Friday, July 8, 2022

रूह की तस्वीर कोई कैसे खींच सकता है



कल दिन भर पेट में हंसी के बगूले उठते रहे. शाम को बेबी आंटी का फोन आया और बगूलों को उनकी आवाज़ ने थाम लिया. बेबी आंटी से मैं मिली नहीं हूँ, उनके कुछ किस्से सुने हैं माया आंटी से. उनके फोन आने की बात से लगा कि मैं उन्हें जानती हूँ. उनके गले लग जाने की इच्छा हुड़क बनकर उभरने लगी. उनका कहना 'तू बस आ जा' आँखों में बदलियाँ भर देता है.

'मैं कुछ भी नहीं कह पा रहा था. मेरा गला भारी हो गया था. मैं कितना कहना चाहता था कि बेबी आंटी मैं आपसे बहुत प्रेम करता हूँ, अभी भी. ठीक इस वक्त मैं आपके गले लग जाना चाहता हूँ. जब उन्हें मेरी तरफ से कोई आवाज़ नहीं आई तो उन्होंने, 'अच्छा बेटा आना तो फोन करना' कहकर फोन काट दिया.

मेरे मन में अजीब सी कशमकश चल रही है. क्या बेबी आंटी लेखक के और देहरादून में बैठी इस पाठक के, इंदौर में बैठी माया आंटी के मन में उनके लिए कितना प्रेम है कभी जान पायेंगी. अगर नहीं तो क्यों नहीं. लेखक ने क्यों नहीं कहा, जो उसने महसूस किया. शायद वो हम सबके हिस्से का भी कह देता. न कहकर क्या लेखक अपने लिए लिखने का राशन जमा करता है. यह तो ठीक नहीं. मुझे नहीं पढ़ना ये सब. नाराजगी आ घेरती है. 

लेखक की बरसों पहले लिखी एक कविता का टुकड़ा याद आ गया, 

'सोचता हूँ, 
अभी वो कहीं अगर मुझसे टकरा जाएगी,
कहीं भी
सड़क में, बाज़ार में, किसी मोड़ पर
तब शायद वो मुझे मेरे नाम से ही पुकारेगी
पर मैं इस तरफ खड़े होकर,
विदूषक ही तरह सुन रहा होऊंगा
और चुप रहूँगा 
मानो वो किसी और को आवाज़ दे रही हो
फिर मैं ऊपर आसमान की तरफ देखूंगा,
अगर बादल होंगे तो उनके बारे में सोचूंगा...

अपने मन की बात न कह पाने, पुकार पर पलटकर जवाब न देने पर पूरी किताब लिख सकते हैं लेकिन कह नहीं सकते कि 'तुमसे प्यार है...' हद है. एक अजीब सी बेचैनी के साथ दोबारा किताब उठती हूँ तो भीगी आँखें हंस देती हैं. इसी कशमकश में तो लेखक भी है. न कह पाने और फिर उस एक लम्हे में अपने मन की बात न कह पाने की पीड़ा को यहाँ-वहां बरसों व्यक्त करने की बेचैनी. सरल होना इतना कठिन क्यों बना लेते हैं हम. मेरे सामने बेबी आंटी हैं...और उनकी गोद में बैठा एक नन्हा सा बच्चा जो उन्हें बेहद प्यार करता है, अब भी. लेकिन दुनिया में शब्दों का इतना ढेर है, इतना शोर है कि सबसे पवित्र भावों को कहने के समय उसने चुप रहना सीख लिया है.

पढ़ने के दौरान...नहीं, लिखने के दौरान या शायद जीवन के दौरान जिन पलों के आने से आँखें चुराती हूँ जब वो सामने आ खड़े होते हैं तो पैर के अंगूठे से पत्थर की फर्श को कुरेदने का जतन शुरू कर देती हूँ. हमेशा से सोचती थी कि प्रेम में भीगे लम्हों की बाबत बात नहीं करनी चाहिए, उन्हें लिखना नहीं चाहिए, उन्हें पढ़ना नहीं चाहिए. उन्हें छोड़ देना चाहिए वैसे ही जैसे हम साँसों के बारे में बात नहीं करते उसके बारे में लिखते नहीं लेकिन वो न हो तो क्या हो आखिर...जैसे क्या हम फूल खिलने को लिख सकते हैं, हवा की छुअन को लिख सकते हैं उसी तरह प्रेम के लम्हों को भी क्योंकर लिखना चाहिए...उन्हें तो बस खिलना चाहिए...महकना चाहिए...

तमाम यात्रा एक लम्बी कविता में बदलने लगी है. रूहानी, लेखक और गुल मोहम्मद के साथ गुलमर्ग के रास्ते पर निकल पड़ी हूँ. सारे रास्ते मुझे गुलमर्ग याद आता रहा. 2012 में इन्हीं रास्तों पर पहली बार मैं कुदरत की ऐसी खूबसूरती देख फूटफूट कर रोई थी. यूँ पूरी कश्मीर यात्रा के दौरान मेरी आँखें भीगी ही थीं. लेकिन गुलमर्ग के रास्तों पर मैंने पहली बार अजीब सी दिव्यता, अपनेपन और मुक्ति को एक साथ महसूस किया था. शायद आध्यात्मिक लोग इसे ही कहते होंगे ईश्वर के दर्शन होना. मेरी बहती आखें रूहानी की शरारतों और लेखक के संकोच को इग्नोर कर रही हैं.

बस लेखक के लिखे में कुछ वायलिन के गुंथे हुए सुरों को पढ़ पा रही हूँ.
'तुम्हें कुछ पढ़कर सुनाऊँ?' रूह ने पूछा.
'हाँ सुनाओ' लेखक ने कहा.
ये ललद्यद हैं जो मुझे बहुत पसंद हैं...
who is to die and who they kill?
who can kill and who is to die?
one who gorgets God for the sake of the hearth,
Is sure to die and is to be killed.''

तुम्हें पता है, हर देश में, हर धर्म में ललद्यद जैसे लोग हुए हैं जिन्होंने भाईचारे, आपसी प्रेम और शांति से जीने की सुंदर बातें की हैं. और वो आम लोगों के बीच बेहद प्रसिद्ध भी हुए हैं. लेकिन फिर भी ये हिंसा कभी खत्म नहीं हुई.'

'मुझे लगता है कि लोग बोर हो जाते हैं. जैसे हमारे देश में लोग गाँधी से बोर हो गए हैं. जैसे ही कोई गाँधी के अलावा कोई विवादास्पद बात उनके बारे एसा कहता है तो लोगों के कान खड़े हो जाते हैं. हमें अपनी ज़िन्दगी में लगातार ड्रामा चाहिए होता है. हमारे घरों को ही ले लो, चार-छह लोगों में हम इतना ड्रामा खड़ा कर देते है कि हमारा आपस में साथ रहना मुश्किल हो जाता है.'

'यह इतना आसान नहीं है.' रूह ने कहा. 
'वह बर्फ में पैर रखते हुए पहाड़ों में ऊपर की तरफ चलने लगी. मेरी इच्छा हुई कि मैं उसकी तस्वीर खींच लूं इस वक़्त. इन घने देवदार के जंगल में, बर्फ के बीच चलती हुई वह किसी पेंटिंग सी लग रही थी.'
तस्वीर खींचने की इच्छा को भीतर धकेलते हुए लेखक ने सोचा कि रूह को तस्वीर खिंचवाना पसंद नहीं, यूँ भी कोई रूह की तस्वीर कैसे खींच सकता है.

सोशल मीडिया पर उतराते मैसेज की बाढ़ का ललद्यद जैसे कवि कभी मुकाबला नहीं कर सकते.
'जिस देश में लोगों को अच्छी कला, अच्छी कविता की समझ नहीं है, वहां हिंसा का होना आम बात है.'

(जारी...)

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