- नवीन जोशी
इस दुनिया से सभी को एक दिन जाना होता है लेकिन 'गिर्दा' (गिरीश तिवारी) के चले जाने पर भयानक सन्नाटा सा छा गया है. जैसे सारी उम्मीदें ही टूट गई हों. वही था जो हर मौके पर एक नया रास्ता ढूंढ लाता था, उम्मीदों भरा गीत रच देता था, प्रतिरोध की नई ताकत पैदा कर देता था और विश्वास से सराबोर होकर गाता था-'जैंता, एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में. (मेरी जैंता, देखना, वह दिन एक दिन जरूर आएगा).-'अपना ध्यान रखना, हां! अभी पन्द्रह दिन पहले मेडिकल कॉलेज में दिखाकर गिर्दा को लखनऊ से नैनीताल को रवाना करते हुए मैंने कहा था.
-'मैं बिल्कुल ठीक हूं. मेरी बिल्कुल चिन्ता मत करना. सदा की तरह नेह से गले लगाते हुए उसने कहा था- 'ओ के, फिर मिलेंगे.
अब कभी मिलना नहीं हो पाएगा. हालांकि उससे जुदा होना भी कैसे हो पाएगा? वह यहीं रहेगा हम सबके बीच, गाता- मुस्कराता हुआ. उसकी ज्यादा फिक्र करने पर वह कहता भी था-'...क्या हो रहा है मुझे. और मान लो कुछ हो भी गया तो मैं यहीं रहूंगा. तुम लोग रखोगे मुझे जिन्दा, तुम सब इत्ते सारे लोग. सन् 19४3 में अल्मोड़ा के ज्योली ग्राम में जन्मे गिरीश तिवारी को स्कूली शिक्षा ने जितना भी पढऩा- लिखना सिखाया हो, सत्य यह है कि समाज ही उसके असली विश्वविद्यालय बने. उत्तराखण्ड का समाज और लोक, पीलीभीत-पूरनपुर की तराई का शोषित कृषक समाज, लखनऊ की छोटी-सी नौकरी के साथ होटल-ढाबे-रिक्शे वालों की दुनिया से लेकर अमीनाबाद के झण्डे वाले पार्क में इकन्नी-दुअन्नी की किताबों से सीखी गई उर्दू और फिर फैज, साहिर, गालिब जैसे शायरों के रचना संसार में गहरे डूबना, गीत एवं नाट्य प्रभाग की नौकरी करते हुए चारुचन्द्र पाण्डे, मोहन उप्रेती, लेनिन पंत, बृजेन्द्र लाल साह की संगत में उत्तराखण्ड के लोक साहित्य के मोती चुनना और उससे नई-नई गीत लडिय़ां पिरोना, कभी यह मान बैठना कि इस ससुरी क्रूर व्यवस्था को नक्सलवाद के रास्ते ही ध्वस्त कर नई शोषण मुक्त व्यवस्था रची जा सकती है, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल के भूमिगत क्रांतिकारी साथियों से तार जोड़ लेना... रंगमंच को सम्प्रेषण और समाज परिवर्तन का महत्वपूर्ण औजार मानकर उसमें विविध प्रयोग करना, फिर-फिर लौट आना लोक संस्कृति की ओर और उसमें गहरे गोते लगाना... गुमानी, गौर्दा, गोपीदास, मोहनसिंह रीठागाड़ी और झूसिया दमाई, हरदा सूरदास तक लोक साहित्य से लेकर हिन्दी साहित्य के मंचों को समृद्ध करना.
शुरुआती दौर में काली शेरवानी, करीने से खत बनी दाढ़ी और टोपी पहन कर वह प्रसिद्ध गीतकार नीरज के साथ कवि- सम्मेलनों का लोकप्रिय चेहरा भी हुआ करता था. लेकिन समाज के विश्वविद्यालयों में निरन्तर मंथन और शोधरत गिर्दा को अभिव्यक्ति का असली ताकतवर माध्यम लोकगीत-संगीत में ही मिला और एक लम्बा दौर अराजक, लुका-छिपी लगभग अघोरी रूप में जीने के बाद उसने लोक संस्कृति में ही संतोष और त्राण पाया. तभी वह तनिक सांसारिक हुआ, उसने शादी की और हमें वह हीरा भाभी मिली जिन्होंने गिर्दा की एेसी सेवा की कि गिरते स्वास्थ्य के बावजूद गिर्दा अपने मोर्चों पर लगातार सक्रिय रहे. गिर्दा के जाने पर हमें अपने सन्नाटे की चिन्ता है, लेकिन आज हीरा भाभी के खालीपन का क्या हिसाब!
हमारी पीढ़ी के लिए गिर्दा बड़े भाई से ज्यादा एक करीबी दोस्त थे लेकिन असल में वे सम्पूर्ण हिन्दी समाज के लिए त्रिलोचन और बाबा नागार्जुन की परम्परा के जन साहित्य नायक थे. जून 19६5 में लगी इमरजेंसी के विरोध में और फिर जनता राज की अराजकता पर वे 'अंधा युग' और 'थैंक्यू मिस्टर ग्लाड का अत्यन्त प्रयोगधर्मी मंचन करते थे तो लोकवीर गाथा 'अजुवा-बफौल' के नाट्य रूपांतरण 'पहाड़ खामोश हैं' और धनुष यज्ञ के मंचन से सीधे इन्दिरा गांधी को चुनौती देने लगते थे. कबीर की उलटबांसियों की पुनर्रचना करके वे इस व्यवस्था की सीवन उधेड़ते नजर आते तो उत्तराखण्ड के सुरा-शराब विरोधी आन्दोलन में लोक होलियों की तर्ज पर 'दिल्ली में बैठी वह नारÓ को सीधी चुनौती ठोकते नजर आते थे.
वन आन्दोलन और सुरा-शराब विरोधी आन्दोलन के दौर में उन्होंने फैज अहमद फैज की क्रांतिकारी रचनाओं का न केवल हिन्दी में सरलीकरण किया, बल्कि उनका लोक बोलियों में रूपान्तरण करके उन्हें लोकधुनों में बांधकर जनगीत बना डाला. उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन में तो उनका आन्दोलकारी- रचनाकार अपने सर्वोत्तम और ऊर्जस्वित रूप में सामने आया. जब यूपी की मुलायम सरकार उत्तराखण्ड आन्दोलन के दमन पर उतारू थी, देखते ही गोली मारने का आदेश था तो 'गिर्दा' रोज एक छन्द हिन्दी और कुमाऊंनी में रचते थे जिसे 'नैनीताल समाचार' के हस्तलिखित न्यूज बुलेटिन के वाचन के बाद नैनीताल के बस अड्डे पर गाया जाता था. इन छन्दों ने उत्तराखण्ड में छाए दमन और आतंक के सन्नाटे को तोड़ डाला था. ये छन्द 'उत्तराखण्ड काव्य के नाम से खूब चर्चित हुए और जगह-जगह गाए गए.
उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद उनका रचनाकार और भी सचेत होकर लगातार सक्रिय और संघर्षरत रहा. हर आन्दोलन पर वे अपने गीतों के साथ सबसे आगे मोर्चे पर डट जाते थे. नदी बचाओ आन्दोलन हो या कोई भी मोर्चा, गिर्दा के बिना जैसे फौज सजती ही नहीं थी.
अब गिर्दा सशरीर हमारे बीच नहीं रहे. अपनी विस्तृत फलक वाली विविध रचनाओं और अपने साथियों-प्रशंसकों की विशाल भीड़ में गिर्दा जीवित रहेंगे. लेकिन यह तय है कि उसके बिना चीजें पहले जैसी नहीं होंगी. उत्तराखण्ड की लोक चेतना और सांस्कृतिक प्रतिरोध के नित नए और रचनात्मक तेवर अब नहीं दिखेंगे. हां, जन-संघर्षों के मोर्चे पर 'गिर्दा' के गीत हमेशा गाए जाएंगे, ये गीत हमें जगाएंगे, लेकिन हुड़के पर थाप देकर, गले की पूरी ताकत लगाने के बावजूद सुर साधकर, हवा में हाथ उछालकर और झूम-झूम कर जनता का जोश जगाते गिर्दा अब वहां नहीं होंगे.
is shok ki ghadi me humari samvednaaye sweekar karen.. unke kuchh geet bhi is mauke par post karte to unhe achha lagta.. pathak bhi rubaru ho jaate ... ishwar unki aatma ko shanti de
ReplyDeleteनमन एवं श्रृद्धांजलि.
ReplyDeleteगिरदा का जाना किसी पहाड़ के जाने के जैसा है।
ReplyDeletepratibha ji.. bahut accha laga 'girda' ke baare mein padh kar.. dukh ki baat hai ki uttarakhand ki hamari generation 'girda' aur unke jaisi anek vibhutiyon se aparichit hai.. maine bhi bahut jyada to nahi padha hai lekin unke kaam se parichit hun.. aapke blog ke dwara unhe ek baar fir yaad kiya.. apni kritiyon dwara ve jivit hain, rahenge!
ReplyDeleteआलेख बहुत भावुक और प्रेरक है
ReplyDeleteविनम्र श्रद्धांजलि
Girda ki antim yatra me hazaroo logo ki upasthithi ye sidh karti hai ki ve aam logo ke beech bahut hi lokpriye the.Girda ko bar bar naman.
ReplyDeleteRohit Kaushik
Girda ki antim yatra me hazaroo logoo ki upasthithi ye sidh karti hai ki ve aam logoo ke beech bahut hi lokpriye the. Girda ko bar bar naman.
ReplyDeleteRohit Kaushik
NAMA AUR GAHRI SHRADHANJALI ..JAANKARI BHI BAHUT MILI ..
ReplyDeleteVIJAY
आपसे निवेदन है की आप मेरी नयी कविता " मोरे सजनवा" जरुर पढ़े और अपनी अमूल्य राय देवे...
http://poemsofvijay.blogspot.com/2010/08/blog-post_21.html
गिर्दा ने ठीक कहा था, वो हमेशा रहेंगे, सबके बीच, अपने लोकगीतों के ज़रिये
ReplyDeleteजिस दिन गिर्दा यानी गिरीश तिवारी ( उत्तराखंड में बड़े भाई को दा कहते हैं ) का निधन हुआ मैं उस दिन अपने शहर हल्द्वानी(वो जगह जहां इलाज के दौरान गिर्दा चल बसे) में ही था. राखी की तैयारियों के बीच भी गिर्दा के जाने का दुःख पूरे उत्तराखंड में व्याप्त था.उत्तराखंड आन्दोलन में गिर्दा के योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा.
ReplyDeleteआपने बहुत सारी नयी जानकारी दी। गिर्दा के साथ महज तीन दिन के साथ के अनुभव को मैंने आज जनसत्ता(29 अगस्त) के पाठकों को साझा किया- गिरदा एक आखिरी गवाह। उसमें तथ्यात्मक जानकारियां तो कम लेकिन दो-तीन दिनों के साथ में जो महसूस किया,उसे लिख दिया।
ReplyDeleteशुक्रिया।
Girda ji kee baari mein patrika newspaper mein padha.. kash unke likhi rachnayne sahej paata koi!
ReplyDelete.....Pahad ke es karmath kavi ko bhavpurn shrdhanjati..
Prastuti hetu aapka aabhar.
गिर्दा जैसे लोग कभी दुनिया छोड़ कर नहीं जाते... अपने स्थूल शरीर को त्याग वो लोगों के दिलों में बस जाया करते हैं...शायद हमारे और पास आने के लिए...
ReplyDeleteनीरज