Friday, July 22, 2022

भाषा से बाहर



जब मैं लिखना चाहती हूँ
सदियों से गले के भीतर अटकी हुई
सिसकी के बारे में
लाख खंगालने के बावजूद
भाषा के पास नहीं मिलता कोई शब्द,

जब मैं लिखना चाहती हूँ भूख
दुनिया के तमाम शब्दकोषों को पलटने के बाद भी
नहीं मिलता एक शब्द जो
भूख से उठने वाली पेट की ऐंठन, चुभन
सिकुड़ती खाल, नाउम्मीद हो चुकी आँखों का सूखापन
दर्ज कर सके,

जब मैं लिखना चाहती हूँ मौन
तब न जाने कहाँ से आ जाते हैं
ढेर सारे शब्द
शोर मचाते हुए,

जब मैं लिखना चाहती हूँ
बेबसी, यातना, पीड़ा
भाषा के आंगन में शुरू हो जाता है
शब्दों का खेल,

जब मैं लिखना चाहती हूँ प्रेम
खिल उठते हैं तमाम फूल
बरसने लगते हैं बादल
बच्चे खिलखिलाने लगते हैं,
गैया लौटने लगती हैं घर
चूल्हे में बढ़ने लगती है आंच
नदियों में कोई वेग आ जाता है
रास्ते मुस्कुराने लगते हैं
यह सब होता है भाषा के बाहर,

और जब मैं तुम्हें देखती हूँ
दुनिया की तमाम भाषाएँ
देखती हैं मुझे तुम्हें देखते हुए
किसी भाषा के पास वह शब्द नहीं
जो इस देखने की मिठास को समेट सके...

4 comments:

  1. वाह ! संवेदना से शुरू हुई पंक्तियां अंत में आशावान बना गईं।
    सुंदर सराहनीय रचना । बधाई।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है ।

    ReplyDelete
  2. बहुत सुंदर रचना।

    ReplyDelete
  3. बेहद सुंदर रचना

    ReplyDelete