Monday, November 21, 2022

इस सुबह में मैं खिल उठी हूँ


हमेशा से जानती हूँ कि हर रात की हथेली पर एक सुबह का इंतज़ार है. यह भी कि सुबहों की मुठ्ठियों में कोई नामालूम सी उम्मीद खिलती है. फिर भी जब-तब अपनी सुबहें गुमा बैठती हूँ. फिर कोई दोस्त मुझे आलस और उदासी के मिले जुले प्रकोप से निकालता है और सुबहों को हथेलियों पर रख देता है. इन दिनों फिर सुबहों से यारी हो चली है. 

मैं सुबहों से कुछ कहती इसके पहले वो मुझसे पूछ बैठती हैं, 'नींद पूरी हो गयी?'मैं पलकें झपका देती हूँ. क्या सुबहों को मेरे और नींद के बिगड़े रिश्ते की बाबत मालूम होगा मन ही मन सोचती हूँ कि चिड़ियों का एक रेला गुजरता है सर के ऊपर से.

धरती पर रात खिली जूही और रातरानी बिखरी हुई है. जो फूल धरती पर हैं वो मुस्कुरा रहे हैं जो डालों पर अटके हैं वो ऊंघ रहे हैं. मैं इस सुबह में बिखर जाना चाहती हूँ. यह सोचते ही रुलाई का कोई भभका फूटने को होता है और मैं मुस्कुरा देती हूँ. सोचती हूँ सुबहों ने मेरे भीतर प्रवेश करना शुरू कर दिया है शायद कि रोना बढ़ गया है इन दिनों. अच्छा लगना भी बढ़ गया है और उदास होना भी.

कल एक दोस्त ने पूछा था जब सारा दिन अच्छा बीता तो शाम तक बिखर क्यों गयी तुम, कहाँ से लाती हो इतनी उदासी. मैं उसकी बात सुन मुस्कुरा दी. मन में सोचा जिन्दगी से.

उदासी को इतना बुरा क्यों समझते हैं लोग. वो भी जीवन का हिस्सा है. आंसू भी. उसका हमारे भीतर बचे रहना शुभ है. कौन है ऐसा जो हमेशा खुश रहता होगा. हमेशा खुश रहने का सपना कितना बोरिंग है.
फ़िलहाल खूब रो चुकने के बाद मैंने अपने चेहरे पर ढेर सारी धूप मल ली है. थोड़ी सी ओस पलकों पर रख ली है. थोड़ा सा आसमान आँखों में भर लिया है.

बहुत दिनों से पढ़ने का रुका हुआ सिलसिला फिर शुरू करने का मन है. सिरहाने रखी किताब 'सरे चाँद थे सरे आसमां' इस सुबह में मुस्कुरा रही है.

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