चिराग मांगते रहने का कुछ सबब भी नहीं
कैसे बताये कि अब तो शब भी नहीं
जो मेरे शेर में मुझसे जियादा बोलता है
मैं उसकी बज्म में इक हर्फ-ए-जेर-ए-लब भी नहीं
और अब तो िजन्दगी करने के सौ तरीके हैं
हम उसके हिज्र में तनहा रहे थे जब भी नहीं
कमाल शख्स था जिसने मुझे तबाह किया
खि़लाफ उसके ये दिल हो सका है अब भी नहीं
ये दु:ख नहीं कि अंधेरों से सुलह की हमने
मलाल ये है कि अब सुबह की तलब भी नहीं
-----------------------------------------
चेहरा मेरा था निगाहें उसकी
खामोशी में भी वो बातें उसकी
मेरे चेहरे पे गजल लिखती गयीं
शेर कहती हुई आखें उसकी
शोख़ लम्हों का पता देने लगीं
तेज होती हुईं सांसें उसकी
ऐसे मौसम भी गुजारे हमने
सुबहें अपनी थीं, शामें उसकी
ध्यान में उसके ये आलम था कभी
आंख महताब की, यादें उसकी
रंग जोइन्दा वो, आये तो सही
फूल तो फूल हैं, शाखें उसकी
फैसला मौज-ए-हवा ने लिक्खा
आंधियां मेरी, बहारें उसकी
खुद पे भी खुलती न हो जिसकी नजर
जानता कौन जबाने उसकी
नींद इस सोच से टूटी अक्सर
किस तरह कटती हैं रातें उसकी
दूर रहकर भी सदा रहती हैं
मुझको थामे हुए बांहें उसकी
जोइन्दा- जिज्ञासु
कैसे बताये कि अब तो शब भी नहीं
जो मेरे शेर में मुझसे जियादा बोलता है
मैं उसकी बज्म में इक हर्फ-ए-जेर-ए-लब भी नहीं
और अब तो िजन्दगी करने के सौ तरीके हैं
हम उसके हिज्र में तनहा रहे थे जब भी नहीं
कमाल शख्स था जिसने मुझे तबाह किया
खि़लाफ उसके ये दिल हो सका है अब भी नहीं
ये दु:ख नहीं कि अंधेरों से सुलह की हमने
मलाल ये है कि अब सुबह की तलब भी नहीं
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चेहरा मेरा था निगाहें उसकी
खामोशी में भी वो बातें उसकी
मेरे चेहरे पे गजल लिखती गयीं
शेर कहती हुई आखें उसकी
शोख़ लम्हों का पता देने लगीं
तेज होती हुईं सांसें उसकी
ऐसे मौसम भी गुजारे हमने
सुबहें अपनी थीं, शामें उसकी
ध्यान में उसके ये आलम था कभी
आंख महताब की, यादें उसकी
रंग जोइन्दा वो, आये तो सही
फूल तो फूल हैं, शाखें उसकी
फैसला मौज-ए-हवा ने लिक्खा
आंधियां मेरी, बहारें उसकी
खुद पे भी खुलती न हो जिसकी नजर
जानता कौन जबाने उसकी
नींद इस सोच से टूटी अक्सर
किस तरह कटती हैं रातें उसकी
दूर रहकर भी सदा रहती हैं
मुझको थामे हुए बांहें उसकी
जोइन्दा- जिज्ञासु
प्रतिभाजी गज़ल के मतले की पहली पंक्ति वज़्न में है
ReplyDeleteजब की दूसरी पंक्ति वज़्न से ख़ारिज़
देखें-
चिराग मांगते रहने का कुछ सबब भी नहीं.
तक्तीय प्रथम पंक्ति की इस प्रकार है-जो वज्न में है.
मफायलुन-फइलातुन-मफायलुन-फेलुन-जब कि दूसरी पंक्ति का क्या करूँ-
कैसे बतायें कि अब तो शब भी नहीं.
आप पहली पंक्ति पर गौर करें चिराग में चि रस्व है
जब कि कैसे में कै- दीर्घ- आगे तो और भी बुरा हाल है-
परवीन शाकिर को बहरों का पूरा इल्म है वे वज़्न को बक़ायदा निभाती हैं.
क्या आप उनके उर्दू संकलन से ये ग़जलें रख रही हैं? यदि हिन्दी संकलन है तो कुछ कहना बेकार है.
अपनी बात की तस्कीन के लिए इसी ग़ज़ल का एक शेर जो वज़्न में तो है ही जिसका कथ्य भी अपनी गरिमा से ओतप्रेत है-
देखें-
कमाल शख्श था जिसने मुझे तबाह किया,
खिलाफ उसके ये दिल हो सका है अब भी नहीं.
कमाल और खिलाफ दोनों शब्दों का आरम्भ रस्व से है.
ग़ालिब साहब की मश्हूर ग़ज़ल इसी बहर में है--
हरेक बात पे कहते हो तुम की तू क्या है.
तुम्हीं बताओ ये अंदाजे गुफ्तगू क्या है.
ये उर्दू कि संयुक्त बहर
बहरे मुजतस मुसम्मन मखबून महज़ूफ है.
ग़ज़ल मौसिकी से ज़ुड़ी है जरा सी टूटन खटकती है.
ऐसी गलती परवीन साहिबा नहीं करतीं फिर ये क्टों हो रही है-
अब दूसरी ग़ज़ल की बात कथ्य और शिल्प दोनों का जादू सर पर चढ़कर बोल रहा है-
शोख लम्हों का पता देने लगीं,
तेज होती हुई सांसें उसकी.
तेज़ सांसों का सुरूर भुक्तभोगी ही समझ सकता है-
परवीनजी रम्ज़ो में हालात की मंजरकशी करने में माहिर हैं-
दूर रहकर भी सदा रहती हैं,
मुझको थामें हुए बांहें उसकी.
ये बहरे रमल मुसद्दस मखबून महज़ूफ है
इसके अरकान हर मिसरे में इस प्रकार हैं-
फाइलातुन-फइलातुन-फेलुन
आप उपरोक्त उनकी ग़ज़लों में उनकी मुहब्बत के इज़हार का बयां कर रही हैं.
उनके गुस्से और नफ़रत का आलम भी कमाल का है.देखें-
रस्ता भी कठिन धूप में शिद्दत भी बहुत थी.
साये से मेरे उसको मुहब्बत भी बहुत थी.
इस तर्के रिफ़ाकत परेंशा तो बहुत हूँ,
अब तक की तेरे साथ पे हैरत भी बहुत थी.
मैनें परवीनजी को पढ़ने के लिए उर्दू सीखी थी उन्हें उर्दू में पढ़ा हैं.
ये गुजरात है उर्दू पढ़ तो लो पर लिखो किसे.
आप सुखुननवाज़ हैं हमारी बात समझेंगी.
ब्लाग जगत में ग़ज़ल के नाम पर कई नामी गिरामी
लोग लुगाई हैं जो ग़ज़ल के नाम पर खेल करते हैं कोई बात उन्हें गंभीरता से कहो तो समझने को तैयार ही नहीं.जाहे जहन्नुम में हम हर किसी से मुख़ातिब भी कहाँ हैं.
रही हमारी बात आप ने एक दो बार और परवीनजी की ग़ज़लें पढ़वादीं तो गये काम से-
हमारा भी रूट जो नेता फजेता से जुड़ा है कहीं जुलेखा की तरफ न मुड़ जाये डर इस बात का है. आपकी पिछली पोस्ट को देखा था पर जानकर कुछ नहीं कहा. परवीनजी का जादू सर पर चढ़कर बोलने लगता है.क्या करें-
आप किसी बात का बुरा न मानें बयान ज़ारी रहे.
शब्बा ख़ैर.
नींद इस सोच से टूटी अक्सर
ReplyDeleteकिस तरह कटती हैं रातें उसकी
बेहतरीन पंक्ति।
भदौरिया की टिप्पणी पढकर तो मजा ही आ गया।
परवीन शाकिर जैसी उस्ताद शायिरा कि रचनाएं पढ़वाने का शुक्रिया
ReplyDeleteभदौरिया जी, यकीनन ये ग$जलें मैं हिन्दी से उठा रही हूं. परवीन शाकिर को बज़रिये हिन्दी ही जानती हूं. टेक्नीक तो नहीं जानती हां भाव समझ लेती हूं. परवीन की शायरी की सच्चाई, गहराई और पा$कीजगी मुझे लुभाती है. इसी वजह से वे मेरी दुनिया में हैं. टेक्निकल गल्तियों के लिए माफी चाहती हूं लेकिन ये वही गल्तियां हैं जिनका मुझे इल्म नहीं है. फिर भी आपकी टिप्पणियों से कुछ-कुछ ज्ञान बढ़ रहा है. शुक्रिया आपका, आगे भी इसी तरह बारीकियां बताते रहियेगा.
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