मैं- होली कैसी रही?
मित्र- वैसी ही जैसी पिछले बरस हुई थी.
मैं- मतलब? फिर से?
मित्र- हाँ. लेकिन इस बार सास बहू की नहीं पति-पत्नी की लड़ाई हुई. यानी अम्मा और पिताजी की.
मैं- वो तो नार्मल बात है.
मित्र- हाँ, नार्मल ही है. अम्मा सूटकेस पैक करके मामा को फोन लगाईं कि ले जाओ हमको. मामा बोले कुछ दिन रुक जाओ अभी बिजी हैं.
मित्र- हँसते हुए. फिर यहीं मनी होली. रूठे-रूठे.
मैं- हम्म्म्म. कितना दुःख हुआ होगा अम्मा को.
मित्र- अरे नहीं. ये रोज का है उनका. जाएँगी कहाँ. खाली हूल देती हैं.
मैं- पापा ने भी कुछ नहीं कहा. मतलब रुकने को?
मित्र- पापा तो कहे, पहले इनको जाने दो तब खाना खायेंगे....
यह संवाद हुए कुछ दिन बीत गए हैं. जिस मित्र से संवाद हुआ वह सहज है. उसके पिता भी, पत्नी भी...मामा भी और भी सब लोग शायद. बस मैं ही सहज नहीं हूँ. लगता है अम्मा के कलेजे में अपमान का जो दंश चुभा होगा, वो सालता तो होगा. अम्मा पहले भी एक बार घर छोड़कर बेटे के साथ चली गयी थीं. तब छोटा बेटा था अविवाहित.अब वो बेटे के साथ ही रहती हैं. बेटे की बीवी यानी छोटी बहू से बनती नहीं. कई बार बातों में यह आ चुका है कि माँ बेचारी हो गयी हैं अब. उन्हें कौन रखेगा? इसलिए यहीं रहेंगी, बस इस बात को मानती नहीं हैं.सोचती हूँ क्या यह सिर्फ एक घर या रिश्ते की कहानी है? नहीं, यह स्त्रियों के अकेलेपन की असुरक्षा की कहानी है.
क्या इन्हीं दिनों के लिए रिश्ते बनाये जाते हैं? शादी की जाती है कि बुढ़ापे में एक-दूसरे के साथ रहेंगे. बच्चे पैदा किये जाते हैं कि बुढ़ापे में जब शरीर अशक्त होगा तो बच्चे देखभाल करेंगे. सिर्फ आश्रम में न छोड़ आना ही काफी नहीं, माँ-बाप को उनको सम्मान के साथ रखना भी जरूरी है. ओह रखना जरूरी है का क्या अर्थ हुआ भला, हमें उनके साथ रहना है यह बोध होना जरूरी है हमें भी तो. उनके भीतर की असुरक्षा को समझना, उसे अपने होने से भरना भी जरूरी है. उन्हें ऐसी स्थिति में पड़ने से बचाना भी जरूरी है जहाँ उनका अपमान होने की संभावना हो.
एक स्त्री का सच में अपना कोई घर नहीं होता. उम्र के किसी भी मोड पर उसे यह बात चुभ सकती है. घर की रजिस्ट्री उसके नाम हो तो भी. मुझे लगता है अम्मा को समझने की जिम्मेदारी छोटी बहू को ही लेनी चाहिए. इन पुरुषों को अभी बहुत वक़्त लगेगा अपने दायरों से निकलने में लेकिन हम स्त्रियों को देर नहीं करनी चाहिए.
मैं मित्र से बहुत दूर हूँ लेकिन बहुत जोर से रोना चाहती हूँ अम्मा के गले लगकर. पिता, पति, पुत्र, भाई कोई भी कहाँ दे पाया भरोसा कि जिस भी घर में वो रह रही हैं, जहाँ वो जाना चाहती हैं वो सब उनके ही घर हैं, उनका अधिकार है उन घरों पर. उन्हें कहीं क्यों जाना है छोड़कर...लेकिन क्या वो कभी कह पायीं कि तुम चले जाओ घर से, हाँ, ये सुना अलबत्ता कई बार उन्होंने.
मित्र को मेरी बात ज्यादा समझ नहीं आती. 'कुछ ज्यादा ही सोचती हो' कहकर वो हंस देता है. मुझे अम्मा ज्यादा मित्रवत लगती हैं. दुनिया की तमाम स्त्रियाँ अम्मा सी लगती हैं.
(अमृता शेरगिल की पेंटिंग गूगल से साभार )
मित्र- वैसी ही जैसी पिछले बरस हुई थी.
मैं- मतलब? फिर से?
मित्र- हाँ. लेकिन इस बार सास बहू की नहीं पति-पत्नी की लड़ाई हुई. यानी अम्मा और पिताजी की.
मैं- वो तो नार्मल बात है.
मित्र- हाँ, नार्मल ही है. अम्मा सूटकेस पैक करके मामा को फोन लगाईं कि ले जाओ हमको. मामा बोले कुछ दिन रुक जाओ अभी बिजी हैं.
मित्र- हँसते हुए. फिर यहीं मनी होली. रूठे-रूठे.
मैं- हम्म्म्म. कितना दुःख हुआ होगा अम्मा को.
मित्र- अरे नहीं. ये रोज का है उनका. जाएँगी कहाँ. खाली हूल देती हैं.
मैं- पापा ने भी कुछ नहीं कहा. मतलब रुकने को?
मित्र- पापा तो कहे, पहले इनको जाने दो तब खाना खायेंगे....
यह संवाद हुए कुछ दिन बीत गए हैं. जिस मित्र से संवाद हुआ वह सहज है. उसके पिता भी, पत्नी भी...मामा भी और भी सब लोग शायद. बस मैं ही सहज नहीं हूँ. लगता है अम्मा के कलेजे में अपमान का जो दंश चुभा होगा, वो सालता तो होगा. अम्मा पहले भी एक बार घर छोड़कर बेटे के साथ चली गयी थीं. तब छोटा बेटा था अविवाहित.अब वो बेटे के साथ ही रहती हैं. बेटे की बीवी यानी छोटी बहू से बनती नहीं. कई बार बातों में यह आ चुका है कि माँ बेचारी हो गयी हैं अब. उन्हें कौन रखेगा? इसलिए यहीं रहेंगी, बस इस बात को मानती नहीं हैं.सोचती हूँ क्या यह सिर्फ एक घर या रिश्ते की कहानी है? नहीं, यह स्त्रियों के अकेलेपन की असुरक्षा की कहानी है.
क्या इन्हीं दिनों के लिए रिश्ते बनाये जाते हैं? शादी की जाती है कि बुढ़ापे में एक-दूसरे के साथ रहेंगे. बच्चे पैदा किये जाते हैं कि बुढ़ापे में जब शरीर अशक्त होगा तो बच्चे देखभाल करेंगे. सिर्फ आश्रम में न छोड़ आना ही काफी नहीं, माँ-बाप को उनको सम्मान के साथ रखना भी जरूरी है. ओह रखना जरूरी है का क्या अर्थ हुआ भला, हमें उनके साथ रहना है यह बोध होना जरूरी है हमें भी तो. उनके भीतर की असुरक्षा को समझना, उसे अपने होने से भरना भी जरूरी है. उन्हें ऐसी स्थिति में पड़ने से बचाना भी जरूरी है जहाँ उनका अपमान होने की संभावना हो.
एक स्त्री का सच में अपना कोई घर नहीं होता. उम्र के किसी भी मोड पर उसे यह बात चुभ सकती है. घर की रजिस्ट्री उसके नाम हो तो भी. मुझे लगता है अम्मा को समझने की जिम्मेदारी छोटी बहू को ही लेनी चाहिए. इन पुरुषों को अभी बहुत वक़्त लगेगा अपने दायरों से निकलने में लेकिन हम स्त्रियों को देर नहीं करनी चाहिए.
मैं मित्र से बहुत दूर हूँ लेकिन बहुत जोर से रोना चाहती हूँ अम्मा के गले लगकर. पिता, पति, पुत्र, भाई कोई भी कहाँ दे पाया भरोसा कि जिस भी घर में वो रह रही हैं, जहाँ वो जाना चाहती हैं वो सब उनके ही घर हैं, उनका अधिकार है उन घरों पर. उन्हें कहीं क्यों जाना है छोड़कर...लेकिन क्या वो कभी कह पायीं कि तुम चले जाओ घर से, हाँ, ये सुना अलबत्ता कई बार उन्होंने.
मित्र को मेरी बात ज्यादा समझ नहीं आती. 'कुछ ज्यादा ही सोचती हो' कहकर वो हंस देता है. मुझे अम्मा ज्यादा मित्रवत लगती हैं. दुनिया की तमाम स्त्रियाँ अम्मा सी लगती हैं.
(अमृता शेरगिल की पेंटिंग गूगल से साभार )
सटीक रचना
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(१५-०३-२०२०) को शब्द-सृजन-१२ "भाईचारा"(चर्चा अंक -३६४१) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
**
अनीता सैनी
सुंदर लघु कथा ,सादर नमन
ReplyDelete