मैं आवाज़ को नहीं पहचानती, ख़ामोशी को पहचानती हूँ. चेहरे में मुझे सिर्फ आँखें दिखती हैं, आँखों में दिखता है वो पानी जिसमें असल पहचान होती है. चेहरे पर लाख चेहरे रख ले कोई आँख के पानी को बदल पाना अभी सीखा नहीं मनुष्य ने. मैंने हमेशा संवादों के बीच से खामोशियाँ चुनी हैं आहिस्ता, शाइस्ता ढंग से. जैसे मृत्यु के बाद चुनते हैं राख से अस्थियाँ. उँगलियों से जब टकराता है अस्थि का कोई टुकड़ा तो सिहरन होती है, कंपकपी. याद का भभका रुलाई बन फूटता है कि राख के भीतर छुपा अस्थि का यह टुकड़ा कभी गले में पड़ी बांह थी.
अल्फाज़ की लरजिश ने कभी भरमाया नहीं, ख़ामोशी की तासीर ने पुकारा हमेशा. जब सोचती हूँ किसी के बारे में तो उसका चेहरा नहीं, आँखें दिखती हैं. उन आँखों का पानी दिखता है. देखने का अंदाज नहीं देखने की जुम्बिश दिखती है. स्मृतियों में जो आँखें हैं उनकी जुम्बिश थामे रहती है. किसी सुख से भरती है. उदासी से भी.
सुख और उदासी क्या अलग शय हैं? प्रेम और विछोह क्या अलग शय हैं?
कल यूँ ही एक बच्चा करीब आकर लिपट गया. वो मुझे नहीं जानता था. मैं भी उसे नहीं जानती थी. जब यह लिख रही हूँ तो पास में बैठी हुई विनोद कुमार शुक्ल की कविता 'हताशा में आदमी' मुस्कुरा रही है. मैंने कविता को देख पलकें झपकायीं और बच्चे को मुस्कुराकर देखा, बच्चे ने मुझे. मैंने कहा, 'कैसे हो', उसने हंसकर कहा, 'बहुत अच्छा हूँ.' मैंने उसकी आँखों में खुद को टिका दिया और पूछा, 'ये बहुत अच्छा कितना बड़ा होता है'. उसने अपने नन्हे हाथों को भरसक बड़ा करते हुए फैला दिया...'इतना'. हम दोनों हंस दिए. मैंने उसके गाल थपथपाए उसने अपनी बाहें मेरे गले में डाल दीं. सच कहूँ, मेरी आँखें भीग गयीं. शायद अरसे से किसी के गले लगने की इच्छा को ठौर मिला था. मैंने उसे भींच लिया. वो पलकें झपकाकर चला गया.
अल्फाज़ की लरजिश ने कभी भरमाया नहीं, ख़ामोशी की तासीर ने पुकारा हमेशा. जब सोचती हूँ किसी के बारे में तो उसका चेहरा नहीं, आँखें दिखती हैं. उन आँखों का पानी दिखता है. देखने का अंदाज नहीं देखने की जुम्बिश दिखती है. स्मृतियों में जो आँखें हैं उनकी जुम्बिश थामे रहती है. किसी सुख से भरती है. उदासी से भी.
सुख और उदासी क्या अलग शय हैं? प्रेम और विछोह क्या अलग शय हैं?
कल यूँ ही एक बच्चा करीब आकर लिपट गया. वो मुझे नहीं जानता था. मैं भी उसे नहीं जानती थी. जब यह लिख रही हूँ तो पास में बैठी हुई विनोद कुमार शुक्ल की कविता 'हताशा में आदमी' मुस्कुरा रही है. मैंने कविता को देख पलकें झपकायीं और बच्चे को मुस्कुराकर देखा, बच्चे ने मुझे. मैंने कहा, 'कैसे हो', उसने हंसकर कहा, 'बहुत अच्छा हूँ.' मैंने उसकी आँखों में खुद को टिका दिया और पूछा, 'ये बहुत अच्छा कितना बड़ा होता है'. उसने अपने नन्हे हाथों को भरसक बड़ा करते हुए फैला दिया...'इतना'. हम दोनों हंस दिए. मैंने उसके गाल थपथपाए उसने अपनी बाहें मेरे गले में डाल दीं. सच कहूँ, मेरी आँखें भीग गयीं. शायद अरसे से किसी के गले लगने की इच्छा को ठौर मिला था. मैंने उसे भींच लिया. वो पलकें झपकाकर चला गया.
क्या वो बच्चा जीवन था या ख़्वाब?
वो खेल के मैदान में गेंद के पीछे भागने लगा था और मेरा मन उसकी आँखों में डूबा था.
ज़िन्दगी किस कदर रहस्यों से भरी है, हम नहीं जानते. मैं देर रात तक उन नन्हे हाथों के बारे में सोचती रही जिसने बताया था कि बहुत अच्छा होना कितना बड़ा होता है. यही सोचते हुए सोने की कोशिश की तो आँखों में एक मुस्कान खिल गयी.
सुबह उठी तो जूही की डाल फूलों से भरी हुई थी.
मुझे उस बच्चे का नाम ख़्वाब रखना का जी चाहा. ख़्वाब जो जियाये रहते हैं...थामे रहते हैं.
सुबह उठी तो जूही की डाल फूलों से भरी हुई थी.
मुझे उस बच्चे का नाम ख़्वाब रखना का जी चाहा. ख़्वाब जो जियाये रहते हैं...थामे रहते हैं.
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 06 नवम्बर 2022 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
याद का भभका ख़्वाब बन उतरा है !
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर
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