अभी-अभी डाकिया रख गया है एक पत्र
देहरी परजिसके भीतर लहरा रहा है
आशाओं का संसार
जिसे छूते घबरा रही है लड़की
मुस्कुरा रही है दूर से देखकर ही
अभी-अभी अम्मा ने सांकल खोली है
तमाम नियम कायदों की
वो निकल गयी हैं घर से बहुत दूर
देर रात
उन्हें बाद मुद्दत सांस आई हो जैसे
अभी-अभी ज़िन्दगी की कुम्हलाई शाख पर
उम्मीद की कोंपलें फूटने की आहट हुई
प्रेमासिक्त कबूतर के जोड़े ने
देखा एक-दूसरे को
और मूँद ली हैं आँखें
अभी-अभी नन्हे ने किलक के उंगली बढ़ाई है
गुस्से से भरे उस अजनबी की ओर
अब उस अजनबी की आँख में
और मूँद ली हैं आँखें
अभी-अभी नन्हे ने किलक के उंगली बढ़ाई है
गुस्से से भरे उस अजनबी की ओर
जिसकी आँखों में कुछ देर पहले
उतरा रही थी हिंसा
उतरा रही है एक नदी
अभी-अभी शाख से टूटकर गिरा है
अभी-अभी शाख से टूटकर गिरा है
नीला गुलमोहर
प्रेमी जोड़े के कंधे पर
रास्तों ने मुस्कुराकर कर देखा उन्हें
प्रेमी जोड़े के कंधे पर
रास्तों ने मुस्कुराकर कर देखा उन्हें
एक बदली घिर आई है आसमान पर
अभी-अभी तुमने मेरी हथेलियों को चूमा है
और देखो धरती प्रेम से भर उठी है...
अभी-अभी तुमने मेरी हथेलियों को चूमा है
और देखो धरती प्रेम से भर उठी है...
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(४-०६-२०२२ ) को
'आइस पाइस'(चर्चा अंक- ४४५१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सुंदर मनहर रचना।
ReplyDeleteरूमानी अहसास से भीगे अल्फ़ाज़!!!
ReplyDeleteसराहनीय प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत सुंदर! कोमल भावनाओं को मोहक शब्द दिए हैं
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