बरसों बरस चलते जाने से
पैरों में छाले उभर आये हैं
बिवाईयां चटखकर खाई बन गयी हैं
ये खाई सदियों पुरानी है
यह सूखी रोटी और पिज़्ज़ा के बीच की खाई है
ये एसी के बिना न रह पाने और
लाठियों से पिटकर भी जीने की आस में
चलते जाने की खाई है
ये 99 प्रतिशत नम्बरों की चिंता
और भूख से तड़पकर मर जाने वाले
बच्चों के बीच की खाई है
जानते हैं, लाठियां सिर्फ गरीब की पीठ पर पड़ने के लिए बनी हैं
लाठी खाकर भी मिले खाना तो बुरी नहीं लाठी
लेकिन सिर्फ लाठी खाकर
पानी पीकर सोना मुश्किल होता है
खुद भूखा रहना आसान होता है
बच्चों को भूख में देखना मुश्किल होता है
बरसात में टपकती, छप्पर वाली छत
और बिना दरवाजे के गुसलखाने वाले एक कोने को
घर कहना बुरा नहीं लगता
बुरा लगता है
उस घर तक पहुँच न पाना तब
जब सारे देश को घर पर रहने को हों निर्देश
जब विदेश में रहने वालों को
लौटा लाया गया हो अपने देश
हम बिदेश तो नहीं गए न साहब
हम तो आपकी सेवा में थे
हम ड्राइवर थे, धोबी थे, रसोइया थे
हम घर की साफ़ सफाई वाले थे
सडकें, गटर साफ़ करने वाले थे
इत्ती बड़ी बीमारी तक हमारी कहाँ थी पहुँच
कि हम तो भूख से ही मरते आ रहे हैं सदियों से
क्यों हम गरीबों की घर पहुँचने की इच्छा को
लाठी मिलती है
और चुपचाप जहाँ हैं वहीं रुक जाने की मजबूरी को
भूख, बेबसी और मौत...
रोना नहीं आता अब
कि आंसू सूख चुके हैं
नींद नहीं आती कि उसकी जगह नहीं बची आँखों में
वो अब पाँव में रहती है
कि पाँव बेहिस हैं चलते जाते हैं
भूख अब पेट में नहीं रहती
वो रहती है चैनलों में
एंकरों के मुंह से झाग उगलती नफरत में...
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteविचारोत्तेजक रचना
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 16.4.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3673 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बेबसी की यह कथा,भुखमरी और लाठी के बीच झूझते गरीबो की यह व्यथा आज कौन सुनने वाला है? चैनलों के एंकरों को बस भूख परोसना आता है सो कभी कभी परोसकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं पर अफ़सोस की ये एंकर,सरकार ए.सी.में बैठा हमारा समाज इनकी थालियों में रोटी पहुँचाने में असमर्थ है...पर क्यों?
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा आपने आदरणीया। सादर प्रणाम 🙏
सराहनीय, सामयिक प्रस्तुति !
ReplyDeleteपर सवाल भी खड़ा होता है कि वर्षों-वर्ष बीत गए पर हमने उनके लिए क्या किया ! सिर्फ दूसरों को दोष देने, व्यवस्था पर उंगली उठाने या अपनी रचनाओं में सहानुभूति दर्शाने के ! यह सच है कि एक अकेला सभी का दुःख दूर नहीं कर सकता ! पर सक्षम है तो दो-तीन को तो संभाल ही सकता है ! एक कदम उठाने की जरुरत है, साथ जरूर मिलेगा यह दावा है।
खुल कर दूसरों की बात सुनने के लिए Comment moderation का हटना जरुरी है
ReplyDeleteऔर बिना दरवाजे के गुसलखाने वाले एक कोने को
ReplyDeleteघर कहना बुरा नहीं लगता
बुरा लगता है
उस घर तक पहुँच न पाना तब
जब सारे देश को घर पर रहने को हों निर्देश
जब विदेश में रहने वालों को
लौटा लाया गया हो अपने देश
बहुत ही भावपूर्ण हृदयस्पर्शी सृजन।
बहुत अच्छी लिखी गयी |
ReplyDeleteस्वामी विवेकानंद के शब्दों में उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति ना हो जाये। ...
बहुत अच्छी लिखी गयी |
ReplyDeleteस्वामी विवेकानंद के शब्दों में उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति ना हो जाये। ...
'लोकतंत्र संवाद' मंच साहित्यिक पुस्तक-पुरस्कार योजना भाग-२ का परिणाम घोषित।
ReplyDeleteपरिणाम
अंतिम परिणाम
( नाम सुविधानुसार व्यवस्थित किये गये हैं। )
1. भूख अब पेट में नहीं रहती ( आदरणीया प्रतिभा कटियार )
२. वर्तमान परिप्रेक्ष्य : साहित्यकार की भूमिका! ( आदरणीया रेखा श्रीवास्तव )
३. अभी हरगिज न सौपेंगे सफ़ीना----------( आदरणीय राजेश कुमार राय )
४. एक दूजे का साथ देना होगा प्रांजुल कुमार/ बालकवि
नोट: इन सभी पुरस्कृत रचनाकारों को लोकतंत्र संवाद मंच की ओर से ढेर सारी शुभकामनाएं। आप सभी रचनाकारों को पुरस्कार स्वरूप पुस्तक साधारण डाक द्वारा शीघ्र-अतिशीघ्र प्रेषित कर दी जाएंगी। अतः पुरस्कार हेतु चयनित रचनाकार अपने डाक का पता पिनकोड सहित हमें निम्न पते ( dhruvsinghvns@gmail.com) ईमेल आईडी पर प्रेषित करें! अन्य रचनाकार निराश न हों और साहित्य-धर्म को निरंतर आगे बढ़ाते रहें।
मैं जब कोई रचना पढ़ता हूँ तो सोचता हूँ कि क्या लिखने वाले ने वाकई इस मुद्दे को अपने अंदर जिया है?
ReplyDeleteफिर सोचता हूँ कि क्या लिखते वक्त लिखने वाले के चहरे से तपते तवे की भांति आंच निकली होगी?
या यूँ ही tv के सामने बैठकर व्यक्तिगत संवेदना के बगैर वाले विचारों को संवेदना भरे शब्दों से मण्डित कर दिया।
ये जांच चलती है
अनेको बार ये रचना पढ़ी तब जाके कुछ लिखने जैसा मैं बन पाया।
जब लिखने वाला खुद विषय से जुड़ जाता है तो वो रचना वास्तविक बन पड़ती है। और विचारों की लयबद्धता से ये रचना हृदय को छूती ही नहीं वरन हृदय में घुसती है।
मानस पटल छपने जैसी रचना है।
लाज़वाब।