मेरे शहर
मुझसे मिलने आया...
जैसे-जैसे तितली पढ़ती गयी नाय्या की ओर खिंचती गयी. मैंने उन्हें ढूंढ-ढूंढ कर पढ़ना शुरू किया. पढ़ रही हूँ.
यह कविता अपने भीतर अपनेपन का ऐसा कोमल संसार लिए है कि यह बार-बार अपनी ओर खींचती है. पलकें भिगोती है.
मानव के लिखे को पढ़ते हुए उनके पात्रों से इकसार होना होता रहा है. जंग हे से तो जाने कितनी बार मिल चुकी हूँ. कैथरीन, इति ,उदय, पवन, जीवन, बंटी, सलीम, शायर. जैसे सबको मैं जानती हूँ शायद वो भी मुझे जानते होंगे. जानना कितना अपर्याप्त सा शब्द है लेकिन इसकी तरफ कैसा सा खिंचाव है.
लेकिन नाय्या पात्र नहीं हैं, वो लेखक हैं और कमाल की लेखक हैं. जितना भी सुना, पढ़ा और समझा उन्हें मुझे एक सहजता मिली. ऐसी सहजता जिसमें लेखक होने पर, गर्दन पर कोई बल नहीं पड़ता. जीवन ऐसा ही है जितना इसके करीब जायेंगे विनम्रता और करुणा से भरते जायेंगे.
साहित्य के शोर से दूर नाय्या को सुनना, पढ़ना और कृतज्ञ होना उस लेखक का जो अपने लिखे में ऐसे सुंदर ठीहों के पते छोड़ता चलता है.
बहुत बढ़िया
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