Thursday, June 4, 2020

पीले रंग के बादल और तुम



लगता है शर्मसार होने के दिन हैं. हर दिन न जाने कितनी ही घटनाएँ गुजरती हैं पास से जो शर्मिंदगी से भर देती हैं. टूटा हुआ दिल और टूट जाता है. हर रोज महसूस होता है कि समाज के तौर पर हम मनुष्य होने की काबिलियत से थोड़ा और ख़ारिज हुए हैं.

नदी ने अपने भीतर कितनी पीड़ा, कितनी चीखों और कितने ताप को सहेजा. नदी भी रोई होगी न? रोना दुःख का एक बहुत छोटा सा हिस्सा है. बेहद मामूली. क्योंकि दुःख तो आंसुओं से बहुत बड़ा होता है. वो आंसुओं में कहाँ समाता है. कल किशोर को सुना/पढ़ा. सच ही कहते हैं वो कुछ भी कहाँ लिखा जा सकता है, न दुःख न सुख न सपना कोई...लिखना खुद को बहलाने का एक भरम है, कुछ देर को राहत पाने का भरम...जैसे चाय पीना, सिगरेट फूंकना. हालाँकि किसी से कुछ नहीं होता.

लेकिन जाने क्यों लगता है लिखना  बिना मेकअप के आईने के सामने बैठना है. खुद को जस का तस सामने रख देना और अपनी कमियों को ठीक ठीक देख पाना. 

यूँ भी लगता है कभी कि कैसे कोई दूर बहुत दूर किसी देश में बैठकर अपने देश के मौसम की नमी का जिक्र करता है और वो नमी पढने वाले की आँखों में उतर आती है. शायद उसने लिखा नहीं होगा, सोचा होगा सिर्फ. शायद सोचा भी नहीं होगा सिर्फ महसूस किया होगा. सिहरन सी होती है यह सोचकर कि प्रेम हो तो इस कदर भी जुड़ा जा सकता है कि संवाद निरर्थक ही हो जाएँ सब और न हो तो तमाम मौजूदगी भी बेमानी ही हो.

जाने क्यों लग रहा है तुम्हें याद करते हुए इस वक्त मेरी आँखों की नमी ने तुम्हारे शहर के मौसम को छुआ होगा. देखना तो कहीं बादल तो नहीं हैं वहां.

ऐसा कैसे होता है कि मैं सपने में पीले रंग के बादल देखती हूँ और इनबॉक्स में अमलतास के गुच्छे मुस्कुरा रहे होते हैं. मैं अपने सपनो में बहुत ताकत पिरो देना चाहती हूँ इतनी ताकत कि एक रोज पूरा अख़बार सुख की ख़बरों से भरा हो, इतनी ताकत कि एक रोज मैं जब घर लौटूं तो मेरे साथ लौटें दिन भर मिले लोगों की सच्ची मुस्कुराहटों की स्मृतियाँ. कि एक रोज मैं जागूं और मेरे सामने तुम खड़े हो...

किशोर को बार-बार पढ़ रही हूँ कल से. लगता है उन्होंने मेरे मन की हर बात लिख दी है. तुम भी उसे जरूर पढ़ना. 

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