क्या आपने अपनी नंगी पीठ पर खाए हैं
अपनी जाति के कारण पड़ने वाले चाबुक
क्या आपके बच्चे सोये हैं कई रातों तक
भूख से बिलबिलाते हुए
क्या आपकी पीढियां गुजरी हैं उस दर्द से
जो सिर्फ झूठन पर जिन्दगी गुजारने से जन्मता है
और उसे उन्हें उम्र भर सहना पड़ता है
क्या आपके कुल खानदान में से कभी कोई उतरा है
गटर की सफाई के लिए और गंवाई है जान
क्या अपने अस्तित्त्व को गाली की तरह
इस्तेमाल होने का स्वाद चखा है आपने
क्या आपको कहानियां लगती हैं
दलितों पर अत्याचार की घटनाएँ
क्या आप समझते हैं कि दिन में एक बार
चावल का माड़ पीकर सोने वाले बच्चे
और सुविधाओं से घिरे आपके
शहजादे की परवरिश एक सी है
क्या सचमुच आपको कोई फर्क महसूस नहीं होता
भूखे पेट ढिबरी में पढने
और भरपेट खाने और चार ट्यूशन से पढने में
क्या आपकी नसें तनी हैं कभी दलित स्त्रियों से बलात्कार की खबरों से
या मान लिया है आपने कि उनका जन्म ही हुआ है इसके लिए
क्या आपको लगता है कि 'हमने तो नहीं देखी बराबरी' कहकर
समय और समाज की बड़ी हकीकत को झुठला सकते हैं आप
क्या आपको सचमुच नहीं पता कि
बिना सम्मान के पीढ़ी दर पीढ़ी जीते जाना कितना पीड़ाजनक होता है
जाति के कारण कुँए के सामने प्यास से दम तोड़ते लोगों के बारे में जानना
क्या आपको किसी काल्पनिक उपन्यास का कोई पन्ना लगता है
क्या नहीं पसीजता आपका दिल
नन्हे के एक वक्त के दूध की खातिर
देह को बिछाने की पीड़ा सहती स्त्री के बारे में जानकर
तो देवियों और सज्जनों,
अपने गले की नसें टूटकर बिखर जाने की सीमा तक
चीखते हुए कहना चाहती हूँ कि
आप मुगालतों की दुनिया में हैं
क्योंकि यह सब होता है आज भी, अब भी
यहीं कहीं आपके बहुत पास
न जाने कितनी सिसकियाँ होंगी
जो आपने सुनी नहीं
दृश्य जो आपने देखे नहीं
कृपया अपने मुगालतों की दुनिया से बाहर निकलिए
उतारिये कुछ देर को जाति की उच्चता की
वह आलीशान पोशाक जो जन्म के साथ ही
आपके लिए तमाम सुविधा समेत आपको पहना दी गई है
कल्पना कीजिये न सिर्फ एक बार वह सब जीने की
जिसके होने को नकार रहे हैं आप
और अगर नहीं कर सकते ऐसा
तो कृपया बंद करिए फरमान देना
कि 'अब ऐसा कुछ नहीं होता'
क्योंकि होता तो अब भी सब कुछ ऐसा ही है
बल्कि कुछ ज्यादा ही शातिर ढंग से.
(बाबा साहब की जयंती और उदास मन)
बहुत सुन्दर
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