मुझे इन दिनों अपने आस पास कोई नजर नहीं आता, कोई महसूस भी नहीं होता. ज़रूरत भी नहीं महसूस होती. वो जो खाली केंद्र था अपनेपन की महक से भर गया है. बाहर कुछ भी नहीं, सब भीतर है. उस भीतर तक पहुँचने के लिए बाहर भटकते रहते हैं. सेहरा, पहाड़, दरिया पार करते हैं, लेकिन मिलता है वो किसी पेड़ के नीचे ही, एक चम्मच खीर खाकर या किसी कुटिया में झूठे बेर खाकर.
हम सबको झूठे बेरों की तलाश है. कोई इतने प्यार से चखकर रखे तो. कोई इतने प्यार से खीर बनाकर लाये तो. वो खीर की चाह थी जिसने खीर को ज्ञान का माध्यम चुना, वो चाह जिसे दुनिया भूख कहती है. हमें अपनी भूख तलाशनी है असल में. जिन चीज़ों के पीछे भाग रहे हैं, जिनके लिए जान दे रहे हैं वो हमारी भूख हैं ही नहीं. जो भूख है वहां हम पहुंचे ही नहीं. वहां पहुँचने की यात्रा ही जीवन है. मुझे मेरी भूख मालूम है. मुझे बारिश चाहिए (बेमौसम नहीं), मुझे ढेर धूप चाहिए, अंजुरी भर सर्दी चाहिए, अमलताश चाहिए, मोगरे का गजरा चाहिए, सामने मुस्कुराती जूही और हरसिंगार की गमक चाहिए.
मुझे इंतजार चाहिए...यही मेरी चाह है. मेरी इस चाह को परिंदे समझते हैं. तुम भी तो परिंदे ही हो...उड़ते उड़ते जा बैठे हो किसी और डाल पर. तुम कनखियों से देखते हो, मुस्कुराते हो, मैं पुकारती नहीं, तुम आते नहीं....दूर जाकर तुम ज्यादा करीब जो आ गये हो...मेरी शामों में मेरी सुबहों में तुम घुले हुए हो...डाल कोई भी हो तुम्हारी, दिल मेरे ही पास है जानती हूँ...
बारिश पंचम सुर में आलाप ले रही है, सुन रहे हो न तुम.
(इश्क़ शहर, लॉकडाउन डेज़)
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteघर मे ही रहिए, स्वस्थ रहें।
कोरोना से बचें।
भारतीय नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ।
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteघर मे ही रहिए, स्वस्थ रहें।
कोरोना से बचें।
भारतीय नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ।
सुन्दर रचना
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