जब मैं जीने की बात करती हूँ
तब असल में मैं
बात करती हूँ, अपने जीने की ही
मेरी जीने की बात करना
क्यों लगता है तुम्हें
मेरा तुम्हारे विरुद्ध होना
जब मैं हंसती हूँ खुलकर, खिलखिला कर
तब तुमसे कोई बैर नहीं होता मेरा
न मेरी हंसी होती है तुम्हें चुनौती देने के लिए
सदियों की उदासी से
मुक्त होने की ख्वाहिश भर है यह हंसी
मेरी यह हंसी क्यों लगती है तुम्हें
तुम्हारे विरोध में उठा कोई स्वर
जब मैं चलती हूँ तेज़ क़दमों से
तुमसे आगे निकलने की कोई होड़ नहीं होती
तुम्हारे साथ होने के सुख से
भरने की इच्छा होती है मन में
पीछे चलते हुए नहीं पाया मैंने साथ का सुख
शायद नहीं पाया तुमने भी
सांसों में 'जीवन' पाना चाहती हूँ
तुम्हारे साथ ही, तुम्हारे बिना नहीं
मेरे जीने की इच्छा से तुम डर क्यों जाते हो भला ?
वाह।
ReplyDeleteसटीक रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteकविताओं का ब्लॉग, पसंद आया. फॉलो करता रहूंगा.
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