कल बारिश हुई. आज भी होने के आसार हैं. यूँ पहाड़ों का तो बारिशों से फूलों से और प्रेम से गहरा रिश्ता है ही. फिर भी हर बार जब बारिश होती है ऐसा लगता है पहली बार देख रही हूँ बारिश. ये मौसम बारिशों का है. फलों में मिठास उतरने का मौसम है ये. फलों के शाखों से उतरकर घरों में आने का मौसम है.
दुनिया को बारिशों को ठहरकर देखना चाहिए. पहाड़ की बारिशों को. ठहर ठहर कर कभी द्रुत गति से कभी मध्धम गति से आती बारिशों को. कभी आलस में भरी नयी दुल्हन सी भी लगती हैं बारिशें...बस चुपचाप गिरती जाती हैं...घूँघट के भीतर से जैसे मुस्कुराती हो धीमे-धीमे. और मुसुकुराहट उतारना भूल जाती हों. बरसती जाती हों. मैं बारिश होना चाहती हूँ. क्या तुम भीगना चाहते हो?
कल व्यस्तताओं का बड़ा सा पहाड़ था. मैं बारिशों को खिड़की से आँख उठाकर ठीक से देख भी नहीं सकी. उसकी आवाज सुनती रही और शीशे के उस पार उसके बुलावे को इग्नोर करती रही. दिन खत्म होने के साथ काम खत्म हुआ और बारिश भी. रूठकर जाती बारिशों के आगे हथेलियाँ बढ़ा दीं तो टप्प से एक बूँद टपक गयी. मानो जाते-जाते कहा हो बारिशों ने 'जाओ माफ़ किया.'
मैं हथेलियों में उस बूँद को सहेजे-सहेजे ही सो गयी. सुबह में उस बूँद की नमी शामिल है. प्रकृति के ये तोहफे जिन्दगी की खर्ची हैं. इन्हें सहेजना आना जरूरी है. मैं सीख रही हूँ सहेजना.
रात सपने में मैं वहीं भागती फिर रही थी जहाँ गुलमोहर की छाँव में नदी में पांव डाले हम घंटों बैठा करते थे. तुम कुछ गाया करते थे. कितना बेसुरा गाते थे तुम लेकिन एकदम डूबकर. मैं सोचती थी तुम क्यों गा रहे हो, मत गाओ न, नदी की आवाज सुनने दो न? और तुम्हारा गाना खत्म होते ही मैं नदी की बीच में धार में खड़ी हो गयी थी. बाहें पसारे. तुम डर गये थे कि मैं बह जाऊंगी, मैं खुश थी कि नीचे नदी ऊपर आसमान, किनारे गुलमोहर और तुम्हारे माथे पर चिंता के निशान सब एक साथ हैं. प्रेम का ऐसा कोलाज कमाल अमरोही के फ्रेम को भी पीछे छोड़ रहा हो जैसे. वो सपने का सच था या सच का सपना इस बात को जाने देते हैं.
एक रोज मैं नदी से मिलने गयी थी वहां तुम्हारे बेसुरे गाने की आवाजें अब भी आती हैं. जब मैं नहीं जा पाती नदी से मिलने नदी मेरे सपने में आती है. तुम्हारे सपने में कौन आता है?
मेरी हथेलियों में कल की बूँद के निशान बाकी हैं,..
बहुत सुन्दर और विचारणीय पोस्ट।
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