लड़की ने मुठ्ठियों को जोर से भींच रखा था. इस कदर कि अपने ही नाखूनों की चुभन से हथेलियाँ छिलने लगी थीं, खून रिसने लगा था. उसे अपनी हथेलियों में रखी लकीरों से डर लगता था. कितनी ही नदियों में, समन्दरों में उसने चाहा कि इन लकीरों को बहा दे लेकिन वो न बहीं, वहीं रहीं. लड़की का सपनों से ऐतबार उठे जमाना हुआ. वो अब सपने नहीं देखती. बीते दिनों देखे गए सपनों की किरचें बीनने में एक उम्र गुजार चुकने के बाद भी उसकी पोरों के जख्म भरे नहीं हैं अब तक. रिसते रहते हैं.
फिर भी ज़िन्दगी से भरोसा उठा नहीं उसका, न मोहब्बत से, न ख़ुशी से. कि उसने दुनिया को मोहब्बत में डूबे देखने के सपने को और बड़ा कर लिया. पूरी क़ायनात में उसने गुंजा दी अपनी खुश होने की ख्वाहिश कि उसके हिस्से के सुख सबके हों, उसके हिस्से की ख़ुशी सबको मिले.
जब भी कोई प्यार में डूबा जोड़ा देखती लड़की की आँखें सुख से बह निकलतीं. बच्चों के सर पर हाथ फिराते हुए उसे मिलता सुकून. अजनबी चेहरों को मुस्कुराहटों में मुब्तिला देख उसकी सांसें खिल उठतीं. व्यक्ति से समष्टि तक का सफर ऐसे ही शुरू होता हो शायद कि लड़की ने अपने तमाम सपनो को पूरी दुनिया के लिए आज़ाद कर दिया था.
हर बरस की तरह इस बरस भी पूरा शहर मंजरियों की मादक खुशबू में डूबा हुआ था. हर बरस की तरह इस बरस भी बच्चे अपने बस्तों में कॉमिक्स छुपा के स्कूल जा रहे थे और नई किताबों और नई ड्रेस का उत्सव मना रहे थे. हर बरस की तरह इस बरस भी मेहँदी हसन साहब फरहत शहज़ाद के लिखे को आवाज़ दे रहे थे कि कोंपले फिर फूट आयीं...नयी कोंपलों का मौसम खिलखिला रहा था.
लेकिन वो ज़िन्दगी ही क्या जो एक सम पर चले. बरसों पहले मुरझा चुकी सपनों की शाख हरियाने लगी. नयकीनी गज़ब की शै है. अपने तमाम डर हम इस नायकीनी के हवाले करके खुद को बचा लेना चाहते हैं. लेकिन सपनों की शाख पर अंखुआता वो नन्हा सा हरा जैसे मुस्कुरा कर कह रहा हो, उम्मीद हमेशा बची रहती है.
हाँ, उम्मीद हमेशा बची रहती है. फूटती कोंपलों के मौसम के आगे दुनिया के तमाम दुःख, तमाम नाउम्मीदी सजदे में है.
कोई ख़्वाब है जो बरस रहा है...
जब भी कोई प्यार में डूबा जोड़ा देखती लड़की की आँखें सुख से बह निकलतीं. बच्चों के सर पर हाथ फिराते हुए उसे मिलता सुकून. अजनबी चेहरों को मुस्कुराहटों में मुब्तिला देख उसकी सांसें खिल उठतीं. व्यक्ति से समष्टि तक का सफर ऐसे ही शुरू होता हो शायद कि लड़की ने अपने तमाम सपनो को पूरी दुनिया के लिए आज़ाद कर दिया था.
हर बरस की तरह इस बरस भी पूरा शहर मंजरियों की मादक खुशबू में डूबा हुआ था. हर बरस की तरह इस बरस भी बच्चे अपने बस्तों में कॉमिक्स छुपा के स्कूल जा रहे थे और नई किताबों और नई ड्रेस का उत्सव मना रहे थे. हर बरस की तरह इस बरस भी मेहँदी हसन साहब फरहत शहज़ाद के लिखे को आवाज़ दे रहे थे कि कोंपले फिर फूट आयीं...नयी कोंपलों का मौसम खिलखिला रहा था.
लेकिन वो ज़िन्दगी ही क्या जो एक सम पर चले. बरसों पहले मुरझा चुकी सपनों की शाख हरियाने लगी. नयकीनी गज़ब की शै है. अपने तमाम डर हम इस नायकीनी के हवाले करके खुद को बचा लेना चाहते हैं. लेकिन सपनों की शाख पर अंखुआता वो नन्हा सा हरा जैसे मुस्कुरा कर कह रहा हो, उम्मीद हमेशा बची रहती है.
हाँ, उम्मीद हमेशा बची रहती है. फूटती कोंपलों के मौसम के आगे दुनिया के तमाम दुःख, तमाम नाउम्मीदी सजदे में है.
कोई ख़्वाब है जो बरस रहा है...
उम्दा !
ReplyDeleteगहन आल लिए सुंदर सृजन।
ReplyDeleteअप्रतिम।
सुंदर अभिव्यक्ति।
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