पाठकीय प्रतिक्रियाओं को मैं सार्वजनिक नहीं करती, उनके नेह में भीग लेती हूँ, दिल में सहेज लेती हूँ. लेकिन कहानी 'बकरियां जात नहीं पूछतीं' कहानी पर मिली यह प्रतिक्रिया चूंकि सार्वजनिक मंच पर मिली तो इसे यहाँ सहेज रही हूँ. दिल प्रेम से भरा है. पाठक ही बताते हैं कि हम लिखने के तौर पर सही रास्ते पर जा भी रहे हैं या नहीं. सुंदर चूंकि शिक्षक भी हैं इसलिए उनकी प्रतिक्रिया और भी महत्वपूर्ण हो जाती है इसलिए कि वो इस कहानी के मर्म के ज्यादा करीब पहुँच पाए. शुक्रिया सुंदर भाई!
प्यारी प्रतिभा दी, प्रणाम !
आज सुबह चाय के साथ आपकी कहानी पढ़ी तो आपकी खुद लग आई | शैक्षिक दखल के नए अंक में छपी है न आपकी कहानी ‘बकरियां जात नहीं पूछती’, वही | पढ़ते-पढ़ते आपकी सौम्य, सरल, शालीन शक्ल उभर आई जेहन में | वही सौम्यता, वही सरलता, वही शालीनता थी आपके शब्दों में | आपको जब भी देखा-सुना है लगा सब और स्नेह बरस रहा हो, आज सुबह आपकी इस कहानी को पढ़ते हुए भी वही स्नेह महसूस कर रहा था |
मोहन और शशांक के बहाने आपने इस तथाकथित सभ्य समाज का एक स्याह पक्ष उधेड़कर रख दिया है | हम कहने को कितने ही सभ्य हो जाएँ, आधुनिकता के लिहाफ ओढ़ लें, लेकिन ये जात है कि छूटती ही नहीं | शिक्षा के वाहक हम शिक्षक भी इस चक्कर से कहाँ निकल पाते हैं ! कितना भी नकारें पर कहानी की बड़ी मैडम के प्रतिरुप लगभग हर विद्यालय में देखने को मिल जाते हैं | इस जाति के नाम पर आज भी हम शिक्षण चाहे-अनचाहे अपने छात्रों ये अहसास करा ही देते हैं कि ये जाति की अदृश्य स्याही उन पर भी चिपकी हुयी है और हम पर भी | बहुत खिन्नता होती है !
इस पूरी कहानी में पढ़ने का प्रवाह एक बार के लिए भी नहीं टूटा, शशांक कि हुर्र-हुर्र, हट-हट, हिटो रे हिटो के गीत से कहानी शुरू क्या हुयी कि शशांक के बालों पर नयी मैडम के स्नेहिल हाथों तक पहुंचकर ही रुकी | एक-एक दिन की बारी से मोहन व शंशांक का स्कूल जाने का प्रस्ताव कितना मासूम है ना ! हालाँकि कहानी में आपने संवादों का उद्वेलन नहीं रखा किन्तु फिर भी मन में अपने आप संवाद बन रहे थे | लग रहा था जैसे मैं खुद शशांक बन गया हूँ, जैसे –“वैसे भी इस्कूल-इस्कूल बहुत हो रा आजकल जिसको देखो पढ़ो-पढ़ो करते रहते हैं | जाने पढ़े-लिखे लोगों ने क्या ही कर लिया अब तक |”
“इस्कूल में टीचर पिटाई करे और ज्यादा पढ़ के कॉलेज चले जाओ तो टीचर जी पुलिस को बुला लें पिटाई करने को | बड़ा बुरा हो रा ये तो | कमबख्त पढाई न ही करो तो ठीक या फिर पुलिस बन जाओ बड़े होकर और दे दनादन, दे दनादन... सोचकर ही शशांक को बड़ा मज़ा आता |”
शशांक व मोहन की जात पूरी कहानी में उनसे चिपकी रही, और साथ ही चिपकी रही उनकी प्रेम व स्नेह पाने की मानवीय लालसा | किन्तु जाति-पाति का ये विष-वृक्ष वयस्क अध्यापिका में ही नहीं बल्कि नन्हे-मुन्ने बच्चों में भी पल-बढ़ रहा है, भला वे शशांक और मोहन को उनके हिस्से का सम्मान क्योंकर देने लगे ? जब हम बड़े अपने बच्चों को खुद ही इन जड़ताओं से मुक्त नहीं होने देना चाहते | पता है दीदी ! इस संदर्भ में मैंने भी एक गढ़वाली कविता लिखी है – ‘औजी’ | इस व्यंग्य का ट्रायल मैंने जब अपनी कक्षा 10 के छात्र-छात्राओं के साथ किया तो अगले दिन एक लड़की ने मुझे लिखकर एक नोट दिया जिसमें उसने अपने छुटपन का एक किस्सा भी साझा किया था – एक दिन मैं अपनी सहेली को लेकर अपनी रसोई में चली गई तो बाद में दादी ने मुझे डांट लगाते हुए पूरी रसोई को जल छिड़ककर पवित्र भी किया | भला उस लड़की में ऐसा क्या था ? वो भी तो मेरे जैसी ही थी ?”
शशांक और मोहन की तरह का एक असल पात्र मुझे एक शादी में मिला उससे बात करने पर पता चला कि उसके विद्यालय के अध्यापक भी उसको (एक ब्राह्मण बच्चे को) अन्य राजपूत और अनुसूचित जाति के बच्चों से अलग भोजन करने को कहते हैं, और उसे समझ नहीं आता कि आखिर उन बच्चों में उससे अलग क्या है ?
शायद इसीलिए शशांक को उसकी बकरियां और लड़कियां औरों से अच्छी लगती थीं क्योंकि वे उससे उसकी जाति नहीं पूछती |
बड़ी मैडम के ताने पढ़ते हुए जो शर्मिंदगी मन में उठती है वो अपने व्यवहार में परिवर्तन के लिए उकसाती है, गाहे-बगाहे हम खुद भी कई बार अपने बच्चों को ये अहसास करवा ही देते हैं, इस आदत को उखाड़ फेंकना हम शिक्षकों के लिए चुनौती ही है |
उसे स्कूल में आया देखकर ही बड़ी मैडम ने ताना मारा, “आ गये लाट साहब ? एक दिन स्कूल आकर रजिस्टर में नाम लिखाकर गायब हो जाते हैं ये लोग | इनका पढ़ने-लिखने से कोई मतलब नहीं | पता है मुझे | सरकार को जाने क्यों लगता है कि सब पढ़कर कलक्टर बन जायेंगे, हुंह .. |”
कहानी के आखिरी हिस्से में जब नई मैडम कक्षा में आई और उसने शशांक के सर पर अपना स्नेहिल हाथ रखा तो लगा जैसे आप खुद उस बच्चे पर अपने प्रेम बरसाने लगी हैं |
“नयी मैडम ने जाने कौन सी नस छू ली शशांक की सर पर हाथ फेरकर कि उसकी आँख भर आई | उसे लगा ये तो गरिमा दीदे से भी ज्यादा प्यार करना जानती हैं |”
वाकई शिक्षक के दो स्नेहिल बोल किसी छात्र को अंतस तक झकझोर देते हैं | बच्चे तो प्रेम के भूखे होते हैं, किन्तु हम शिक्षकों को एक अभिभावक के भाँति अपने स्कूली बच्चों को प्रेम बांटना जाने कब आएगा ? परन्तु आपकी कहानियाँ, लेख, कवितायेँ पढ़ने को मिल जाएँ तो शायद कुछ प्रेम अंश उनमें भी पनपने लगे |
आप यूँ ही स्नेह से लबरेज साहित्य रचती रहें, और हम इस प्रेम बरखा में तर-बतर भीगते रहें | बहुत-बहुत शुभकामनाएं दी |
आपका अनुज –
मोहन और शशांक के बहाने आपने इस तथाकथित सभ्य समाज का एक स्याह पक्ष उधेड़कर रख दिया है | हम कहने को कितने ही सभ्य हो जाएँ, आधुनिकता के लिहाफ ओढ़ लें, लेकिन ये जात है कि छूटती ही नहीं | शिक्षा के वाहक हम शिक्षक भी इस चक्कर से कहाँ निकल पाते हैं ! कितना भी नकारें पर कहानी की बड़ी मैडम के प्रतिरुप लगभग हर विद्यालय में देखने को मिल जाते हैं | इस जाति के नाम पर आज भी हम शिक्षण चाहे-अनचाहे अपने छात्रों ये अहसास करा ही देते हैं कि ये जाति की अदृश्य स्याही उन पर भी चिपकी हुयी है और हम पर भी | बहुत खिन्नता होती है !
इस पूरी कहानी में पढ़ने का प्रवाह एक बार के लिए भी नहीं टूटा, शशांक कि हुर्र-हुर्र, हट-हट, हिटो रे हिटो के गीत से कहानी शुरू क्या हुयी कि शशांक के बालों पर नयी मैडम के स्नेहिल हाथों तक पहुंचकर ही रुकी | एक-एक दिन की बारी से मोहन व शंशांक का स्कूल जाने का प्रस्ताव कितना मासूम है ना ! हालाँकि कहानी में आपने संवादों का उद्वेलन नहीं रखा किन्तु फिर भी मन में अपने आप संवाद बन रहे थे | लग रहा था जैसे मैं खुद शशांक बन गया हूँ, जैसे –“वैसे भी इस्कूल-इस्कूल बहुत हो रा आजकल जिसको देखो पढ़ो-पढ़ो करते रहते हैं | जाने पढ़े-लिखे लोगों ने क्या ही कर लिया अब तक |”
“इस्कूल में टीचर पिटाई करे और ज्यादा पढ़ के कॉलेज चले जाओ तो टीचर जी पुलिस को बुला लें पिटाई करने को | बड़ा बुरा हो रा ये तो | कमबख्त पढाई न ही करो तो ठीक या फिर पुलिस बन जाओ बड़े होकर और दे दनादन, दे दनादन... सोचकर ही शशांक को बड़ा मज़ा आता |”
शशांक व मोहन की जात पूरी कहानी में उनसे चिपकी रही, और साथ ही चिपकी रही उनकी प्रेम व स्नेह पाने की मानवीय लालसा | किन्तु जाति-पाति का ये विष-वृक्ष वयस्क अध्यापिका में ही नहीं बल्कि नन्हे-मुन्ने बच्चों में भी पल-बढ़ रहा है, भला वे शशांक और मोहन को उनके हिस्से का सम्मान क्योंकर देने लगे ? जब हम बड़े अपने बच्चों को खुद ही इन जड़ताओं से मुक्त नहीं होने देना चाहते | पता है दीदी ! इस संदर्भ में मैंने भी एक गढ़वाली कविता लिखी है – ‘औजी’ | इस व्यंग्य का ट्रायल मैंने जब अपनी कक्षा 10 के छात्र-छात्राओं के साथ किया तो अगले दिन एक लड़की ने मुझे लिखकर एक नोट दिया जिसमें उसने अपने छुटपन का एक किस्सा भी साझा किया था – एक दिन मैं अपनी सहेली को लेकर अपनी रसोई में चली गई तो बाद में दादी ने मुझे डांट लगाते हुए पूरी रसोई को जल छिड़ककर पवित्र भी किया | भला उस लड़की में ऐसा क्या था ? वो भी तो मेरे जैसी ही थी ?”
शशांक और मोहन की तरह का एक असल पात्र मुझे एक शादी में मिला उससे बात करने पर पता चला कि उसके विद्यालय के अध्यापक भी उसको (एक ब्राह्मण बच्चे को) अन्य राजपूत और अनुसूचित जाति के बच्चों से अलग भोजन करने को कहते हैं, और उसे समझ नहीं आता कि आखिर उन बच्चों में उससे अलग क्या है ?
शायद इसीलिए शशांक को उसकी बकरियां और लड़कियां औरों से अच्छी लगती थीं क्योंकि वे उससे उसकी जाति नहीं पूछती |
बड़ी मैडम के ताने पढ़ते हुए जो शर्मिंदगी मन में उठती है वो अपने व्यवहार में परिवर्तन के लिए उकसाती है, गाहे-बगाहे हम खुद भी कई बार अपने बच्चों को ये अहसास करवा ही देते हैं, इस आदत को उखाड़ फेंकना हम शिक्षकों के लिए चुनौती ही है |
उसे स्कूल में आया देखकर ही बड़ी मैडम ने ताना मारा, “आ गये लाट साहब ? एक दिन स्कूल आकर रजिस्टर में नाम लिखाकर गायब हो जाते हैं ये लोग | इनका पढ़ने-लिखने से कोई मतलब नहीं | पता है मुझे | सरकार को जाने क्यों लगता है कि सब पढ़कर कलक्टर बन जायेंगे, हुंह .. |”
कहानी के आखिरी हिस्से में जब नई मैडम कक्षा में आई और उसने शशांक के सर पर अपना स्नेहिल हाथ रखा तो लगा जैसे आप खुद उस बच्चे पर अपने प्रेम बरसाने लगी हैं |
“नयी मैडम ने जाने कौन सी नस छू ली शशांक की सर पर हाथ फेरकर कि उसकी आँख भर आई | उसे लगा ये तो गरिमा दीदे से भी ज्यादा प्यार करना जानती हैं |”
वाकई शिक्षक के दो स्नेहिल बोल किसी छात्र को अंतस तक झकझोर देते हैं | बच्चे तो प्रेम के भूखे होते हैं, किन्तु हम शिक्षकों को एक अभिभावक के भाँति अपने स्कूली बच्चों को प्रेम बांटना जाने कब आएगा ? परन्तु आपकी कहानियाँ, लेख, कवितायेँ पढ़ने को मिल जाएँ तो शायद कुछ प्रेम अंश उनमें भी पनपने लगे |
आप यूँ ही स्नेह से लबरेज साहित्य रचती रहें, और हम इस प्रेम बरखा में तर-बतर भीगते रहें | बहुत-बहुत शुभकामनाएं दी |
आपका अनुज –
सुंदर ‘शिक्षार्थी’
03-02-22
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (07-02-2022 ) को 'मेरी आवाज़ ही पहचान है गर याद रहे' (चर्चा अंक 4334) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
आदरणीया प्रतिभा जी, आप की लिखी कहानी तो नहीं पढ़ी हूं, मगर सुन्दर जी की इस पाती ने कहानी के मर्म को स्पष्ट कर दिया है। वाकई अपने समाज में घुला ये जात पात का बिष कब समाप्त होगा। आप ने ये भी सही कहा कि प्रशंसकों की ऐसी प्रतिक्रिया ही हमें ये एहसास कराती है कि-हमारी लेखन की दिशा सही है या नहीं,सादर नमन आपको
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय
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