Monday, March 16, 2009

हर प्रेम


हर प्रेम सबसे पहले यही पूछता है, तुम्हारी चौखट तक आकर....क्या तुम मेरे लिए कूद सकते हो खिड़की से नीचे? कर सकते हो छलनी अपना सीना? हर प्रेम पूछता है यही...उड़ सकते हो क्या मेरे साथ ?
प्रेम जब आता है तुम्हारी चौखट तक, तो जल्दी चले जाने के लिए नहीं....उसे जाना होता है किसी पर्वत या घाटी की तरफ़। समुद्र या नदी की तरफ़। वह बिना किसी पूर्वा योजना के आ निकलता है तुम्हारे घर की तरफ़ और जानना चाहता है, तुम उसके साथ डूबने चल रहे हो या नहीं...

प्रेम तुम्हें भली-भांति मरने की पूरी मोहलत देता है....

- गगन गिल

5 comments:

  1. आज सुबह है कुछ महकी महकी सी मेरी
    होके आई है नसीम ए सहर उनकी गली से.


    ऐसा लग रहा है किसी महके से उपवन में बैठ के कोई शानदार किताब पढता हूँ मैं. nice change in blog setting

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  2. प्रतिभा की दुनिया सचमुच बहुत खूबसूरत है. यहाँ फूल हैं, प्रेम है, कवितायें है और गुस्सा भी. जिनके सिर पर पलाश बरसता हो उनके वसंत से ईर्श्या क्यों न हो
    बधाई.

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  3. Naveen ji ne sahi kaha hai, pratibha. blog mein hue badlav bhi sunder hain. mareenawaad ki janani kahloage-kam se kam we tamam log jo is blog ke zariye mareena ka prichai paa rahe hain, yahi kahange.

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  5. Shukriya sir, aapke shabad sirf shabd nahin hain takaqt bhi hain aur prerna bhi.

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