जीवन अक्सर अल्फाज़ों के पार जाकर बैठ जाता है. टुकुर-टुकुर देखता है. मुस्कुराता है. हम उसकी मुस्कुराहट के आकर्षण में खिंचते चले जाते हैं और डरते, सहमते, हिचकते हुए जीवन की ओर हाथ बढ़ा देते हैं. और वो आगे बढ़ जाता है. हमारे खाली हाथ उदास आँखें जीवन को फिर भी उम्मीद से देखते हैं.
उम्मीद है कि टूटती नहीं. शायद इसीलिए उसका नाम उम्मीद है. उम्मीद एक नशा है, हम बेख्याली में भी इस नशे की ज़द से निकलना नहीं चाहते. ये नशा मुश्किल से मुश्किल दौर में हाथ थामे रहता है. उसी नशे की ज़द में एक रोज फिर से जीवन की ओर हाथ बढ़ा बैठी...और इस बार वो उठकर चल नहीं दिया. रुका रहा. उसके कंधे को छुआ तो मेरे भीतर कोई झरना फूट पड़ा...तर-ब-तर हो उठी.
'जीवन और मैं' हम दोनों दोस्त हैं. लेकिन हमारी अक्सर बनती नहीं. जीवन अपनी मस्ती में रहता है, उसकी अपनी चाल है, अपना ढब. और मैंने अब अपना ढब अख्तियार कर लिया है. मैं उसकी चाल के साथ अपनी चाल नहीं मिलाती. वो मगरूर है तो कम तो मैं भी नहीं. हम नदी के दो किनारों की तरह साथ चलते हैं. जीने की इच्छा का पानी हम दोनों को जोड़े रहता है.
उस रोज जीवन का कंधा छुआ तो वो सरककर करीब आ गया. मेरी आँखों में ख़ुशी से ज्यादा हैरत थी. 'तुम हो? सचमुच क्या तुम ही हो?' जीवन ने पलकें झपकाईं और बोला, 'मैं कब नहीं था' अब रूठने की बारी मेरी थी. 'तुम थे तो अब तक कहाँ थे, 'यहीं तुम्हारे भीतर. पर तुमने मुझे पुकारा ही नहीं.' जीवन ने यह कहते हुए कशिश की सिगरेट सुलगा ली थी.
'क्यों पुकारूँ, तुम जीवन हो तो मैं भी जीने की इच्छा से भरी लड़की हूँ. मुझे तुम्हारी चाह है तो तुम्हें भी तो चाह होगी न मेरी?' मगरूर आँखों में शरारत खिलने लगी थी. जीवन ने पीठ पर हौले से धप्पा दिया और बोला, 'तभी तो हूँ तुम्हारे पास.' हम दोनों ने एक-दूसरे को देखा और ठठाकर हंस दिए. इतनी तेज़ कि हंसी के बगूलों में धरती डूबने लगी. बादल हंसी के बगूलों में डूबती धरती को देखने चले आये. बरसने वाले बादल. हम हंसते रहे, बादल बरसते रहे, हम भीगते रहे.
उस रोज जीवन और मैं एक साथ एक ही कप से आइसक्रीम खा रहे थे और साथ घर लौट रहे थे...अली सेठी रिपीट में फैज़ अहमद फैज़ की गज़ल गाये जा रहे थे...कब तक दिल की खैर मनाएं...
पीले अमलतास सर पर झर रहे थे झर झर झर...
कितना सुंदर
ReplyDeleteवाह! जीवन से मुलाक़ात ऐसे ही होती है अचानक कहीं भी कभी भी
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