कई रोज हुए कि कोई दिन उगा नहीं. कई रोज हुए कि रात देहरी से हटी ही नहीं. रात का हाथ पकडे पकड़े मैं सुबह की राह तकती रही. लेकिन कई रोज हुए कि सुबह हुई ही नहीं. तुम नाराज न होना कि कई रोज हुए मैंने तुम्हें खत नहीं लिखा. यूँ लिखा कई बार वहीं जहाँ लिखा जाता है सबसे निश्छल सच पहली बार. मन के कागज पर अनुभूतियों के शब्दों से. जानती हूँ वही लिखा सबसे असरकारक होता है, वो तो बेलिखा भी प्यारा होता है न? याद है तुमको एक रोज जब मैंने मन के कागज पर लिखा था बूँद और तुम्हारा शहर बारिश से तर-ब-तर हो गया था. हाँ, ऐसा ही तो है हमारे बीच संवाद का रिश्ता. जब तुमने उस बारिश की ओर अपनी हथेली बढ़ाई होगी ठीक उसी वक्त मेरी देह में सिहरन उतर आई थी.
शब्द कितने नाकाफी हैं उस सिहरन को लिख पाने में...जानते हो फिर भी खतों का इंतजार करते हो? यूँ इंतजार करना अच्छा है कि यह इंतजार कितना कुछ बचाए हुए है हमारे बीच. रिश्तों के बीच जो अबोला होता है न वो कीमती होता है मैंने उस अबोले को अपने आंगन में बो दिया था. आज जब कई रोज बाद बरसता हुआ दिन उगा है तो देखती हूँ उस अबोले में अंकुर फूटे हैं...अब वो पौधे बनेंगे, फिर पेड़...फिर खुशबू से तर-ब-तर हो जायेगा मेरा शहर. बारिशें उन अंकुरों पर फ़िदा हैं. रात ने जाते-जाते हथेली पर इस सुबह का तोहफा रख दिया है...चाय में अलग ही स्वाद है आज. तुम्हारी मुस्कुराहटों का स्वाद.
वाह
ReplyDeleteBAHUT ACHHA LIKHA HAMESHA KI TARAH AAPNE.
ReplyDeleteBAHUT ACHHA LIKHA HAMESHA KI TARAH AAPNE.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24.9.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
लाजवाब सृजन
ReplyDeleteमंत्रमुग्ध करती लेखनी। प्रभावी और बेहतरीन भाव से युक्त। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीय ।
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