'तुम लोग तो चले गये थे, उसके बाद हम बचे हुए कश्मीरियों के बहुत बुरे हाल हुए थे...'
कल जब पेज 94 पर बुकमार्क लगाकर किताब बंद की थी तब आसमान साफ़ था बाहर लेकिन भीतर ढेर सारा कुहासा घिर आया था. मेरी पढ़ने की गति काफी अच्छी है. यूँ माँ कहती हैं कि तुम्हारे हर काम में बहुत गति है, सामान्य से काफी ज्यादा. यह बात मुझे भी लगती है. तो गति के मुताबिक 175 पेज की यह किताब एक सिटिंग में पढ़ना आसान था मेरे लिए. लेकिन गति भी एक नियम चाहती है, उसकी भी एक इच्छा होती है. आखिर बात रूह की है तो जल्दबाजी कैसे काम करती. सच कहूँ तो किताब के आने में जितनी देर हो रही थी मुझे ठीक ही लग रहा था. इस बात को ठीक-ठीक मैं समझ पायी रूह पढ़ते हुए ही. कि जिस जगह आप असल में शिद्दत से पहुंचना चाहते हैं वहीं जाने से कन्नी काटते रहते हैं लेकिन उसके आस पास घूमते रहते हैं और वहां पहुँचने की इच्छा को जीने का सुख च्विंगगम की तरह चुभलाते रहते हैं.
आज की सुबह भीगी हुई है. रात भर बरस चुकने के बाद बारिश अपनी बूंदों भरी ओढ़नी धरती को ओढ़ाकर सुस्ताने लगी है. मैंने रूह उठा ली है. कुछ ही पन्ने पढ़ पायी हूँ. आगे बढ़ नहीं पा रही. फिर कल पढ़े हुए पन्नों को जिन्हें कल सारा दिन चुभलाती रही दोबारा पलटती हूँ. रोकती नहीं आंसुओं को. बहने देती हूँ...
मुश्ताक कहना जारी रखते हैं... 'तुम लोग तो चले गये थे, उसके बाद हम बचे हुए कश्मीरियों के बहुत बुरे हाल हुए थे. मुझे लगता है कि मेरी उम्र के जो लोग उस वक्त इस वादी में बड़े हो रहे थे उनका मानसिक संतुलन अगर अच्छा है तो यह बहुत बड़ी बात है.' (पेज 83) मुश्ताक कहना जारी रखते हैं मैं उनकी ज़ानिब से सुनती हूँ उन सबकी आवाज़, उन सबकी पीड़ा जिन्होंने सदियों से सिर्फ सहा है. उन्हें न सुना गया ठीक से, न समझा गया.
इतिहास...सबका अपना इतिहास है. और सबके अपने सच. कब और कैसे एक के सच को दूसरे के सच के प्रतिपक्ष में खड़ा करना है यह राजनीति का काम है जो वो बखूबी कर रही है. इतिहास में क्या दर्ज होना है, कैसे दर्ज होना है यह भी राजनीति बखूबी जानती है. हमारे सामने कुछ आधा सच लिए हुए कहानियों को अलग ढंग से अलग तरह के इतिहास में लपेटकर परोस दिया जाता है. हम उसे ही पूरा सच मान लेते हैं. यह हमारी मासूमियत ही है जो राजनीति की खुराक है.
मुश्ताक का सच पन्नों में सिमटने वाला सच नहीं है, वो कोई किस्सा नहीं है.
'असल में वे औरते ही थीं जिन्होंने मिलिटेंटस को घर में घुसने नहीं दिया था. पर उन औरतों पर बहुत कम लिखा गया.'
'मैंने लड़कियों को अपने चेहरे पर चूल्हे की राख मलते हुए देखा है ताकि वो अपना गोरापन छुपा लें. उन्हें किसी ने नहीं छोड़ा न हिज़बुल ने, न एमएम ने, न आर्मी ने.'
एक गहरी ख़ामोशी पसरी हुई है...बिना किसी सिसकी के आँखें लगातार बह रही हैं. फराह बशीर की किताब 'रूमर्स ऑफ स्प्रिंग' विश लिस्ट में शामिल हो गयी है. मिलिटेंसी के दौरान वादी में बड़ी होती एक लड़की की निजी दास्तान जिसका लेखक ने जिक्र किया है.
आज की सुबह में कल की उदासी है...असल में यह सदियों की उदासी है...
(जारी...)
कल जब पेज 94 पर बुकमार्क लगाकर किताब बंद की थी तब आसमान साफ़ था बाहर लेकिन भीतर ढेर सारा कुहासा घिर आया था. मेरी पढ़ने की गति काफी अच्छी है. यूँ माँ कहती हैं कि तुम्हारे हर काम में बहुत गति है, सामान्य से काफी ज्यादा. यह बात मुझे भी लगती है. तो गति के मुताबिक 175 पेज की यह किताब एक सिटिंग में पढ़ना आसान था मेरे लिए. लेकिन गति भी एक नियम चाहती है, उसकी भी एक इच्छा होती है. आखिर बात रूह की है तो जल्दबाजी कैसे काम करती. सच कहूँ तो किताब के आने में जितनी देर हो रही थी मुझे ठीक ही लग रहा था. इस बात को ठीक-ठीक मैं समझ पायी रूह पढ़ते हुए ही. कि जिस जगह आप असल में शिद्दत से पहुंचना चाहते हैं वहीं जाने से कन्नी काटते रहते हैं लेकिन उसके आस पास घूमते रहते हैं और वहां पहुँचने की इच्छा को जीने का सुख च्विंगगम की तरह चुभलाते रहते हैं.
आज की सुबह भीगी हुई है. रात भर बरस चुकने के बाद बारिश अपनी बूंदों भरी ओढ़नी धरती को ओढ़ाकर सुस्ताने लगी है. मैंने रूह उठा ली है. कुछ ही पन्ने पढ़ पायी हूँ. आगे बढ़ नहीं पा रही. फिर कल पढ़े हुए पन्नों को जिन्हें कल सारा दिन चुभलाती रही दोबारा पलटती हूँ. रोकती नहीं आंसुओं को. बहने देती हूँ...
मुश्ताक कहना जारी रखते हैं... 'तुम लोग तो चले गये थे, उसके बाद हम बचे हुए कश्मीरियों के बहुत बुरे हाल हुए थे. मुझे लगता है कि मेरी उम्र के जो लोग उस वक्त इस वादी में बड़े हो रहे थे उनका मानसिक संतुलन अगर अच्छा है तो यह बहुत बड़ी बात है.' (पेज 83) मुश्ताक कहना जारी रखते हैं मैं उनकी ज़ानिब से सुनती हूँ उन सबकी आवाज़, उन सबकी पीड़ा जिन्होंने सदियों से सिर्फ सहा है. उन्हें न सुना गया ठीक से, न समझा गया.
इतिहास...सबका अपना इतिहास है. और सबके अपने सच. कब और कैसे एक के सच को दूसरे के सच के प्रतिपक्ष में खड़ा करना है यह राजनीति का काम है जो वो बखूबी कर रही है. इतिहास में क्या दर्ज होना है, कैसे दर्ज होना है यह भी राजनीति बखूबी जानती है. हमारे सामने कुछ आधा सच लिए हुए कहानियों को अलग ढंग से अलग तरह के इतिहास में लपेटकर परोस दिया जाता है. हम उसे ही पूरा सच मान लेते हैं. यह हमारी मासूमियत ही है जो राजनीति की खुराक है.
मुश्ताक का सच पन्नों में सिमटने वाला सच नहीं है, वो कोई किस्सा नहीं है.
'हमारा गांव तीन तरफ से घिर गया था. एक तरफ जेकेएलएफ, दूसरी तरफ हिज़बुल और तीसरी तरफ मुस्लिम मुजाहिदीन.'
'मैंने अपने दोस्त को जलते हुए देखा था'
एक बार हिज़बुल ने गाँव में पर्चे बंटवा दिए कि कोई भी गाँव में बत्ती बंद नहीं करेगा. एमएम ने भी पर्चे बंटवाए कि कि किसी के घर से रौशनी नहीं दिखनी चाहिए. मेरे पिता ने सारी खिड़कियों में ईंटें लगवाकर उन्हें चुनवा दिया था, हवा के लिए एक ईंट की जगह ख़ाली छोड़ी थी जिस पर भी जाली लगा दी थी. हम रातों में बत्ती जलाकर रखते पर घर चारों तरफ से बंद था इसलिए रौशनी बाहर नहीं जाती थी. आम कश्मीरी को दोनों से बचने के उपाय करने होते थे.'
कल पढ़े हुए पन्ने आज भी खड़े हुए रोयें में शामिल हैं अपनी तमाम पीड़ा के साथ. क्या जानते हैं हम कश्मीर के बारे में वहां के लोगों के बारे में. कुछ भी तो नहीं. कश्मीर हमारा है तो ये सब लोग भी तो हमारे हैं, मुश्ताक, बशीर ये सब भी तो हमारे हैं. उनका जिया हुआ सच भी तो हमारा ही होना चाहिए न? क्यों नहीं है...यह सवाल सबसे बड़ा है. हालाँकि जवाब से अनजान कोई नहीं.
'क्या हम दूसरे के डरों को छू सकते हैं? मुश्ताक के किस्सों में कहीं भी लड़कियों का जिक्र नहीं था. कुछ रेप के वाकये थे पर लड़कों के साथ बड़ी हो रही लड़कियों के किस्से क्यों नदारद थे?' ' मैं जानना चाहता हूँ कि तुम्हारे आसपास बड़ी हो रही लड़कियों का क्या हुआ होगा?' लेखक की जिज्ञासा असल में हम सबकी जिज्ञासा है.
एक बार हिज़बुल ने गाँव में पर्चे बंटवा दिए कि कोई भी गाँव में बत्ती बंद नहीं करेगा. एमएम ने भी पर्चे बंटवाए कि कि किसी के घर से रौशनी नहीं दिखनी चाहिए. मेरे पिता ने सारी खिड़कियों में ईंटें लगवाकर उन्हें चुनवा दिया था, हवा के लिए एक ईंट की जगह ख़ाली छोड़ी थी जिस पर भी जाली लगा दी थी. हम रातों में बत्ती जलाकर रखते पर घर चारों तरफ से बंद था इसलिए रौशनी बाहर नहीं जाती थी. आम कश्मीरी को दोनों से बचने के उपाय करने होते थे.'
कल पढ़े हुए पन्ने आज भी खड़े हुए रोयें में शामिल हैं अपनी तमाम पीड़ा के साथ. क्या जानते हैं हम कश्मीर के बारे में वहां के लोगों के बारे में. कुछ भी तो नहीं. कश्मीर हमारा है तो ये सब लोग भी तो हमारे हैं, मुश्ताक, बशीर ये सब भी तो हमारे हैं. उनका जिया हुआ सच भी तो हमारा ही होना चाहिए न? क्यों नहीं है...यह सवाल सबसे बड़ा है. हालाँकि जवाब से अनजान कोई नहीं.
'क्या हम दूसरे के डरों को छू सकते हैं? मुश्ताक के किस्सों में कहीं भी लड़कियों का जिक्र नहीं था. कुछ रेप के वाकये थे पर लड़कों के साथ बड़ी हो रही लड़कियों के किस्से क्यों नदारद थे?' ' मैं जानना चाहता हूँ कि तुम्हारे आसपास बड़ी हो रही लड़कियों का क्या हुआ होगा?' लेखक की जिज्ञासा असल में हम सबकी जिज्ञासा है.
'असल में वे औरते ही थीं जिन्होंने मिलिटेंटस को घर में घुसने नहीं दिया था. पर उन औरतों पर बहुत कम लिखा गया.'
'मैंने लड़कियों को अपने चेहरे पर चूल्हे की राख मलते हुए देखा है ताकि वो अपना गोरापन छुपा लें. उन्हें किसी ने नहीं छोड़ा न हिज़बुल ने, न एमएम ने, न आर्मी ने.'
एक गहरी ख़ामोशी पसरी हुई है...बिना किसी सिसकी के आँखें लगातार बह रही हैं. फराह बशीर की किताब 'रूमर्स ऑफ स्प्रिंग' विश लिस्ट में शामिल हो गयी है. मिलिटेंसी के दौरान वादी में बड़ी होती एक लड़की की निजी दास्तान जिसका लेखक ने जिक्र किया है.
आज की सुबह में कल की उदासी है...असल में यह सदियों की उदासी है...
(जारी...)
बहुत ही गजब का लिखा है रूह पर तुमने,,,,और आंसू तो चरम सत्य होते ही है
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 7.7.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4483 में दिया जाएगा | चर्चा मंच पर आपकी उपस्थिति चर्चाकारों का हौसला बढ़ाएगी
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबाग
रूह के लेखन के बहाने बहुत ही मार्मिकता से वस्तु स्थिति की परतें उघड़ आई हैं 🙏🙁
ReplyDeleteओह बहुत मार्मिक लिखा ,आगे का इंतजार रहेगा
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