राज्य उत्पत्ति के सारे सिद्धांत औंधे पड़े हैं. भारतीय संविधान में लिखी मौलिक अधिकार की आयतें भी बस मुंह जोह रही थीं. जबकि जीवन जीने का अधिकार, शिक्षा और रोजगार पाने के अधिकार के नाम पर लाठियां भांजी जा रही हैं. न जाने क्यों मुझे विरोध के क्रांतिकारी ढंग से परहेज कभी नहीं रहा. लेकिन सही वक्त पर सही ढंग से किया गया विरोध. दुख होता है यह देखकर कि सही नेतृत्व का अभाव, निराशा, कुंठा, पूरी पीढ़ी को उस रास्ते पर धकेल रही है, जिस पर कदम रखते ही ऊर्जा, उत्साह, संभावनाओं से भरी-पूरी पीढ़ी अपने दामन पर उपद्रवी, बलवाई होने का दाग लगा बैठती है.
जब राज्य अपना काम ठीक से नहीं करते, जन प्रतिनिधि जनता के बारे में कम अपने बारे में ज्यादा सोचते हैं, सरकारी मशीनरी बस पल्ला झाडऩे में व्यस्त रहती है, तब ऐसे हालात बनते हैं. और इल्जाम आता है युवा पीढ़ी पर. दोस्तों, विरोध जरूर दर्ज करना है लेकिन ध्यान रहे कि कहीं आक्रोश के चलते हम अपनी जायज मांगों पर उपद्रवी, बलवाई होने का दाग न लगा बैठें.
जब राज्य अपना काम ठीक से नहीं करते, जन प्रतिनिधि जनता के बारे में कम अपने बारे में ज्यादा सोचते हैं, सरकारी मशीनरी बस पल्ला झाडऩे में व्यस्त रहती है, तब ऐसे हालात बनते हैं. और इल्जाम आता है युवा पीढ़ी पर. दोस्तों, विरोध जरूर दर्ज करना है लेकिन ध्यान रहे कि कहीं आक्रोश के चलते हम अपनी जायज मांगों पर उपद्रवी, बलवाई होने का दाग न लगा बैठें.
लोकतन्त्र की दिशा भ्रमित है।
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