धूप कई रोज बाद आई थी. उसकी आमद में एक अनमनापन था. कुछ सुस्त कदमों के साथ धीरे-धीरे रेंगते हुए आने की रस्म सी निभा रही थी. बीते कई सारे ठहरे हुए, सीले से दिनों के बाद उसका यूं रेंगते हुए आना मौसम को खुशरंग बना रहा था. थोड़ी ही देर में धूप ने अंगड़ाई ली और आलस को परे धकेला. अब वो पूरी तरह से खिलकर फैल गई थी. लड़की धूप की मटरगश्ती देखकर मुस्कुरा रही थी. जब उसने देखा कि धूप पूरी तरह धरती पर उतर आई है और कोनों में छुपी सीली हुई उदासियों को खींच-खींचकर बाहर निकाल रही है, तो उसे भी कुछ चीजें याद आ गईं. उसे ध्यान आया कि उसके मन के अहाते में न जाने कितने उदास दिन कबसे जमा हैं. सोचा, क्यों न उन्हें भी आज जरा सी धूप दिखा दी जाए.
सदियों से मन के कोनों में रखे-रखे उनमें सीलन सी जमने लगी थी. उसने चुन-चुनकर सारे कोने खंगाले. पोटलियां निकालीं. कैसे-कैसे दिन निकले थे. लम्हे कैसे-कैसे. हर लम्हे की न जाने कितनी दास्तानें. किसी सीले से दिन के पहलू में कोई आंसू छुपा बैठा था तो किसी के पहलू में कोई गीली सी मुस्कुराहट थी. लड़की अजब अजाब से घिरी थी. उसने अपनी ओढऩी को छत पर बिछाया और सारे उदास दिनों को धूप में पसरा दिया. एक-एक दिन को वो उलट-पुलट के देखती जा रही थी. स्मृतियों की पांखें कितनी बड़ी होती हैं. पलक झपकते ही युगों की यात्राएं तय कर लेती हैं. इधर धूप उसके उदास दिनों को सहला रही थी, उधर उसकी स्मृतियां अतीत के बियाबान में भटक रही थीं.
वो भादों के दिन थे. फिजां में रजनीगंधा की खुशबू पहले से बिखरी हुई थी. लड़के की आमद ने उस खुशबू में मोहब्बत घोल दी थी. न चाहते हुए भी उस खुशबू से खुद को बचा पाना आसान कहां था उसके लिए. अभी-अभी गये सावन के निशान अभी बाकी थे. उसके आंचल में गीली मिट्टी की खुशबू और बूंदों की नमी खूब-खूब भरी हुई थी. ऐसे में लड़के ने जब उसके जूड़े में चढ़ते भादों की छोटी सी शाख लगा दी, तो उसके पास सचमुच अपना कुछ भी नहीं रहा. कैसी उमंगों भरे दिन थे वो. चांद निकलता तो उन दोनों को छोड़कर जाने को तैयार ही नहीं होता. हवाएं उनके वजूद से लिपटकर बैठी रहतीं. टकटकी बांधे उन्हें देखती रहतीं. वो पास होते तो मौसम मुस्कुराता था और दूर जाते तो वे दोनों मुस्कुराते. दूर जाकर पास आने का हुनर वे कब का सीख चुके थे. चुप्पियों में उन्होंने अपनी मोहब्बत संभालकर रख दी थी.
उसने सुना था कि सावन की पहली बूंद अगर आपकी नाक पर गिरे तो जिंदगी का बदलना तय है. जिंदगी में मोहब्बत का आना तय है. मुस्कुराना भी तय है. न जाने कितने सालों से वो हर सावन में अपनी नाक आसमान की ओर किये घूमती फिरती थी लेकिन मजाल है कि पहली तो क्या दूसरी बूंद ही नाक को छूकर भी निकल जाये. पर बीते सावन उसकी नाक पर एक बूंद गिरी थी. उसने उस इत्तिफाक को एक लिफाफे में बंद करके रख दिया था. भूल भी गई थी. हां, मुस्कुरा जरूर दी थी. लड़के के आमद की खुशबू ने जब उसे सहलाया तो उसे वो लिफाफा याद आ गया. जिसके भीतर उसकी नाक पर गिरी सावन की पहली बूंद की नमी भी बंद थी.
अमावस की वो काली रात कितनी चमकदार हो उठी थी, जब लड़की ने उस लिफाफे में से वो खूबसूरत इत्तिफाक निकालकर लड़के को दिखाया था. खुशी लड़की की आंखों से छलकने को व्याकुल थी. ठीक उसी वक्त उन दोनों के बीच न जाने कैसी सरहद उग आई थी. न जाने कैसे कोई सिरा टूट गया था. मानो बजते-बजते सितार का तार टूट गया हो...लड़के ने अपनी सारी खुशबू समेट ली थी. उसने आसमान की ओर देखा और उठने को हुआ.
लड़की ने रोका नहीं. वो जानती थी रोकने से इश्क रुकता नहीं, सिर्फ देह रुकती है. उसने अपनी आंखों के समंदर को वापस अंदर भेज दिया. मुस्कुराकर विदा किया उसे. कुछ भी नहीं पूछा. न कारण आने का, न वजह जाने की. बस एक मुस्कान थी उसके पास जो उसने विदा के समय भेंट कर दी. नाक पर गिरी पहली सावन की बूंद का बाद में क्या हश्र होता है ये क्यों किसी कहावत में दर्ज नहीं...वो यह सोचकर मुस्कुरा दी.
आज इतने सालों बाद भी वो छूटा हुआ लम्हा धड़क रहा है. धूप लगते ही खिल उठा है. उसे तेज आवाज सुनाई दी धक धक धक... ये उसकी धड़कनों की आवाज तो नहीं थी...तो क्या यहीं आसपास कहीं कोई और भी है...दूर-दूर तक तो कोई नहीं. बस खामोशी का सहरा फैला हुआ था. उसके सारे सीले दिन धूप पाकर खिल उठे थे. उसने उन्हें फिर से सुभीते से मन की कोठरी में वापस सजाया...लेकिन ये जेठ की दोपहरी में रजनीगंधा की खुशबू न जाने कैसे छूटी रह गई. आंखों के सामने तो सुर्ख गुलमोहर खिले हैं...
हमेशा की तरह अपनी सी लगने वाली प्यारी सी कहानी.
ReplyDeleteBeautiful !
ReplyDeleteओह... आँखों से वह समंदर बहने को आ गया.
ReplyDeleteऐसी उजली धूप की प्रतीक्षा में हम सब।
ReplyDeletesurk gulmohar aur .... bahut saundary hai is bhaw me
ReplyDeleteप्रतिभा मज़ा आ गया. बहुत खूबसूरत ज़ज्बात.
ReplyDelete- रचना दीछित
(कमेन्ट मॉडरेशन में आ रही दिक्कत के कारण इसे खुद पब्लिश कर रही हूँ. शुक्रिया रचना जी.)
aapko pahali bar padha , sundar laga
ReplyDeletebahut shaktishali paksh,bhavnaon ka .
addbhut .../ sadhuvad ji .- UDAYA VEER SINGH
(कमेन्ट मॉडरेशन में आ रही दिक्कत के कारण इसे खुद पब्लिश कर रही हूँ. शुक्रिया उदय जी.)
सोचती हूँ यादें किसी भी मौसम में ज़र्द क्यूँ नहीं पड़तीं... हमेशा सुर्ख़ ही रहती हैं गुलमोहर कि तरह...
ReplyDeletewow..
ReplyDeletebadiya..
bahot khub..
इतनी खूबसूरत रचना के लिए धन्यवाद.रचना पढते पढते मै खुद ही वो लड़की बन गयी उसकी हर भावना को मैंने खुद जी लिय......
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