कब लिखना शुरू किया था याद नहीं लेकिन इतना याद है कि जब लिखना शुरू किया था तब लिखने के बारे में सोचा नहीं था. बस कोई हूक उठी थी जो सध नहीं रही थी. छोटी सी उम्र में दोस्त भी कम ही थे सो लिखने से ही दोस्ती भी गई. अब भी यह दोस्त ही है, इससे ज्यादा कुछ हो ऐसा कभी चाहा नहीं। वैसे दोस्त से बढ़कर क्या होता है भला. बस कि दोस्त हो और हर हाल में हो. जीवन के, मन के कैसे भी हों हालात दोस्त रहे साथ. लड़े, भिड़े, रूठ जाए फिर मना भी लाये। लिखना ऐसे ही रहा हमेशा. बिना किसी आकांक्षा के, लिखे से बिना किसी अलग तरह की कोई ख़्वाहिश जोड़े. बस नदी के किनारे पांव डालकर बैठने के सुख जैसा. जब कहानियां लिखीं तो पता नहीं था कि कहानी लिख रही हूँ, या जो लिख रही हूँ वो कहानी हो जाएगी। ऐसे ही कविताओं के साथ हुआ. पता नहीं चला कि कब क्या कैसे लिखा कब वो लिखा क्या बना और कब बनते- बनते रह गया. मेरे लिए उस वक़्त वैसा ही लिखा जाना जरूरी था जैसा वो लिखा गया. इसके इतर लिखने का प्रयास नहीं किया. चाहती हूँ यह लिखना ऐसे ही रहे जीवन में, सांस के जैसा। न इससे कम न इससे ज्यादा। न इससे ज्यादा की कोई अभिलाषा ही.
मुझे अपने लिखने में यह याराना बचाये रखना है. कि मुझे हर हाल में मेरा यह दोस्त मुझे संभाले रहे. बस इतना ही.
बना रहे लिखने से याराना। शुभकामनाएं।
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