Saturday, March 5, 2022
कहानी- सात बजकर दस मिनट
-ज्योति नंदा
घड़ी में सात बजकर दस मिनट हुए थे जब माँ अपने मायके जाने के लिए घर से निकली थी। जब सूचना मिली ‘नानाजी की तबियत ठीक नहीं है आकर मिल लो’ तब भी घड़ी में सात बजकर दस मिनट हो रहे थे। माँ के कमरे में रखी उस टेबल क्लॉक में तब भी सात बजकर दस मिनट और तेरह सेकंड बजते थे जब वह स्कूल से घर लौटने की प्रतीक्षा करते हुए मेरे लिए पसंदीदा पकवान बना रही होती थी। पूजा करते, सफाई करते, गमलों की देखभाल करते, बाजार से सामान खरीदते वक्त, हर काम सात बजकर दस मिनट पर। उसके हल्के रंग की साड़ियों से मैच करते आसमान में तपता सूरज हो या मेरी ड्रॉइंग कॉपी में सावन और बसंत के गाढ़े रंगों वाली सीनरी जैसी चमक का मौसम, उसने कभी किसी से नहीं पूछा कि समय क्या हो रहा है।
समय को बीतने के लिए घड़ी की जरूरत नहीं होती।
कक्षा दस तक मेरे पास घड़ी नहीं थी, जरूरत ही नहीं महसूस हुई। कलाई घड़ी मिली मगर जरूरत की वजह से नहीं बल्कि मेरे जन्मदिन पर उपहार स्वरूप मामाजी ने दी थी। उस घड़ी माँ की आवाज में जो औपचारिकता और दयनीयता थी वो मुझे नहीं भूलती, ‘इसकी क्या जरूरत थी भाईसाब, आपका आशीर्वाद ही काफी है।’ मामा ने बहुत लाड़ से कहा था ‘मेरा भांजा है उसे गिफ्ट नहीं दे सकता क्या,
सात बजकर दस मिनट बताने वाली घड़ी के अलावा अब मेरी दराज में रखी रिस्ट वॉच भी थी जो सिर्फ दोस्तों में रौब जमाने काम आती थी।
स्कूल जाने के लिए माँ मुझे सुबह उठा देती थी। और शाम को खेलने कब जाना है, ये खुद समझ आ जाता था जब वो हर दिन घर के सारे काम निपटाकर, थकान उतारने के लिए अपने कमरे में जाती और दोपहर की एक तय झपकी के बाद उठती थी और बाजार जाने के लिए निश्चित समय पर तैयार होती। मैं समझ जाता था कि मेरे खेलने का समय हो गया।
स्कूल की पढ़ाई पूरी होने तक हम दोनों एक-दूसरे का समय थे।
इंजीनियरिंग कॉलेज में आने तक मेरा और घड़ी का नाता दूर का ही रहा। माँ के सात बज कर दस मिनट पर जीवन सुरक्षित था।
एक दिन वो भी आ गया जो हर एक मध्यवर्गीय नौजवान के जीवन मे कभी न कभी आता ही है। वास्तव में बेटों को पाला ही जाता है इसी दिन के लिए।
मैं भी पहली नौकरी के लिए दूसरे शहर जाने को तैयार था। घड़ी में सात बजकर दस मिनट हो रहे थे मैंने माँ से कहा ‘ये टेबिल क्लॉक बनवा दूँ।‘
अपनी अनुपस्थिती को टिक-टिक से भरने की कोशिश थी शायद। माँ ने मुझे यूँ देखा जैसे मैंने ऐसी इच्छा जाहिर कर दी जिसे वो चाहकर भी पूरा नहीं कर सकती। जान से ज्यादा प्यारी इकलौती संतान की छोटी सी इच्छा चाहकर भी पूरी न कर पाने का दर्द उसकी आँखों में मुझसे देखा न गया और मैंने मुँह फेर लिया। उसने मेरा मन रखने के लिए कह दिया ‘बैठक में एक घड़ी टाँग दे’ मैंने वैसा ही किया और चला गया।
दूसरे शहर आकर मैं चकित सा होने लगा हूँ। मेरी घड़ी में अब रोज सुबह के नौ बजते हैं। कभी कभी शाम के छः बजते हैं। जब ऑफिस का काम जल्दी निपट जाता है। ऐसे ही एक रोज नये शहर का आसमान ताकते झील किनारे टहलते हुए अचानक घड़ी पर नजर गई ठीक सात बजकर दस मिनट हो रहे थे । मुझे लगा मेरी घड़ी बंद पड़ गयी है। फिर टिक टिक सुनी पर घबराहट और बढ़ गई। दिमाग खुद को समझाने मे उलझता जाता कि क्यों परेशान हो, ये वक्त घड़ी में पहली बार तो नहीं बजा है, लेकिन ये इस घड़ी में क्यों बजा ये तो माँ का समय है। जाने कैसी बेचैनी, कितने सवाल, ढेरों जवाब सीने में उफनती धड़कन और टिक-टिक सब गड्मड्...। लगा अब एक कदम भी आगे नही बढ़ा पाऊँगा, सब ठहर जायेगा मेज घड़ी की तरह । घबराहट में कलीग को बुला लिया। बहुत मुश्किल से खुद को संयत कर झील किनारे बेंच पर बैठे हुए उसके कदमों को अपनी ओर बढ़ते हुए देख रहा हूँ ऐसा लग रहा है घड़ी की सुइयाँ चल रही हैं। सुचित्रा के आते ही कब साढ़े नौ बज गये पता नहीं चला।
उस दिन के बाद से समय दौड़ने लगा। हर काम जल्दी-जल्दी निपटा कर शाम का इंतज़ार करने लगा। एक बार फिर साबित हुआ कि समय को बीतने और ठहरने के लिए घड़ी की जरूरत नहीं होती। सात बजकर दस मिनट कब बजे ध्यान नहीं जाता। माँ की चिन्ता होती तो फुर्र से उड़कर उनके पास पहुँच जाता। ये सुनिश्चित कर वापस लैाट आता था कि दीवार घड़ी की टिक टिक ने माँ से सात बजकर दस मिनट को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया है।
मेरी दुनिया में कुछ नयी घड़ियाँ शामिल हो गई हैं। उनमें से सुचित्रा की घडियाँ दिल के करीब आ गईं हैं। अक्सर इतवार का दिन उसके घर ही बीतने लगा। उस घर में ढेर सारी घड़ियाँ हैं। दीवार पर, मेज पर, कोने में सजी संवरी, आधुनिक ऐंटीक हर तरह की समय के साथ चलती हुई घड़ियाँ। एक दीवार पर वो पेंटिग भी है जिसमें पेंटर ने घड़ी को पिघलते हुए चित्रित किया है। उसकी माँ से मिलकर बहुत अलग अनुभव होता है, माँ ऐसी भी होती है। दोस्त जैसी। सुचित्रा से बातों के दौरान पहली बार सुना ‘सिंगल पैरेंट’। ये दो शब्द अपने जीवन से जुड़े भी लगे और नहीं भी। सुचित्रा की माँ ने उसे अकेले पाला था, जैसे ‘तुम्हारी माँ ने तुम्हें’ वो अक्सर कहती थी। पर मैं यह बात अपने बारे में निश्चित तौर पर नहीं कह सकता था। हमारे साथ सात बजकर दस मिनट भी था हर समय प्रॉक्सी पैरेंट की तरह।
सुचित्रा बताती है माँ को घड़ियों का बहुत शौक है। ये जो क्लासिक घड़ी मेरी कलाई पर देख रहे हो ये उन्हीं के कलेक्शन से है। उसने अपनी सुडौल कलाई दिखाते हुए कहा। ‘ये भी अजीब शौक है फिजूलखर्ची वाला। सारी घड़ियाँ एक वक्त पर एक समय बताती हैं’ मैंने ईर्ष्या से कहा। उसने समझाया ‘हाँ! पर ये उन्हें पसंद है। जैसे अधिकतर औरतों को गहनों का शौक होता है उसी तरह उन्हें घड़ियाँ पहनना और घर में सजाना अच्छा लगता है। माँ अपने शौक को लेकर बहुत पर्टिकुलर है। किसी से नहीं पूछती, किसी पर निर्भर नहीं हैं. वो बोलती जा रही थी....’ममा ने मुझे बचपन में भी कभी ये कह कर नहीं डराया ‘कर लो शैतानी जितनी करनी है नौ बजने दो आने दो पापा को फिर पता चलेगा...’
मैं अपनी माँ के बारे में सोचने लगा। माँ के शौक भी होते हैं ‘मेरी माँ को क्या पसंद था’.
‘पता नही।’
बहुत जोर डालने पर भी नहीं याद आया ऐसा कुछ भी जिसे शौक कहा जा सके। एक बार उन्हें शहर घुमाने ले गया था, मुझे लगा उन्हें अच्छा लगेगा। पर मैंने महसूस किया उनका मन तो वहीं अटका था। देाबारा मैंने भी जानने की कोशिश नहीं की कि उन्हें क्या पसंद है क्या नहीं हर हफ्ते मिलने चला जाता और फिर चुपचाप अपने काम पर लौट आता। धीरे- धीरे समय की कमी होने लगी है मुझे। अब केवल छुट्टियों में ही माँ के पास आना होता है। कभी-कभी माँ पर गुस्सा भी आने लगा है। झगड़ा करने को मन करता। क्या है ये ‘बस हर समय सात बजकर दस मिनट, लेकिन माँ से झगड़ा करना तो क्या, किसी तरह की असहमति की संभावना भी नहीं थी क्योंकि वो मेरी हर बात से सहमत थी। मैं अपने अंदर पनपते गुस्से और उठते सवालों पर अपराधबोध से भर जाता हूँ। क्यों माँ से नाराज होने लगा हूँ, वो माँ जिसने कभी किसी गलत आदत या झूठ बोलने पर भी पीटना तो दूर की बात डाँटा तक नहीं। यहाँ तक कि एक बार चोरी की लत लग गई और माँ को पता तब चला जब टीचर ने उन्हें बुलाकर शिकायत की। तब भी उसने ऐसे दिखाया जैसे कुछ पता ही न हो। ऐसी सीधी-सादी बेचारी माँ पर गुस्सा कैसे किया जाय।
जबकि सभी लोग उनसे बहुत हमदर्दी रखते थे। और अब सोचता हूँ कि माँ को इस दया से कभी कोई दिक्कत क्यों नही थी।
माँ ने कभी नहीं कहा कि मेरे जाने से घर सूना लगता है। नौकरी के साल भर होते-होते मैंने देखा उनकी सेहत गिर रही है। दुबला पतला शरीर और ज्यादा मुरझाया, बेजान सा दिखने लगा। मामा ने डाँटते हुए समझाया ‘वो तो ऐसी ही है कुछ कहती नहीं तो क्या तुम्हें दिखता नहीं तुम्हें पालपोस कर बड़ा करने में कितनी तपस्या की है उसने अब जवान बेटे के कंधों का सहारा उसका हक़ है।’ एक बार फिर ग्लानि से भर गया। अधिकारियों से माँ की बीमारी और अकेलेपन की दुहाई दे किसी तरह तबादला वापिस अपने शहर में करा लिया। और साथ ही सुचित्रा के साथ शादी का फैसला भी। माँ आज मुस्कुराई शायद पहली बार उसकी आँखो में पनीली सी चमक दिखी।
बारात चढ़ने का समय हो रहा था माँ अपने कमरे में सात बजकर दस मिनट के सामने खड़ी बुदबुदा रही थी ‘ऐसी भीड़भाड़ और शोर इक्कीस बरस पहले हुई थी।’ मामी उन्हें ढूढँते हुए ठीक समय कमरे में पहुँची और सुन लिया। नाराज भी हुईं कि उन्होने शुभ मौके की बराबरी अनहोनी से क्योंकि, बात कमरे से बाहर भी कुछ लोगों तक पहुँच गई सभी के मन में माँ के लिए आश्चर्य मिश्रित दया भर गई। वे सब नहीं जानते कि जब पूरी ज़िन्दगी सात बजकर दस मिनट तेरह सेकंड पर बीत रही है तो ये अवसर कैसे साझा नहीं होगा। इ..ई ’माँ ने बेहोश होने से पहले कहा कुछ देर में डॉक्टर माँ को होश में ले आये। उनकी बहू ने घबराकर बताया ‘आज शाम ही घड़ी रिपेयर करने को देकर आई हूँ, बंद घड़ी का घर में होना अशुभ होता है।’ उस रात मैं माँ के पास ही रहा। बार-बार उनकी धड़कनें सुनता और टबल क्लॉक की खाली जगह देखकर खो जाता जैसे किसी ने समय मे सेंध लगा दी हो। मैं तो नई घड़ियों का अभ्यस्त हो गया हूँ पर माँ सोचते- सोचते आँख लग गई।
अगली सुबह मैं और सुचित्रा जगे पर माँ नहीं। जैसे इक्कीस बरस पहले पिताजी की सांसें टूट गईं थी और उनकी र्निजीव देह भहराकर गिरते हुए मेज की उस खाली जगह पर रखी घड़ी से टकराई थी सात बजकर दस मिनट तेरह सेकंड पर।
(लेखिका ने कई वर्षों तक विभिन्न हिन्दी अखबारों हिन्दुस्तान, स्वतंत्र भारत, जनसत्ता, नई दुनिया आदि में स्वतंत्र लेखन किया। थोड़े समय र॔गमंच से जुड़ाव। 2017 से फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कथा पटकथा लेखन जारी। "रंगम फिल्मस" से जुड़कर ‘कॉटन कैंडी’ ‘वाशरूम’ ‘दोहरी सोच’ तथा एक निर्माणाधीन शॉर्ट फिल्म की पटकथा भी लिखी। 2020 मे उपन्यास A son never forgets का हिन्दी अनुवाद ("पदचिह्न") प्रकाशित। लेखन के साथ वर्तमान में आकाशवाणी लखनऊ में समनुदेशी उद्घोषिका के रूप में कार्यरत।)
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार (06 मार्च 2022 ) को 'ये दरिया-ए गंग-औ-जमुन बेच देंगे' (चर्चा अंक 4361) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बेहद हृदयस्पर्शी कहानी।
ReplyDeleteआदरणीया, आपने मार्मिक कहांनी लिखी है। घड़ी के माध्यम से संदेश देने का भी प्रयत्न किया है। साधुवाद!--ब्रजेंद्रनाथ
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