Monday, January 10, 2022
कहानी- बकरियां जात नहीं पूछतीं
-प्रतिभा कटियार
‘हुर्र...हुर्र....हट हट...हिटो रे हिटो....गुडबुड गुडबुड गुडबुड गुडबुड गप्प...आरे..आरे...’ शशांक ने अपनी लिरिक्स बनाई थीं जिन्हें वो अपनी ही बनाई धुन पर दिन भर गाता था. न उसने रैप सीखा न कोई और संगीत लेकिन उसकी इस ‘गुडबुड गुडबुड गप्प....हिटो रे हिटो’ को कोई सुन ले तो थिरकने जरूर लगे. शशांक भी दिन भर अपनी इस धुन के संग थिरकता फिरता था. और उसके संग थिरकती थीं उसकी बकरियां. खूब धमाल मचाते जंगलों में शशांक और उसकी बकरियां. आजकल उसकी बकरियों के रेवड़ में नयी बकरियां भी आ गयी हैं. मोहन की बकरियां.
मोहन जबसे स्कूल जाने लगा है उसकी बकरियां शशांक चराने ले जाने लगा है. मोहन ने उसके सामने प्रस्ताव रखा कि एक दिन वो स्कूल जाए और एक दिन मोहन. और जिस दिन जो स्कूल न जाए उस दिन वो दोनों की बकरियां चराए. प्रस्ताव अच्छा था. वैसे भी इस्कूल इस्कूल बहुत हो रा आजकल जिसको देखो पढो-पढो करते रहते हैं. जाने पढ़े-लिखे लोगों ने क्या ही कर लिया अब तक. शशांक के छोटे से मन में यह बात आई. उसने इतना सोचा कि चलो इस्कूल चलकर देख लिया जाय.
टीवी पर जबसे उसने छात्रों को पुलिस से पिटने वाली तस्वीरों को देखा है, तबसे उसे कुछ समझ नहीं आता. पढ़ने की वजह से पिटाई हो रही या इनके नम्बर कम आये इसलिए पिटाई हो रही. इस्कूल में टीचर पिटाई करे और ज्यादा पढ़ के कॉलेज चले जाओ तो टीचर जी पुलिस को बुला लें पिटाई करने को. बड़ा बुरा हो रा ये सब तो. कमबख्त पढाई न ही करो तो ठीक या फिर पुलिस बन जाओ बड़े होकर और दे दनादन दे दनादन...सोचकर ही शशांक को बड़ा मजा आता. वो सोचता अगर कहीं वो पुलिस बन गया तो सबसे पहले उस ठेकेदार को दे दनादन दे दनादन करेगा जो पापा को परेशान करता है.
उस दारू बेचने वाले की दुकान तोड़ेगा दे लाठी दे लाठी...जहाँ से दारू लाकर पापा रोज रात टुन्न होकर गाली बकते हैं, माँ को पीटते हैं. उन लड़कों को तो बहुत ही दे दनादन लाठी भंजेगा जो हमेशा उसे ‘भंगी भंगी’ या फिर ‘तेरी जात क्या है बे...’ कहकर चिढ़ाते हैं. उसका मन करता है मुंह नोच ले उन लड़कों का. क्या ऊँचे जात वाली लड़कियां भी ऐसा करती होंगी? उसे पता नहीं क्योंकि अभी तक किसी लड़की ने तो उससे पूछा नहीं कि ‘तेरी जात क्या है बे....’. उलटे बड़ी कोठी वाली सुमन को जब वो देखता है तो वो मुस्कुराती भी है. उसकी मुस्कान के बारे में सोचते ही शशांक के चेहरे पर भी मुस्कान खिल गयी. उसे लगा लड़कियां और बकरियां एक जैसी होती हैं. वो जात नहीं पूछतीं.
मोहन ने जब एक दिन छोडकर स्कूल जाने का प्रस्ताव रखा तो उसने सुमन के बारे में सोचकर प्रस्ताव उसे स्वीकार कर लिया कि वो भी इस्कूल जाती थी. इस तरह शशांक अपने कुल खानदान का पहला चिराग बना जिसने स्कूल का मुंह देखा. सरकार बोले है जिसे फर्स्ट जनरेशन लर्नर. शशांक को सरकार क्या बोले है इससे कोई लेना-देना न है.
उसने मोहन के हवाले बकरियां करते हुए कहा, ‘सुन ख्याल रखना. किसी को कुछ होना नहीं चाइये.’ मोहन ने उसे आश्वस्त किया.
मोहन असल में पढ़ना चाहता था और चूंकि उसके माँ-बाप दोनों मजदूरी करने जाते थे तो बकरियां उसके हवाले थीं और और छोटा भाई उसकी बहन कविता के हवाले. कविता जो मोहन से बस एक साल छोटी थी घर पर रहकर घर के काम संभालती और छोटे भाई गुल्लक को भी संभालती. गुल्लक नाम मोहन ने ही रखा था उसका. इसके पास बहुत पैसे आयेंगे...फिर हम जब चाहे निकाल लेंगे कहते हुए मोहन ने ठठाकर हंसते हुए कहा ‘मैं तो इसे गुल्लक ही बुलाऊंगा.’ ‘लेकिन तू इसे तोड़ेगा तो नहीं न? कविता ने उसे छेड़ा.’ ‘अरे ये टीन वाली गुल्ल्ल्क है, इसे तोड़ना नहीं खोलना पडेगा बस. उसने मेले में देखी हुई ताले वाली गुल्लक की याद करते हुए कहा. गुल्लक...कहकर मोहन ने गुल्लक को पहली बार गोद में उठाया. किसको कैसा लगा यह नाम पता नहीं लेकिन धीरे-धीरे सबकी जबान पर गुल्लक ही चढ़ गया. कुछ ही दिनों में गुल्ल्ल्क पुकारने पर वह अपनी चिमधी आँखों से पुकारने वाले की तरफ देखने लगता. मोहन को बड़ा मजा आता वो कभी उसे दायीं तरफ जाकर पुकारता गुल्लक...तो गुल्लक दायीं ओर आँखें घुमाता फिर मोहन झट से बायीं तरफ जाकर पुकारता गुल्लक तो वो बायीं ओर टपर-टपर देखने लगता. गुल्लक और मोहन काफी हिलमिल गए थे. हालाँकि कविता को गुल्लक से ख़ास लगाव नहीं था. उसके सर इतना काम बढ़ गया था उसके आने से कि वो गुल्लक से चिढ़ने लगी थी. सारे दिन सू-सू पौटी साफ़ करो, बोतल का दूध बनाओ पिलाओ जब सो जाए तो घर के काम करो.
मोहन को कविता से बहुत प्यार था उसका मन करता था कि बड़ा होकर वो मजदूरी नहीं करेगा पढ़ा-लिखा साहब बनेगा. कविता को खूब आराम देगा. उसकी खूब बड़े साहब जैसे लड़के से शादी करेगा जो उसकी बहन को खूब खुश रखे. मम्मी पापा को भी आराम देगा. गुल्लक भी पैसे कमाएगा. तो दोनों भाई मिलकर सबको खूब खुश रखेंगे.
कुछ दिन पहले जब उसने गाँव की लड़कियों को सुबह-सुबह तैयार होकर लाल रंग का रिबन बालों में लगाकर और स्कूल की ड्रेस पहनकर स्कूल जाते देखा तो उसका मन किया काश कि उसकी बहन कविता को भी स्कूल जाने का मौका मिलता. उसे स्कूल जाने वाले और स्कूल से लौटते बच्चे बहुत अच्छे लगते.
उसने सुना था सारे बच्चों को स्कूल जाने का मौका सरकार देती है. सरकार कैसे देती है यह मौका यह उसे पता नहीं. एक दिन जब स्कूल की मैडम उसके पापा से बात करने आयीं तो पापा तो घर पर थे नहीं तो वो उससे ही कहने लगीं ‘तू स्कूल क्यों नहीं आता?’ मोहन का मन स्कूल आने के नाम पर खिल गया. ‘मैडम जी क्या हम स्कूल आ सके हैं? पैसे न हैं मेरे पापा के पास.’ अरे बुध्धू सरकार ने सब बच्चों की पढाई का इंतजाम किया है. स्कूल में दोपहर का खाना भी मिलता है और स्कूल की ड्रेस भी, किताबें भी. मोहन की आँखें चमक उठीं. मैडम जी तो घर के हालात न जाने थीं ज्ञान देकर चली गयीं लेकिन घर में टेंशन बढ़ गयी उस दिन से.
‘पापा मैं बकरियां चराने न जाऊंगा कल से’ मोहन ने रात को पापा को बोला. पापा दिन भर की थकान और दारू के नशे में थे. बोले, ‘अच्छा? तो कहाँ जाएगा भाई तू?’ ‘पापा मैं कल से स्कूल जाऊँगा. मैडम जी आई थीं आज स्कूल वाली. उन्होंने बताया कि सरकार खाना भी देवे दोपहर का और किताबें भी, ड्रेस भी. पापा मुझे स्कूल जाना है. मुझे पढ़ने का बहुत मन है.’
‘दिमाग ख़राब हो गया क्या तेरा, तू स्कूल जायेगा? तू? हमारी जात के लोग स्कूल न जाते बेटे मजूरी पे जाते हैं. यई क्या कम है कि अब मैला ढोने की बजाय बोझा ढोना पड़ता है.’ जात की बात सुनकर मोहन चुप हो गया. उसे मालूम है स्कूल जाने वाले लड़के लड़कियां उससे ठीक से बात नहीं करते, दूर रहते हैं. उसकी जात का कोई स्कूल नहीं जाता. शशांक भी उनमें से ही है.
मोहन उस दिन तो चुप हो गया लेकिन उसका मन उदास हो गया. गुल्लक मम्मी के सीने से चिपका हुआ पेट भर रहा था, कविता के बर्तन मांजने की आवाज और पापा के खर्राटों की आवाज के बीच उसे किताबें दिखाई दे रही थीं. किताबों और स्कूल के बारे में सोचते-सोचते मोहन सो गया. लेकिन स्कूल जाने की बात उसके मन से निकल न रही थी.
अब मोहन के सामने दो समस्याएं थीं जब वो स्कूल जायेगा तो उसकी बकरियां कौन चरायेगा दूसरी उसकी जात के कारण उसे स्कूल में जाने को मिलेगा या नहीं. उसने मन ही मन यह भी सोच लिया था कि अगर उसे मैडम स्कूल आने देगी तो वो अपना टाट लेकर जाएगा और अलग कोने में चुपचाप बैठा रहेगा. वैसे इसकी तो उसे आदत थी ही. मम्मी पापा को भी उसने बडी कोठी के लोगों के यहाँ कोने में अलग बैठते और अलग बर्तन में खाते देखा ही है. तो यह उसके लिए सामान्य बात थी. मान-अपमान की समझ के बीज अभी उसके जेहन में अंकुरित नहीं हुए थे.
उधर शशांक जो उम्र में तो सिर्फ एक ही साल बड़ा था मोहन से उसके जेहन में मान-अपमान वाले बीज अंकुरित ही नहीं हुए थे बड़े भी होने लगे थे. उसे यह बहुत बुरा लगता जब उसे जात के कारण बच्चे चिढ़ाते या बड़े उसको या उसके परिवार को बेचारा कहकर पुकारते. या त्योहारों पर उतरन के कपडे और बचा हुआ खाना देकर जाते. उसने कभी बड़ी कोठी से आये बचे-खुचे मालपुए नहीं खाए. शशांक के पापा भी मोहन के पापा के साथ ही मजदूरी करते थे हाँ, उसकी माँ मजदूरी पर नहीं जाती थी क्योंकि वो बहुत बीमार रहती थी. पापा हमेशा यही कहते ‘आधी कमाई तो तेरी दवाई में लग जाती है क्या खिलाऊँ बच्चों को और क्या पहनाऊँ.’ मम्मी सिसकते हुए बस इतना कहती ‘मैं क्या जानबूझकर बीमार हुई हूँ...’ और रोते-रोते माँ खांसने लगती. शशांक की बड़ी बहन थी, वही घर संभाले थी. गरिमा दीदी शशांक को सीने से लगा लेती और मम्मी को चुप रहने को कहती. पापा बुरे नहीं थे हालात बुरे थे फिर पापा दारू पी लेते और रोते रहते. नशे में वो अपने बीवी से, बच्चों से माफ़ी मांगते ‘मैं कुछ न कर सका तुम लोगों के लिए मुझे माफ़ कर दो.’ मम्मी के पाँव में लोट जाते वो और मम्मी तब और ज्यादा रोने लगतीं. शशांक देखता कि दीदी भी रो रही है फिर वो भी रोने लगता. और इस तरह अक्सर इस घर में रोते-रोते सब सो जाते और सुबह को लगता कुछ हुआ ही नहीं. रात की रोटी खाकर शशांक बकरियां लेकर जंगल की तरफ गुडबड गुडबड हिटो हिटो का गाना गाते हुए निकल जाता.
शशांक की अपनी बकरियों से अच्छी दोस्ती थी. उसे बकरियां इसलिए भी अच्छी लगती थीं क्योंकि वो उससे उसकी जात नहीं पूछती थीं. वो उसके पास आती थीं, प्यार जताती थीं. उसे गरिमा दीदी की याद आ जाती. जब गरिमा दीदी उसे सीने से लगाकर प्यार करती हैं तो उसे बहुत अच्छा लगता है. लेकिन उसे नहीं पता कि गरिमा दीदी हमेशा उदास क्यों रहती हैं. शायद बीमार माँ की सेवा करते-करते वो थक गयी हैं. कभी-कभी शशांक को लगता अगर माँ मर जाए तो कितना अच्छा हो. सब कुछ ठीक हो जाए तब. गरिमा दीदी भी हँसे तब शायद. मम्मी की दवाईयों का पैसा भी बचेगा तो नए कपड़े और अच्छा खाना भी आने लगेगा. ऐसा सोचते-सोचते शशांक की आँखों में आंसू आ गए. माँ को खोने का दर्द उसकी आँखों में उतर आया. शशांक को खुद पर बहुत गुस्सा आया और उससे ज्यादा रोना आया. मुझे नहीं चाहिए अच्छे कपडे, अच्छा खाना मुझे मम्मी चाहिए. वो रोता हुआ घर की ओर भागा और मम्मी के गले से चिपक गया जाकर. मम्मी ने सर पर हाथ फेरते हुए लाड किया और बोली ‘क्या हुआ मेरे भैया को.’ मम्मी उसको भैया ही बोलती थीं. शशांक ने रोते-रोते कहा, ‘तुम कहीं मत जाना हमें छोडकर कभी मत जाना.’ वो देर तक मम्मी की छाती से चिपका रहा मम्मी लाड से उसकी पीठ पर हाथ फेरती रही.
अगले दिन जब मोहन ने उसे स्कूल जाने वाली बात फिर से कही तो पहली बार उसका मन हुआ कि वो स्कूल जाये, पढ़-लिखकर कुछ बन जाए और मम्मी का इलाज करा सके. नन्ही आखों में खूब बड़े-बड़े से सपने तैरने लगे.
पहले दिन मोहन स्कूल गया और उसकी बकरियां शशांक ने चराई दूसरे दिन शशांक को स्कूल जाना था. थोड़ा उत्साह, थोड़ा संकोच लिए स्कूल गया तो मैडम जी ने नाम तो लिख लिया उसका लेकिन उनके बोलने के ढंग में कड़वाहट महसूस हुई उसे. फिर वो कक्षा 2 में बिठाया गया. जैसे ही वो कक्षा में गया उसने देखा सुमन भी उसी कक्षा में है. वो थोड़ा खुश हो गया. वो जाकर सामने वाली बेंच पर बैठ गया. तो पास में बैठा मोहित मुंह बनाकर उठा और अलग जाकर बैठ गया. रवि ने जाकर मैडम को बताया कि शशांक सबके साथ बैठ रहा है. मैडम कक्षा में आयीं और झूठी मिठास घोलते हुए शशांक से कहा, ‘बेटा आप नए हो न तो उधर बैठो किनारे. वहां’ उन्होंने कोने में लगी एक डेस्क की तरफ इशारा किया. वहीँ पर रजनी भी बैठी थी. शशांक को ज्यादा कुछ समझ तो नहीं आया लेकिन उसे अच्छा नहीं लगा. वो चुपचाप जाकर कोने में बैठ गया. उसके पास न किताबें थीं न ड्रेस. एक झोले में वो सिर्फ थाली लेकर आया था. क्योंकि मोहन ने कहा था कि खाने के लिए अपनी थाली लेकर जाना. किताबें और ड्रेस तो स्कूल से मिलेंगे.
मैडम ने कुछ कवितायेँ करवाई बच्चों से, ‘एक मोटा हाथी झूम के चला, मकड़ी के जाले में जाके फंसा...’ कित्ता बड़ा हाथी....मैडम पूछती और बच्चे दोनों हाथ फैलाकर फिर हाथों से सूंड बनाकर मैडम को बताते खूब बड़ा हाथी...फिर सब खिलखिलाकर हंस देते. यह दुनिया तो बड़ी अच्छी है. शशांक को स्कूल अच्छा लगा. वो भी खूब हंसा ‘इत्ता बड़ा हाथी’ कहते हुए.
इंटरवल में सब बच्चे लाइन से लगकर खाना ले रहे थे तो वो भी अपनी थाली लेकर लाइन में लग गया. बच्चे बिदक गए...’ तू इस लाइन में नहीं लग सकता, दूर जा. हट यहाँ से.’ ‘लेकिन क्यों नहीं लग सकता’ शशांक ने गुस्से और अपमान से भरकर पूछा. ‘क्योंकि तू नीची जात का है, तू भंगी है.’ वैभव ने उसके मुंह पर हँसते हुए कहा. शशांक की आँखों में आंसू आ गए. वो भंगी है इसमें उसकी क्या गलती है सोचते-सोचते शशांक की भूख ही मर गयी. रजनी भी उसी की जात की थी वो कोने में खड़ी थी. भोजन माता ने उसे दूर से खाना दिया. शशांक को भी बुलाया देने को लेकिन शशांक गया नहीं.
उसे अब छुट्टी की घंटी बजने का इंतजार था.
शशांक को स्कूल जाकर अच्छा नहीं लगा. सुमन ने भी बाकियों की तरह उससे दोस्ती नहीं की. लेकिन मोहन को स्कूल जाना अच्छा लग रहा था. वो कोने में बैठकर ही पढ़ाई करने में भी खुश था. शशांक ने मोहन ने कहा, देख तू स्कूल जा मैं तेरी बकरियां चरा लिया करूँगा. फिर जब तू साहब बन जायेगा तो अपनी बकरियां चराने के लिए मुझे ही रख लेना. तब तो तेरे पास बहुत सी बकरियां होंगी. शशांक और मोहन देर तक इस बात पर हँसते रहे. हँसते हुए शशांक का नया-नया निकलता दांत ज्यादा ही चमक उठता. गरिमा दीदी कहती तू खरगोश लगता है एकदम. स्कूल में मिलने वाले खाने और और हाथी वाली कविता की याद में कभी-कभी शशांक का मन होता कि स्कूल जाए लेकिन फिर बच्चों, टीचर जी और भोजन माता सबकी झिड़क याद आ जाती और वो बकरियों के रेवड़ में ही खुश रहना मंजूर करता.
इधर जबसे शशांक मोहन की बकरियां चराने लगा है मोहन शशांक की खूब सेवा करने लगा है. दोनों में पहले से ज्यादा दोस्ती हो गयी है. घर में कुछ अच्छा बनता तो वो शशांक के लिए ले आता. सुबह की रोटी वो शशांक के लिए ले आता यह सोचकर कि उसे तो स्कूल में खाना मिल ही जायेगा. शशांक की अब मोहन की बकरियों से भी दोस्ती होने लगी थी. उसका रेवड़ बड़ा हो गया था. मोहन स्कूल के बाद शशांक की बकरियां भी चरा लेता. कभी-कभी दोनों दोस्त बकरियों के रेवड़ के बीच बैठकर गप्पें लगाते. उनकी बातों में स्कूल ज्यादा होता. स्कूल की बातें सुनते हुए शशांक का मन तो करता स्कूल जाने का लेकिन फिर बुझ भी जाता.
इसी बीच मोहन ने उसे बताया कि स्कूल में नयी टीचर जी आई हैं. वो बहुत अच्छी हैं. उन्होंने उसे आगे वाली डेस्क पर बिठाया है. वो सब बच्चों को मेरे साथ खेलने को भी समझाती हैं. वो बहूऊऊऊऊऊऊत् अच्छी हैं...कहते हुए मोहन की आवाज में ‘बहुत’ ख़ुशी बनकर खिल उठा.
‘अच्छा?’ शशांक खुश हो गया. उसने ऐसी बहुत अच्छी किसी मैडम को देखा नहीं. शायद किसी को भी नहीं. वो अब तक मिले तमाम लोगों के बारे में सोचने लगा लेकिन सबकी आँखों में या उसके लिए हिकारत या बेचारगी ही दिखी थी. तो ये बहुत अच्छी मैडम कैसी होंगी जिनके बारे में मोहन बताता है उसकी जानने की इच्छा हुई. उसने मोहन से कहा ‘एक दिन के लिए स्कूल जाऊं मैं मैडम को देख आऊँगा.’ मोहन खुश हो गया. ‘हाँ हाँ...तू जा न. मैं बकरियाँ चरा लूँगा उस दिन.’
अगले दिन शशांक ने सुबह उठकर नहा लिया और सबसे साफ़ वाली बुशर्ट पहनी. उसके मन में बहुत अच्छी मैडम की तस्वीरें बादल में बनने वाली आकृतियों की तरह बन बिगड़ रही थीं. उसका नाम अब भी स्कूल की रजिस्टर में दर्ज था. उसे स्कूल में आया देखकर ही बड़ी मैडम ने ताना मारा, ‘आ गए लाट साहब? एक दिन स्कूल आकर रजिस्टर में नाम लिखकर गायब हो जाते हैं ये लोग. इनका पढने-लिखने से कोई मतलब नहीं पता है मुझे. सरकार को जाने क्यों लगे है कि सब पढकर कलक्टर बन जायेंगे. हुंह...सब पता है मुझे खाने और कपड़े के चक्कर में स्कूल आ जाते हैं ये लोग. हमारा काम बढ़ जाता है अलग से. अब इनका हिसाब रखो, क्यों नहीं आ रहे, क्यों नहीं पढ़ रहे.’ बड़ी मैडम ने सब भड़ास निकाल ली. शशांक का मन किया कि अभी भाग जाए स्कूल से तभी उसे सामने से नयी मैडम आती दिखीं. अरे ये तो उसकी गरिमा दीदी की तरह लगती हैं. इतनी साधारण लगीं नयी मैडम शशांक को कि उसका दिल ही टूट गया जैसे. ऊपर से बड़ी मैडम के तानों से स्वागत हुआ था वह अपमान भी था ही. पापा ने उसे लाख समझाया कि बेटा मान-सम्मान के रायते बड़े लोगो के होते हैं. हमें तो जो दो बखत की रोटी और तन ढंकने को कपड़े दे दे वही हमारा भगवान है. लेकिन शशांक इस बात को अपना नहीं पाया था इसलिए उसकी सबसे खूब लड़ाई भी होती थी और वो अक्सर नाराज भी रहता था.
नई मैडम ने उसे निराश किया और बड़ी मैडम ने उसे अपमानित. उसने मन ही मन तय कर लिया कि कल से वो और उसकी बकरियां फिर से ऐश करेंगे. भाड़ में जाय तुम लोगों का स्कूल फिस्कूल.
उसने भड़ास निकालने के लिए राहुल की कॉपी फाड़ दी. जिसके बदले में हुई पिटाई का उसे बुरा नहीं लगा. उसने सोचा आज छुट्टी होने तक कुछ बच्चों की कॉपियां और फाड़ दूंगा. कल से मुझे कौन सा आना है स्कूल. कॉपी फाड़ने की सजा में उसे क्लास से बाहर निकाल दिया गया जिससे उसे अच्छा ही लगा. अब वो स्कूल में इधर-उधर घूमने लगा. इंटरवल हुआ उसने खाना नहीं खाया. नयी मैडम ने देखा कि शशांक सुबह से अलग-थलग है, कुछ गुस्सा है और अब खाना भी नहीं खा रहा. वो उसके पास आयीं और उसके सर पर लाड से हाथ फेरते हुए कहा, ‘क्या हाल हैं आपके? अपना नाम नहीं बताएँगे? नई मैडम ने जाने कौन सी नस छू ली शशांक की सर पर हाथ फेरकर कि उसकी आँखें भर आयीं. उसे लगा ये तो गरिमा दीदी से भी ज्यादा प्यार करना जानती हैं. ‘चलो खाना खा लो फिर अगली क्लास में मजे करेंगे.’ कहकर उसके बालों में उँगलियाँ फिरते हुए नई मैडम भोजन माता की तरफ चली गयीं. ‘सबको प्यार से खाना परोसना शांति, और सबका पेट भरे इसका ध्यान रहे. बच्चे भूखे नहीं रहने चाहिए. कहते हुए राजमा परोसने का चमचा मैडम ने खुद अपने हाथ में ले लिया और शांति अम्मा चावल परोसने लगीं. शशांक दूर खड़ा सोचता रहा खाना खाए न खाए. उसके झोले में पड़ी थाली और पेट में कुलबुलाती भूख बड़ी मैडम के ताने और नई मैडम के दुलार के बीच कहीं फंसी हुई थी. यूँ भी अगर वो खाना चाहेगा भी तो उसे तो आखिरी में अलग से दूर से ही खाना दिया जायेगा. वह अभी यह सब सोच हो रहा था कि नई मैडम ने पुकारा ‘अरे तुम वहां क्यों खड़े हो आओ, देखो आज राजमा मैंने खुद बनाया है, बताओ खाकर कैसा बना है.’ नई मैडम ने उसे देखते हुए मुस्कुराकर कहा. अब शशांक को समझ में आया मोहन के उस ‘बहुत अच्छी’ का मर्म. भूख ने मैडम के प्यार की पुकार से दोस्ती करते हुए बड़ी मैडम के ताने से हाथ छुडा ही लिया. वो झोले से थाली निकालकर किनारे खड़ा हो गया. नई मैडम ने उसे पास बुलाया और सबके साथ ही उसकी थाली में भी खूब प्यार से खाना परोसते हुए कहा ‘अच्छे से खाना भरपेट. फिर क्लास में मस्ती करेंगे.’ शशांक का पेट मैडम के प्यार से ही भर गया था. उसे इतने प्यार से कभी किसी ने खाना नहीं परोसा. गरिमा दीदी ने भी नहीं. वो इतनी उदास रहती है कि खाने में भी उदासी ही परोसती हो जैसे. शशांक ने पहला कौर खाया ही था कि उसे लगा यह स्वाद तो अद्भुत है. शशांक ने भरपेट खाना खाया और वो पूरे वक्त नई मैडम को देखता रहा. उसने सोचा काश कि वो रोज स्कूल आ सकता. लेकिन फिर मोहन का क्या होगा. एक दिन छोडकर आने वाला प्रोग्राम फिर से शुरू करना होगा. यह सब सोच-विचार चल ही रहा था कि घंटी बज गयी और सब बच्चे क्लास में चले गए. शशांक बाहर ही खड़ा रहा. बड़ी मैडम उसे बीच-बीच में घूर रही थीं. नई मैडम जब क्लास में आयीं तो उन्होंने शशांक को भी क्लास में बुलाया.
राहुल ने उसे देखते हुए चिढ़कर कहा, ‘मैडम इसने मेरी कॉपी फाड़ी थी इसलिए इसे दिन भर क्लास से बाहर रहने की सजा मिली है.’
नई मैडम ने मुस्कुराकर कहा, ‘अच्छा? कॉपी फाड़ना तो बुरी बात है. मैं इसकी सजा बदल देती हूँ. आज से इसे सबसे आगे बैठना होगा. ठीक है?’ राहुल और शशांक दोनों को समझ में नहीं आया कि यह कैसी सजा है. शशांक अपनी थाली वाला झोला लिए हिचकते हुए आगे की ओर बढ़ा कि सुमन ने सूचनार्थ नई मैडम को बताया कि, ‘मैडम ये भंगी है. बड़ी मैडम इसे अलग बिठाती हैं. आप इसे सबके साथ मत बिठाइए.’ शशांक ने अपमान से सर झुका लिया और जहाँ था वहीँ रुक गया. नई मैडम आगे बढ़कर हाथ पकडकर शशांक को आगे ले आई और अपनी मेज के ठीक सामने वाली डेस्क पर उसका झोला रख दिया. ‘अब तुम यहाँ बैठोगे रोज.’ शशांक के फूले गालों में जो उदासी भरी थी उसे प्यार से सहलाकर नई मैडम ने दूर कर दिया. लेकिन सुमन पर शशांक का गुस्सा बरकरार था. उसने मन ही मन सोचा नहीं लडकियाँ और बकरियां एक सी नहीं होतीं. लडकियाँ भी जात पूछती हैं सिर्फ बकरियां जात नहीं पूछतीं. उसे अपनी बकरियों पर प्यार आने लगा. नई मैडम ने एक कहानी सुनाई और उस कहानी पर बच्चों से बातें की. शशांक बड़ी बड़ी आँखों से नई मैडम को देखता रहा. उसे कहानी से ज्यादा अच्छा लग रहा था मैडम का कहानी सुनाने का तरीका. सुनाई गयी कहानी से अलग एक कहानी उसके मन में भी बनने लगी थी.
छुट्टी की घंटी बज चुकी थी. बच्चे खुश होकर बस्ता बाँधने लगे थे. शशांक आज स्कूल आकर एकदम खुश था. उसने मन ही मन सोच लिया था अब वो और मोहन एक दिन छोड़कर स्कूल आने और बकरियां चराने का कार्यक्रम जारी रखेंगे.
वो कई दिन तक सर पर नई मैडम के हाथ फिराने के सुखद एहसास में झूमता रहा.
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (12-01-2022) को चर्चा मंच "सन्त विवेकानन्द" जन्म दिवस पर विशेष (चर्चा अंक-4307) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह!!!
ReplyDeleteबहुत ही रोचक और मनमोहक कहानी
छोटी जात भेदभाव और बच्चों को मनोभावों का लाजवाब शब्दचित्रण...
लाजवाब।
बकरियां जात नहीं पूछती...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर संदेशप्रद मनमोहक एवं रोचक कहानी
छोटी जात के बच्चे गरीबी और भेदभाव का अद्भुत शब्दचित्रण...
वाह!!!!
बहुत समय बाद एक अच्छी कहानी पढ़ने को मिली। कहानी का सारगर्भित कथानक तो मनमोहक है ही, आपकी लेखन शैली ने और अधिक प्रभावित किया। 'उसे लगा लड़कियां और बकरियां एक जैसी होती हैं. वो जात नहीं पूछतीं' - शशांक के मनोभावों को इससे अधिक खूबसूरती से नहीं कहा जा सकता था। कहानी के तत्व को आपने जो वैचारिक मंथन दिया है, अप्रतिम है। अन्तःस्तल से मेरी बधाई स्वीकारें प्रतिभा जी!
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