Friday, October 9, 2020

प्रतिभा की ‘मारीना’

नवीन जी मेरे पहले सम्पादक हैं. पहली नौकरी शुरू की नवीन जी के साथ भी और उन्हीं की वजह से. पत्रकारिता में मेरा आना भी उन्हीं की वजह से हुआ कि पत्रकारिता का चस्का जो लगा दिया उन्होंने. काम करने का सुख, हर रोज कुछ नया सीखने का सुख मिलने लगा था. सिविल सर्विस में जाने का सपना जो पापा का था धीरे-धीरे मेरे खुद के सपने में तब्दील होने लगा और मुझे पक्का यकीन हो गया कि यही काम मैं करना चाहती हूँ. इसी में मन लगता है. इसी से सामाजिक बदलाव की कोई राह भी खुले शायद. नवीन जी ने मेरी पहली किताब पर स्नेहासिक्त सा कुछ लिखा. उसे पढ़ते हुए मन 22 बरस पुरानी गलियों में विचरने लगा. यह भावुक पल है मेरे लिए. नवीन जी को पढ़ते हुए लिखना सीखने की कोशिश किया करते थे. जाहिर है उनके द्वारा लिखी यह टिप्पणी मेरे लिए किसी अनमोल खजाने से कम नहीं. थैंक यू सो मच सर. आपके पहाड़ों से आपको शुक्रिया भेज रही हूँ.- प्रतिभा 

- नवीन जोशी 
किताब तो जनवरी में दिल्ली के पुस्तक मेले से खरीद लाया था लेकिन तत्काल पढ़ना हो नहीं पाया। फिर अपना उपन्यास पूरा करने में लग गया। उससे मुक्त हुआ तो ‘मारीना’ प्रतीक्षा कर रही थी। प्रतिभा कटियार की किताब है और उसकी पहली ही है, इसलिए पढ़ना ही था। पुस्तक अच्छी होगी, यह उम्मीद प्रतिभा को जानने के कारण थी ही लेकिन ‘मारीना’ इतनी अच्छी निकली कि लगा जिस प्रतिभा को जानता था, वह उससे बहुत आगे निकल गई है। शाबाश, प्रतिभा।

वे 1996-98 के दिन थे। ‘स्वतंत्र भारत’ पत्रकारिता की अपनी सम्पन्न विरासत खो चुका था तो भी हम कुछ लोग उसकी स्मृतियां पकड़े हुए वहां अटके हुए थे। उन्हीं दिनों प्रतिभा कटियार नाम की लड़की कभी-कभार फीचर या लेख लेकर आती। प्रकाशन के साथ-साथ उसका आग्रह यह बताए जाने का होता था कि इसे और अच्छा कैसे बनाया जाए या और क्या अच्छा लिखा जा सकता है। उसकी लगन देखकर हमने उसे अपनी टीम में शामिल किया। क्रमश: विपन्न होते अखबार के एक दड़बे में फीचर की छोटी-सी टीम थी। अनुभवी विनोद श्रीवास्तव के अलावा हमारा ‘वीर बालक’ था- गज़लगो विवेक भटनागर। उसी में प्रतिभा भी शामिल हुई। उसके आगे-पीछे अनुजा शुक्ला आई। रचनात्मक ऊर्जा और सपनों से भरे युवा। प्रतिभा में सीखने और निरंतर अच्छा करने की ललक थी। कभी वह गुलजार का इंटरव्यू कर लाती, कभी जावेद अख्तर की शायरी पर लिखती। वह बड़ा आत्मीय और रचनात्मक साथ था। हम मिलकर अजब-गजब प्रयोग करते, कुछ बहुत अच्छे बन जाते कुछ हास्यास्पद। खाली समय में पहाड़ (मेरा प्रिय विषय) और समंदर और कविताओं की बातें होतीं। 


डेढ़-दो साल में हम अलग-अलग राहों पर चल पड़े। प्रतिभा नौकरियां बदलती रही लेकिन निरंतर सम्पर्क में रही। अपना लिखा पढ़ाती और पढ़ने को किताबें ले जाती (अब भी कुछ किताबें उसके पास होंगी) ‘हिंदुस्तान’ में भी उसने हमारे साथ कुछ समय काम किया। फिर ‘आई-नेक्स्ट’ के पेजों में उसकी मेहनत अक्सर दिखाई दे जाती। कुछ अलग-सा करती तो फोन पर बताना नहीं भूलती थी कि बताइए कैसा रहा और क्या कमी रही।

एक दिन उसने फोन किया कि ‘अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन’ के लिए एप्लाई किया है और आपका नाम ‘संदर्भ व्यक्ति’ के रूप में दे दिया है। मुझे पता था, उसका चयन हो जाएगा। कुछ समय बाद देहरादून से उसका खिलखिलाता फोन आया था- ‘मैं आपके पहाड़ों पर पहुंच गई हूं।’ फिर अपनी पहाड़ यात्राओं के बारे बहुत खुश होकर बताती। कुछ वर्ष पहले देहरादून यात्रा में मैं उसके घर खाना भी खा आया लेकिन तब जान नहीं पाया था कि वह पहाड़ों से प्रेम करते-करते प्रेम के कितने समंदर पार कर गई है।

यह बताया ‘मारीना’ ने। प्रतिभा के ही शब्दों में ‘यह मारीना पर किताब लिखना नहीं है, खुद मारीना हो जाना है।‘ एक शताब्दी से अधिक समयांतर के बावजूद इस पुस्तक में यह कायांतरण, प्रतिभा से मारीना और मारीना से प्रतिभा की आवा-जाही अद्भुत रूप में है। यह प्रेम के पहाड़, रेगिस्तान और समंदर पार किए बिना सम्भव नहीं था। पिछले बीसेक साल में प्रतिभा की कहानियां और कविताएं पढ़ने को मिलती रहीं, जिनमें प्रेम के बहुतेरे शेड्स होते थे। प्रेम उसका प्रिय विषय रहा है। इस सृष्टि की प्रत्येक वस्तु से प्रेम और प्रेम से भी अपार प्रेम। उसकी फेसबुक पोस्टों से भी खुशबूदार प्रेम झरता है जैसे चीड़ वन में हवा में महकता है पराग।

मारीना त्स्वेतायेवा (1892-1941) रूस की ऐसी कवयित्री थी जिसने एक तूफानी और हर चीज के अतिरेक से भरा जीवन जीया। बाल्यकाल की अमीरी और किशोरावस्था से मृत्युपर्यंत दर-दर की ठोकरें, निर्वासन और भुखमरी के हालात तक जिन दो चीजों का दामन उसने नहीं छोड़ा वह थे लेखन और प्रेम। लेखन में मारीना ने कई प्रयोग किए जो सराहे भी गए और खारिज भी खूब किए गए। उसने जो जीया वही लिखा और कभी कोई समझौता नहीं किया। उसने खूब प्रेम किए, प्रेम पाया और उतनी ही उपेक्षा भी। उसके जीवनकाल में उसकी कविताओं का विशेष नोटिस नहीं लिया गया। रूस से निर्वासन (एक तरह से आत्मनिर्वासन) के लम्बे दौर में यूरोप में उसे कुछ समझा गया, कहीं-कहीं सराहना भी मिली लेकिन अधिकतर वह उपेक्षित ही रही। अपने अंतिम दिनों में उसकी रूस वापसी की दास्तान हृदय विदारक है। तो भी उसने कभी लिखना नहीं छोड़ा। छोटी बेटी मर रही थी तब भी, बड़ी बेटी मरणासन्न थी तब भी और फंदे पर लटकने का फैसला करके बेटे के लिए सुरक्षित भविष्य की कामना करते समय भी वह लिखती रही थी। मारीना को रूस में 1960 के बाद क्रमश: सराहना और मान्यता मिल पाई।

हिंदी में मारीना की यथा सम्भव प्रामाणिक कहानी लिखना इसलिए बहुत चुनौतीपूर्ण था क्योंकि उस पर जो भी सामग्री है वह रूसी में है या फ्रेंच और जर्मन में। अंग्रेजी में भी बहुत कम चीजें उपलब्ध हैं। बिना रूसी, फ्रेंच या जर्मन भाषाएं जाने मारीना की विश्वसनीय कथा कहने की चुनौती प्रतिभा ने स्वीकार की तो सिर्फ इसलिए कि किशोरावस्था में पिता की पुस्तकों के बीच मारीना के बारे में कुछ पढ़ कर वह उससे प्रेम कर बैठी थी। कहा जाता है न कि सच्चे प्रेम में भाषा की क्या बाधा! सो, प्रतिभा ने मारीना तक की यात्रा प्यार-मुहब्बत के सहारे तय की और उससे संवाद भी किए। यह कैसे सम्भव हुआ, यह किताब पढ़कर ही जाना जा सकता है। यह किताब मारीना की कविताओं के बारे में नहीं है, उसके जीवन के बारे में है लेकिन फिर मारीना का जीवन ही उसकी कविताएं हैं।
हिंदी में ‘मारीना’ का प्रकाशन बड़ी उपलब्धि है। अपनी टिप्पणी में डॉ वरयाम सिंह ने बिल्कुल सही लिखा है कि ‘यह शोध-ग्रंथ नहीं है, यह प्रेम है।’

यह पुस्तक पढ़ कर ही जान पाया कि वर्षों से प्रतिभा जो प्रेम-प्रेम जपती रही है, उस समर्पण एवं साधना का फल कितना संतोषदायक है। हिंदी के युवा लेखकों के लिए यह एक सीख भी है।

प्रतिभा से हम भविष्य में और बड़े कामों की उम्मीद पाल सकते हैं। उसके कविता संग्रह की भी प्रतीक्षा है।

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