उदासी भी एक समय के बाद छीजने लगती है. उसे खुद से उकताहट होने लगती हो मानो. लेकिन जब तक उदास होने की वजह खत्म न हो आखिर रास्ता ही क्या इसमें धंसे रहने के सिवा. कोविड महामारी का यह दौर स्थाई उदासियाँ देकर गया है.और अभी गया भी कहाँ है. लेकिन सामान्य जीवन की पुकार इस कदर आकर्षक है कि पाँव खिंचते ही चले जाते हैं उस ओर. यह मानव स्वभाव है. देखा जाए तो इसी में जीवन की उम्मीद छुपी है. 'जीवन चलने का नाम' की तर्ज पर फिर से बाजार, दफ्तर फेसबुक गुलजार होने को हैं. लेकिन सोचती हूँ कि यह सामान्य होना क्या है. हम किस जीवन की ओर लौटने की इच्छा से भरे हैं? वही जीवन जो महामारी से पहले था या कोई और जीवन?
सामान्य शब्द का डायस मेरे हाथों में हैं. इसे लगातार घुमा रही हूँ. सामान्य क्या है? जो था, क्या वहीं लौटना अभिप्राय है या कहीं और जाना है. असल में वापस लौटने जैसा कुछ नहीं होता, कभी नहीं होता. होना भी नहीं चाहिए, लौटने में हमेशा एक नयापन शामिल रहता है. शामिल होना चाहिए. सुबह काम पर निकलते वक़्त जो हम थे, शाम को लौटते वक़्त उससे थोड़ा अलग हों तो बेहतर. थोड़ा बेहतर होते रहना मनुष्य की जिजीविषा होनी ही चाहिए. है भी शायद. लेकिन वो हमसे कहीं खो गयी है. या ढर्रे पर घिसटते हुए तथाकथित सफलता के पायदानों पर चढ़ते जाने के दबाव ने उसे हमसे छीन लिया है.
मुश्किल वक्त कभी खाली हाथ नहीं आता. पीड़ा और संताप के अलावा भी वह हमें बहुत कुछ देकर जाता है. क्या हम उसे देख पाते हैं? पीड़ा और संताप का वेग इतना प्रबल होता है कि हम कुछ और देख नहीं पाते. बहुत कम लोग देख पाते हैं उसे. बहुत कम.
इस महामारी की प्रलय से अगर हम सुरक्षित बच सके हैं तो इतना ही काफी नहीं है अब हमारे ऊपर दायित्व बढ़ा है ज्यादा बेहतर मनुष्य होने का, ज्यादा मानवीयता से भर उठने का. जीवन क्या है, कितना क्षणिक. कब छूट जाएगा कुछ पता नहीं. कभी भी, कहीं भी मृत्यु अपनी टांग अड़ा देगी और जीवन के तमाम हिसाब-किताब मुंह के बल गिर पड़ेंगे. वही हिसाब किताब जिनके लिए हम क्रूरता, अमानवीयता की हदें पार करते जाते हैं. क्यों? क्या होगा जो एक प्रमोशन कम मिलेगा, क्या हो जायेगा जो एक गहना कम होगा देह पर, क्या फर्क पड़ेगा अगर मानवीय मूल्यों के चलते हमें थोड़ा कम सफल व्यक्ति के तौर पर आँका जायेगा. असल सुख तो है चैन की वो नींद जो हर रोज हमें बेहतर मनुष्य होने के रास्ते पर चलते हुए आई थकन से उपजती है.
इस दौरान अच्छे भले व्यक्ति को 'बॉडी' बनते कई बार देखा. सांस के रहते तक वह व्यक्ति, व्यक्ति था उसका नाम था, पहचान थी सांस रुकते ही वह बॉडी हो गया. जिसके लिए आईसीयू, ऑक्सिजन, दवाइयों के लिए दौड़ते फिर रहे थे उसके लिए श्मशान घाट में नम्बर आने पर फूंकने का इंतजार होने लगा. वो व्यक्ति कैसे अचानक स्मृति भर बनकर रह गया. इस स्मृति की यात्रा कितनी लम्बी है यह उसके जिए हुए पर निर्भर करता है. फेसबुक पर आये श्रृध्धांजलियों के उछाल के बाद जो शेष बचती है जीवन में वह स्मृति. वह स्मृति ही असल में जीवन है.
दुःख, पीड़ा, अवसाद ने इस बार इतना खरोंचा है कि मन एकदम लहूलुहान है. इस दौर में कितनी ही बार ख्याल आया जाने अब हम अपनों से कभी मिल भी पायेंगे या नहीं. कितनों से तो नहीं ही मिल पायेंगे. कब कौन सी बात आखिरी बन गयी, कौन सी मुलाकात आखिरी बन गयी...हम अवाक देखते रह गये. उस आखिरी रह गयी मुलाकात और बात को मुठ्ठियों में बाँध लिया है, उस स्मृति में सांस शेष है. जो लगातार कह रही है, जीवन को दुनिया के क्षुद्र छल-प्रपंचों से बचाकर जियो, हर लम्हा भरपूर जियो. किसी की आँख का आंसू न बनो, किसी के आहत मन का कारण न बनो, बस इतना बहुत है.
शरीर और जीवन का बहुत मोह नहीं करना चाहिए, जो लम्हे सामने हैं जीने को उन लम्हों का मोह करना चाहिए, इस दारुण समय से हमने कुछ नहीं सीखा तो सामान्य जीवन की तरफ लौटने की हड़बड़ी किसी काम की नहीं.
link- https://epaper.jansatta.com/3116898/Jansatta/04-June-2021#page/6/2
बहुत सुंदर रचना
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