क्या तुमने मुझे अभी-अभी इसी पल याद किया है. मुझे ऐसा क्यों महसूस हुआ? 'मैं तुम्हें कब याद नहीं करता' की तुम्हारी बात मेरी सुबह की चाय में मिठास बनकर घुली हुई है.
क्या तुमने सुबह की चाय पी ली होगी? या चाय पीने की इच्छा को समेटकर करवट बदल कर फिर से सो गये होगे? क्या तुम थोडा और सोकर उस सपने को बचा रहे हो जिसमें हम दोनों साथ में चाय पी रहे थे?
एक बेहद मुक्कमल सुबह को तुम्हारा ख्याल महका रहा है. इस ख्याल में मैं तुमसे झगड़ रही हूँ. तुम कभी कोई काम ठीक से क्यों नहीं करते? कुछ भी नहीं. न आये ठीक से, न गए ठीक से. न याद किया ठीक से न भूले ही ठीक से...तुम मेरे झगड़ने को मुग्ध होकर देखते हो, 'ठीक क्या होता?' तुम पूछते हो?
ह्म्म्मम...जो हथेलियों पर रखा होता है वो अक्सर ठीक नहीं लगता, वो ठीक लगता है जो छिटक कर दूर चला जाता है. तुमने ठीक कहा था, तुम्हारा जिन्दगी में न रह जाना असल में जिन्दगी में तुम्हारा ढेर सारा बिखर जाना ही तो है.
एक रोज तुम्हारी सिगरेट बुझाते हुए थोड़ी सी सुलग भी गयी थी मैं....वही आंच जिन्दगी की आंच बनी है अब तक. जानती हूँ तुमने सिगरेट पीना छोड़ दिया है, सोचती हूँ कभी मिलोगे तो हम साथ में पियेंगे...सिगरेट नहीं जिन्दगी.
'जितना तुम्हारे साथ हूँ, उतना तो खुद के साथ भी नहीं...' कहीं से आवाज आती है. यह तुम्हारी ही आवाज है. फोन की घंटी की बजी नहीं. कोयल जरूर बजे सौरी बोले जा रही है.
तुम सोते हुए मुस्कुराना मत, पकडे जाओगे मेरी याद के साथ...
तुम चाय पीना कब सीखोगी कहकर जो शक्कर बढ़ा देते थे न मेरी चाय में...वो मीठा जिन्दगी में घुला हुआ है.
बहुत सुन्दर
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