!
ये है ब्लॉग का मनी सूत्र!
कला जब तक सामाजिक तथ्य व्यक्त करने के काम आती है, बदलाव संभव नहीं पर जब कला जूझती है, समाज बदलता है।
ReplyDeletekuch kuch samjh me aaya shayad!
ReplyDeletesatya itna saral ki use gaandhi bana dete hai jiska koi asar nahi hota."
ReplyDelete."aapka likha aapko kuchh nahi deta"
kya baat hai.badhiya