क्रिसमस की तैयारियों ने पूरे कारमोना को दुल्हन सा सजा रखा था. लेकिन इस धज में शोर नहीं था, शांति थी. किसी सजे हुए घर से गिटार पर बजती हुई धुन सुनकर रुक ही गये कदम, कहीं नारियल के पेड़ पर अटके चाँद से आँख लड़ा बैठे. ऐसी शांति अरसे बाद मिली थी. ऐसी बेफिक्री तो शायद पहली बार ही. लम्बे सफर की थकान और अधूरी नींदों का असर था या जिन्दगी की आपाधापियों से निजात का असर जल्द ही गहरी नींद ने जकड़ लिया. याद नहीं इतनी गहरी, बेफिक्र नींद आखिरी बार कब हिस्से आई थी. सुबह एकदम खिली हुई थी. सुबह मैं जल्दी से जल्दी समन्दर के पास जाने की हड़बड़ी में थी लेकिन अजय जी की नींद उन्हें छोड़ नहीं रही थी. वो विदेशी क्लाइंट्स के साथ डील करते हैं इसलिए उन्हें देर रात तक जागने की और सुबह देर तक सोने की आदत है यह वो बता चुके थे. उनकी बायोलॉजिकल क्लॉक विदेशों के हिसाब से सेट थी. मैंने उनसे इतना भर पूछा कि क्या मैं अकेली चली जाऊं? इस पूछने में कई तरह की हिचक, संकोच सब था लेकिन जिस सहजता से उन्होंने कहा, ‘इसमें पूछने की क्या बात है, तुम्हें जाना ही चाहिए.’ मैं खुश हो गयी और जल्दी से नाश्ता ठूंसकर समन्दर की ओर भागी. बीच तक ले जाने के लिए होटल की एक गाडी जाती थी मैने झट से उसमें जगह बना ली. मेरे बगल में एक जोड़ा बैठा था. लड़की बिकनी में थीं. लड़की सहज थी, मुझे सहज होने में दो मिनट लगे. हंसी भी आई खुद पर, कितना कुछ है टूटने को अपने भीतर, कितना कुछ बाकी है उगने को. मैं हर पल बदल रही थी. हर पल मुझे मुझमें कुछ नया होता महसूस हो रहा था. सबसे ज्यादा बदल रहा था सहज होना सीखना. जेंडर के पूर्वाग्रह से मुक्त होना. दोस्त सिर्फ दोस्त होता है वो स्त्री या पुरुष नहीं होता यह समझना. इन बातों को कहना आसान है, इन्हें विमर्श बनाना आसान है लेकिन जीना इतना भी आसान नहीं होता. कंडिशनिंग आड़े आती ही है कभी चेतन में कभी अवचेतन में. उस कंडिशनिंग का टूटना सुखद होता है.
सुबह का समन्दर रात के समन्दर से अलग होता है. बहुत अलग. अब मैं और समन्दर आमने-सामने थे. मुझे अब कहीं नहीं जाना था. समूची यात्रा जिस मुलाकात के लिए थी वो अब होने को थी. जालोर बीच शहर से दूर है, यहाँ ज्यादा भीड़ नहीं, बहुत कम टूरिस्ट हैं यहाँ वह भी तब जबकि क्रिसमस करीब है. मुझे ऐसी ही शांति तो चाहिए थी. नंगे पाँव गीली रेत पर चलते हुए मैं कहीं दूर निकलती जा रही थी. लहरों के बीच से होते हुए मैंने एक सिरे से दूसरे सिरे तक पैदल चलते जाना शुरू किया. रास्ते भर लहरें मुझसे खेलती रहीं, लुभाती रहें, ललचाती रहीं. टखने से घुटने तक घुटने से कमर तक और कमर से चेहरे तक आने में कहाँ वक्त लगा था उन्हें. जिस तेज़ बहाव से वो मेरी ओर आतीं भीतर से सीत्कारी सी फूटती. मेरी आँखें लगातार बह रही थीं. लहरें जिस दबाव के साथ जकड़ रही थीं वह कितना निर्मल कितना अद्भुत था. यही तो है प्रेम की जकडन जिससे छूटने को जी नहीं चाहता. मेरे कानों ने मेरे होंठों को कहते सुना, ’हाँ हाँ आई लव यू’. समन्दर के इसरार ने आखिर मेरा इकरार सुन ही लिया.
समन्दर के किनारे मछुवारों का संगीत बज रहा था और एक चिड़िया मेरी ही तरह लहरों के संग खेल रही थी. मैंने उस चिड़िया के खेल को कैमरे में कैद किया अपनी छाया समेत. वह चिड़िया मानो मैं ही थी और वह लहर भी मैं ही थी. और अंत में सारे मैं विलीन हो गये थे सिर्फ असीम शांति बची थी. यह अकेलापन इतना भरपूर था कि इसे जी लेने के बाद कोई इच्छा शेष नहीं रहती. पूरे बीच का चक्कर लगाने के बाद मैं लहरों के बीच धूनी जमाकर बैठ गयी थी. लहरें मुझे पूरा ढंक लेती थीं और दूर तक अपने साथ लिए चली जाती थीं. उस लम्हे में मैं कहाँ थी पता नहीं. वो लम्हे जिन्दगी थे, वो लम्हे सुख थे, वो लम्हे निर्वाण भी थे. इन्हीं लम्हों में जिन्दगी के वो तमाम झमेले जो हमें पूरी तरह जकड़े होते हैं बौने लगने लगते हैं. यही पल यात्रा का हासिल होते हैं.
समन्दर के किनारे मछुवारों का संगीत बज रहा था और एक चिड़िया मेरी ही तरह लहरों के संग खेल रही थी. मैंने उस चिड़िया के खेल को कैमरे में कैद किया अपनी छाया समेत. वह चिड़िया मानो मैं ही थी और वह लहर भी मैं ही थी. और अंत में सारे मैं विलीन हो गये थे सिर्फ असीम शांति बची थी. यह अकेलापन इतना भरपूर था कि इसे जी लेने के बाद कोई इच्छा शेष नहीं रहती. पूरे बीच का चक्कर लगाने के बाद मैं लहरों के बीच धूनी जमाकर बैठ गयी थी. लहरें मुझे पूरा ढंक लेती थीं और दूर तक अपने साथ लिए चली जाती थीं. उस लम्हे में मैं कहाँ थी पता नहीं. वो लम्हे जिन्दगी थे, वो लम्हे सुख थे, वो लम्हे निर्वाण भी थे. इन्हीं लम्हों में जिन्दगी के वो तमाम झमेले जो हमें पूरी तरह जकड़े होते हैं बौने लगने लगते हैं. यही पल यात्रा का हासिल होते हैं.
पूरे चार घंटे बीत चुके थे. होटल वापस ले जाने वाली गाडी जा चुकी थी. मैंने एक्टिवा की तलाश शुरू की जो काफी कोशिश करने के बाद भी नहीं ही मिली क्योंकि क्रिसमस के कारण सारी एक्टिवा बुक हो चुकी थीं. मेरे सामने सवाल यह था कि समन्दर में चार घंटे रहने के बाद की थकान के बाद 3 किलोमीटर पैदल चलकर कैसे जाऊं. गोवा में लिफ्ट लेकर चलने के बारे में खूब सुना था. आज मेरे सामने उस सुने हुए को आजमाने का मौका था. मैंने एक अनजान से लिफ्ट ली. उसकी एक्टिवा ने मुझे आधे रास्ते तक लिफ्ट दी. यह अनुभव भी काफी रोमांचक था. मुझे लगा जो सुना था वो मैं भी कर सकी. अच्छा लग रहा था. बाकी का आधा रास्ता मैंने पैदल तय किया. आखिर अपने कमरे तक पहुँच चुकी थी मैं. मुझे जोरों की भूख लगी थी. खाने के बाद मुझे भयंकर नींद ने जकड़ लिया. नींद खुली तो शाम के 5 बज रहे थे. फिर से समंदर पुकार रहा था, इस बार अजय जी भी साथ गए. उनके एजेंडे में मछली खाना था मेरे एजेंडे में था समन्दर में डुबकी लगाना जो सुबह बाकी रह गया था.
जारी...
जारी...
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-08-2019) को "बंसी की झंकार" (चर्चा अंक- 3437) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
रोमांचक हैं ये दृश्य। और प्रतिभा की दुनिया का समंदर भी।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर दृश्य और प्रस्तुति
ReplyDeleteसुंदर चित्र सुंदर प्रस्तुति।
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