बदलना पड़ता है खुद को
दृश्य बदलने से
तो सिर
दृश्य बदलते हैं.
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भूख पेट में थी
खाना मदद के इश्तिहारों में
और रास्ता लम्बा
भूख ने दम तोड़ दिया
इश्तिहार चमकते रहे.
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अनाज उगाने वाले हाथों का
अनाज मांगने वाले हाथों में बदलना
इतिहास की त्रासदी है
अगर उनके हाथों तक
पहुंचाते हुए राशन
अकड़ती है गर्दन
तो लाजिम है टूटना
मनुष्यता का..
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तो सिर
दृश्य बदलते हैं.
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भूख पेट में थी
खाना मदद के इश्तिहारों में
और रास्ता लम्बा
भूख ने दम तोड़ दिया
इश्तिहार चमकते रहे.
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अनाज उगाने वाले हाथों का
अनाज मांगने वाले हाथों में बदलना
इतिहास की त्रासदी है
अगर उनके हाथों तक
पहुंचाते हुए राशन
अकड़ती है गर्दन
तो लाजिम है टूटना
मनुष्यता का..
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लॉकडाउन में खोलनी थीं
मन की गांठे
लेकिन हमने कसे ही
अपने पूर्वाग्रह
और भी मोटे ताले डाले अपनी अक्ल पर
कि वायरस से ज्यादा बड़ी थी
जाहिलता की मार.
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 28 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteभूख पेट में थी
ReplyDeleteखाना मदद के इश्तिहारों में
और रास्ता लम्बा
भूख ने दम तोड़ दिया
इश्तिहार चमकते रहे.
समाज सेवा के नाम पर इश्तिहार जैसा दिखावा....
कि वायरस से ज्यादा बड़ी थी
जाहिलता की मार.
बहुत ही सटीक सार्थक लाजवाब सृजन।