सुबह खिड़की से झाँककर देखा तो जूही मुस्कुरा रही थी. नन्हा सा पौधा अब बड़ी सी बेल बनकर इतराने लगा है. हवा चलती है तो फूल खूब झूमते हैं. नन्हे मियां हरसिंगार भी घुटनों चलते हुए अब पाँव-पाँव चलने लगे हैं. हरे पत्ते खूब आ गए हैं. शायद अबके मौसम उसमें भी फूल आये. पूरा अहाता फूलों से, खुशबुओं से भरा हुआ है. मैं ज्यादा समय बालकनी में ही लटकी रहती हूँ. जब बारिश आती है तो ऐसा जी करता है कि कूद ही जाऊं हवा के झोंकों के संग और लीची, आम के पेड़ों पर अटकी बूंदों के करीब जाकर बैठ जाऊं. देखूं बूँद बनकर देर तक टहनियों पर अटके रहना कैसा लगता है.
कल बारिश हुई थी. ज्यादा नहीं थोड़ी सी, लेकिन ठंडी हवा दिन भर चलती रही. मन का मौसम भी मध्धम सुर में मालकोश की बंदिश गुनगुनाता रहा दिन भर.
जब मैंने अपने शहर के मौसम से तुम्हारे शहर के मौसम के बारे में पूछा तो वो चुप हो गया. बोला नहीं कुछ. क्या तुम उदास थे. उदास कौन नहीं है, कब नहीं है. सच कहूँ हर बात निरर्थकता का बोध कराती है, हर काम सिवाय इन फूलों के.
जब तेज़ धूप में जबर्दस्त खिले और मुस्कुराते फूलों को देखती हूँ तो लगता है क्या इन्हें धूप नहीं लगती होगी, लगती तो होगी, फिर भी कैसे गमक के खिले हुए हैं. काली अंधियारी रात में जब सफ़ेद फूलों से जगमगा उठता है बागीचा और खुशबू से नहा उठता है पूरा कैम्पस तो सोचती हूँ क्या इन नन्हे सफेद फूलों को अँधेरे ने कभी डराया नहीं होगा. प्रकृति पवित्र है और जीवन का पूरा सन्देश. मौसम कैसा भी हो, हालात कितने भी विपरीत हों खिलना तो है ही और अंतिम सांस तक जीना है महकना है. हमारे होने की सार्थकता इतनी भर हो सके अगर कि कोई दो घड़ी हमारे करीब बी बैठे तो उम्मीद से भर उठे और हम किसी के करीब से गुजरें तो वो मोहब्बत से भर उठे...
मैंने आज फिर दो कप चाय पी है...जूही मुस्कुराकर मुझे देख रही है.
आपका स्वयं से संवाद मेरे मन की अभिव्यक्ति लगती है। अनायास मन छू जाते हैं।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 01 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहर एक संवेदनशील मन की सकारात्मक सुबह का स्पंदित शब्दचित्रण ...
ReplyDeleteवाह बेहतरीन रचना।
ReplyDeleteवाह ! प्रकृति के साथ आत्मीयता का मोहक अंदाज !
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