कल लखनऊ के सारे अखबार खून से रंगे होंगे। लॉमार्टीनियर स्कूल के बच्चों की वैन सुबह-सुबह रोडवेज की बस से टकरा गई और पूरी सुबह में, शहर में दर्द घुल गया। एक बच्चे की मौत हो गई. कई घायल हुए. अखबार की दुनिया भी अजीब होती है. संवेदनशील होने के लिए कितनी बार संवेदनाओं का गला दबाना पड़ता है. सारा दिन एक्सीडेंट की फोटो, कवरेज, वर्जन, खबरों के एंगल इन्हीं सब में दिन बीता। कैसी मजबूरी है कि फिर उन्हीं हाथों में अगली सुबह अपने कलेजे के टुकड़ों को सौंपना है. जिं़दगी को फिर चलना है. ऊपरवाले का यह कैसा इंसाफ है? दिल दर्द से भरा है. काश! कोई कुछ कर पाता. कम कर पाता उन मां-बाप का दर्द. काश!
श्रधांजलि.....
बिकती है सम्वेदना मिलते सूत्र हजार।
ReplyDeleteचौथा खम्भा बन गया बहुत बड़ा बाजार।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
ये भी जिंदगी का एक विचित्र रूप है प्रतिभा जी।
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ReplyDeletekabhi kabhi aisa hota hai ki bas dil ....
ReplyDeleteजैसा कि श्यामल सुमन ने लिखा कि चौथा खम्भा बन गया बहुत बडा बाजार। श्यामल जी आप भावना को समझ नहीं पाए, इनके मन में भी दर्द है, खबर लिखना हमारी मजबूरी है, आपको अखबार में समाचार नहीं मिलेगा तो शिकायत भी करेंगे। हम अपनी आंखों के आंसू छिपाकर भी कई बार काम करते हैं। ऐसा एक बार नहीं, कई बार होता है, कभी नजदीक से देखना, चौथा खम्भा दर्द को समझता है, अहसास करता है, खुद रोता है लेकिन दुनिया को चलना है, इसलिए हम भी चलते हैं। आपकी बात आपको मुबारक। हर बात में मीडिया को कोसना कहां तक उचित।
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