कबीर उनमें से हैं जिन्हें पढऩा हमेशा सुकून देता है। बेहद सामयिक, सुलझा, सरल काव्य. कबीर के करीब जाने पर ज्ञान और सुकून की गंगा बहती नज़र आती है. फिलहाल कुछ दोहे-
बुरा जो देखन मैं चलाबुरा न मिलया कोए
जो मन खोजा आपणा तोमुझसे बुरा न कोए।
धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होए
माली सींचे सौ घढ़ा ऋतु आए फल होए।
चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोए
दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोए।
काल करे सो आज कर आज करे सो अब
पल में परलय होयेगीबहुरी करोगे कब।
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोए
अपना तन शीतल करे औरन को सुख होए।
सांई इतना दीजिए जा में कुटुम्ब समाए
मैं भी भूखा न रहूं साधू न भूखा जाए।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।
आपके कबीर को याद करने की कोशिश अच्छी है।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
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कबीरदास जी की याद
ReplyDeleteमेरे दिल में समायी रहती है।
एक दोहा यह भी है-
गुरू कुम्हार श्शि कुम्भ है
गढ़-गढ़ काढ़े खोट।
भीतर हाथ सँवार दे,
भीतर बाहै चोट।।
ek doha ye bhi hai
ReplyDeletechalti chaki dekh kar diya kabir thathay
patan se vo bach rahe jo utaak bahar aaye
बेहतरीन प्रस्तुति के लिये साधुवाद....
ReplyDeleteऔर यह भी....
ReplyDeleteकबीरा खडा बाजार में
लिए लुकारी हाथ
जो घर फूंके आपनो
चले हमारे साथ।