फाइनली हम पणजी में थे. खिड़की का पर्दा हटाया तो सामने समन्दर मुस्कुराता मिला. जैसे वो मेरे सब्र का इम्तिहान ले रहा हो. शाम करीब थी और समन्दर सामने. मैं लहरों का उछाल देख पा रही थी, आवाज सुन पा रही थी बस हाथ बढ़ाने की देरी थी...लेकिन अभी हाथ बढ़ाने का वक़्त नहीं था कि गोवा ने जिस वजह से पुकारा था आज शाम तो उसी के नाम थी. कभी सोचा न था कि कोई कविता यूँ हाथ पकड़कर गोवा तक घुमाने ले आएगी. जबसे 'ओ अच्छी लड़कियों' को शुभा जी द्वारा संगीतबद्ध करने की बात सुनी थी तबसे शुभा जी के तमाम गीत साथ चलते रहते थे. एक ही बात मन में थी कि किस तरह वो इस कविता को संगीतबद्ध करेंगी भला. दूसरा उत्साह था शुभा जी और अनीश जी से मिलने का. मुझे नहीं मालूम कैसी मुलाकात होने वाली थी. एक मन हुआ चुपके से भीड़ में छुपकर बैठ जाऊं और होते देखूं सब कुछ. लेकिन यह मौका शायद कुछ और था. शाम के उत्सव में शामिल होने लिए हमने पैदल ही चलना चुना ताकि थोड़ा शहर भी तो देखें, उसे हैलो तो बोलें. एक तरफ कार्यक्रम का समय हो चला था दूसरी तरफ पेट में भूख गुडगुडा रही थी. मेरा मन हुआ कि भूख को इग्नोर कर दिया जाय लेकिन अजय जी इसके लिए तैयार नहीं थे. फाइनली हमने शॉर्ट कट वाली पेट पूजा की और उसके बाद पहुंचे कार्यक्रम की जगह. सच कहूँ तो यहाँ आने के पहले तक मुझे इस फेस्टिवल की ऊंचाइयों का पता नहीं था. यहाँ आकर देखा पूरा शहर सिरिंडपिटी आर्ट फेस्टिवल के पोस्टरों बैनर से पटा पड़ा था. अब मुझे थोड़ी घबराहट होने लगी थी. लेकिन ज्यादा देर घबराहट के रुकने को वक़्त नहीं मिला. गेट पर पहुँचते ही प्रेरणा लेने आ गयी. और पलक झपकते ही मैं शुभा मुदगल, अनीश प्रधान और उनकी टीम के साथ थी. शुभा जी मिलकर इतनी खुश हुईं उन्होंने तुरंत गले लगा लिया.अनीश जी ने बहुत विनम्रता के साथ स्वागत भी किया और शुक्रिया कहा इस कविता को लिखने के लिए. ऐसे मौकों पर कुछ समझ नहीं आता कि क्या कहूँ बस कि आँख भर आती है. शुभा जी और अनीश दोनों बहुत सहज, सरल लोग हैं. यह विनम्रता ही उनके संगीत को अलग आयाम देती होगी. हमारी मुलाकात ग्रीन रूम में हुई थी. कार्यक्रम शुरू होने को था और हम कार्यक्रम स्थल की ओर ले जाए गये.
यह गोवा की यादगार शाम थी. मुझे नहीं पता था कि इस बार गोवा मुझे सर पर चढ़ाने के लिए पुकार रहा था. मुझे नहीं पता था कि गोवा ने जिन्दगी को गले लगाने, तमाम बाधाओं को पार करने के एवज में यह शाम मुझे तोहफे में देने को बुलाया था. सामने भव्य स्टेज था और पीछे शानदार ऑडियंस. इन सबके बीच मैं भी थी. मैं भी...क्या यह मैं ही हूँ. सब कुछ बहुत तेज़ था. अनीश जी ने मुझे बोला था कि 'आपकी कविता हमें इतनी ज्यादा अच्छी लगी है कि हम कार्यक्रम को इसी कविता से क्लोज करेंगे. तो मन में इतनी राहत थी कि अभी थोड़ा वक़्त था दिल को संभाल लेने को. शुभा जी मेरे बगल में बैठी थीं और उनके बगल में अनीश. मेरे दूसरी तरफ अजय जी थे. ऐसे मौकों पर दोस्तों का साथ होना कितना मायने रखता है यह सिर्फ समझा जा सकता है.
कार्यक्रम शुरू हुआ और लगातार परवान चढ़ता गया. इस शाम के लिए कुछ हिंदी कविताओं को संगीतबद्ध करने को चुना गया था. केदारनाथ सिंह, नज़ीर अकबराबादी, मीराबाई ,पल्टूदास, शुभा मुदगल और प्रतिभा कटियार की कवितायेँ थीं ये. मैं एक एक कर कविताओं की खूबसूरत प्रस्तुती देखकर मुग्ध हो रही थी. यकीन नहीं हो रहा था कि इन कविताओं को ऐसे भी प्रस्तुत किया जा सकता है. शुभा जी बीच-बीच में पूछती जा रही थीं ठीक तो है न? और मैं उनके इस विनम्र सवाल के बदले सिर्फ सर हिला पा रही थी. इन कविताओं को स्वर दिया ओमकार पाटिल और प्रियंका बर्वे ने. दोनों की ऊर्जा देखते ही बनती थी, दोनों बेहद कमाल के आर्टिस्ट हैं. ओमकार तो ऐसे हैं कि वो मानो आते ही कहते हों, खबरदार जो ध्यान रत्ती भर भी इधर-उधर किया कि जब तक मैं हूँ मैं आपका पूरा ध्यान चुरा लूँगा और धीरे से दिल भी. ऑडियंस को बांधना उसे आता है. तमाम कविताओं के बीच जब उसने केदारनाथ सिंह की कविता 'भाई मैंने शाम बेच दी है' गई तो मैं एकदम से अलग ही दुनिया में चली गयी. इतनी बार पढ़ी थी यह कविता लेकिन आज इसे शुभा जी, अनीश जी और ओमकार के जानिब से सुनना कुछ अलग ही अनुभव था.
आखिर कार्यक्रम आखिरी कविता तक आ पहुंचा. यानी मेरी कविता 'ओ अच्छी लडकियों.' कविता शुरू होने से पहले अनीश जी और शुभा जी ने मेरी तरफ देखा और कहा 'उम्मीद है आपको पसंद आएगी.' स्टेज पर मेरा नाम लिया जा रहा था और मैं अपनी हथेलियाँ शुभा जी की हथेलियों में छुपाये बैठी थी. जैसे ही ओमकार ने कहा, प्रतिभा जी हमारे बीच मौजूद हैं, शुभा जी ने उत्साह में भरकर कहा, यहाँ हैं यहाँ हैं...और सारी तेज़ लाइट्स हम पर थीं. उफ्फ्फ. ऐसी चकाचौंध की आदत कहाँ हमें. घबरा से गये कुछ पल की. कविता शुरू हो चुकी थी..'ओ अच्छी लड़कियों तुम मुस्कुराहटों में समेट देती हो दुःख और ओढ़ लेती हो चुप्पी की चुनर...' काफी तेज़ संगीत में इसे ढाला गया था. कहाँ रुकना है, कहाँ ज्यादा रुकना है, कहाँ ऊंचा करना है स्वर ओमकार को सब पता था. मुझे लग रहा था क्या यह सच में मैं हूँ. देहरादून के किसी कोने में बहुत उलझे से मन और द्वंद्व के बीच जब लिख रही थी यह कविता तब कहाँ जानती थी कि इसे इतना प्यार मिलेगा. शुभा जी हथेलियों का दबाव मुझे कसता जा रहा था यह उनका प्यार था. शायद वो भी मेरी तरह संकोच में थीं.
कविता खत्म हुई...अँधेरे में अपने आँखों में भर आये समन्दर को संभालना आसान था. कार्यक्रम खत्म होते ही रौशनी ने हमें घेर लिया था. बधाइयों, फोटो खींचने, खिंचाने, लोगों से मिलने मिलाने के बीच गोवा की वह खूबसूरत शाम दिल में दर्ज हो गयी. शाम ने बीतते-बीतते अगले दिन की सुबह नाश्ते पर शुभा जी से आराम से मिलने, बतियाने का प्रस्ताव भी दे दिया.
हम एक बेहद खूबसूरत शाम को जीकर, समेटकर लौट रहे थे.
जारी....
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" शुक्रवार 16 अगस्त 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-08-2019) को " समाई हुई हैं इसी जिन्दगी में " (चर्चा अंक- 3430) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
बहुत सुन्दर प्रस्तुति. बहुत बधाई.
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