सामने स्क्रीन पर क्या चल रहा था, क्या नहीं, पता नहीं लेकिन देह पर हरसिंगार झरते से महसूस हो रहे थे. बेहद कड़वे मन, कसैले समय में किसी फिल्म का रुख करना असल में खुद को निजात देने की कोशिश करने जैसा था. कुछ भी नहीं पता था फिल्म अक्टूबर के बारे में सिवाय शुजीत सरकार के. जैसा मेरा मन उलझा हुआ था वैसी ही उलझी हुई सी फिल्म शुरू हुई. फिल्म का मुख्य किरदार ('नायक' कहने का मन नहीं कर रहा कि शुजित ने उसे नायक की तरह गढ़ा भी नहीं है) भी उलझा हुआ ही दिखा. यूँ लगा परदे पर अपने भीतर की बेचैनी को देख रही हूँ. कौन सी बेचैनी, कैसी उलझन? पता नहीं.
वो उलझनें बहुत आसान होती हैं जिनके बारे में हम स्पष्ट होते हैं, जो सामने से दिखती हैं लेकिन उनका क्या जो खुद को ही समझ में नहीं आतीं. लेकिन हर वक्त परेशान करती रहती हैं, चैन से रहने नहीं देतीं. न दोस्त समझ पाते हैं, न घरवाले. कहाँ से समझेगा कोई जब खुद को ही कुछ समझ नहीं आता बस कि जो जैसा है, वैसा मंजूर नहीं होता. दीवार पर जोर से मुक्का मारने का जी चाहता है, बीच सड़क पर जोर से चिल्लाने का या तौलियों को जूतों से कुचलने का.
डैन (वरुण धवन) ऐसी ही उलझनों से गुजर रहा है. रोज डांट खाता है, हर काम में गलती करता है जिसका उसे कोई अफ़सोस नहीं. दोस्त उसका साथ तो देते हैं, समझ नहीं पाते. इन्हीं उलझनों के दरमियाँ जिन्दगी एक नया पन्ना खोलती है, बिलकुल अनपेक्षित. उसके साथ काम करने वाली उसकी सहयोगी (ठीक से दोस्त भी नहीं) एक भयानक एक्सीडेंट का शिकार हो जाती है और कोमा में चली जाती है.
अस्पताल, नर्स, डाक्टर, महंगे बिल, उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच की जंग और डैन. फिल्म बहुत धीरे-धीरे आगे बढती है बिलकुल उसी तरह जैसे सरकता है बुरा वक़्त धीरे-धीरे. व्यवहारिक होने न होने की तंग गलियों से गुजरते हुए, हर बात को लॉजिक के लेंस से देखने और न देखने के फासले को साफ़ करते हुए फिल्म जिन्दगी के बेहद करीब जाती नज़र आती है.
दुःख तब दुःख नहीं लगता जब आप उसे स्वीकार कर लेते हैं कि हाँ यह तो है फिर उससे लड़ते हैं प्यार से, दुश्मनी से नहीं. मुश्किल वक्त में भीतर की ताकत को समेटा कैसे जाता है, कैसे उसमें रंग भरे जाते हैं यह निर्देशक शुजीत सरकार और फिल्म की लेखिका जूही चतुर्वेदी ने सलीके से परदे पर रचा.
वरुण धवन के दीवानों को शायद इसमें उनका वरुण धवन न मिले लेकिन जो मिलेगा वो उन्हें हैरत में डाल देगा. वनिता संधू पहली फिल्म में ही दिल जीत लेती हैं और गीतांजली राव की अदाकारी भी आपका हाथ थाम लेती है. यह फिल्म दिल में उतरने वाली फिल्म है, बहुत धीरे-धीरे, जैसे उतरते हैं हरसिंगार के फूल शाखों से और जैसे घेरती है उनकी खुशबू. देर तक असर रहने वाला है फिल्म का. इसे देखते हुए रिल्के याद आते रहे, 'अगर तुम्हारे जीवन में अब तक जाने हुए दुःख से (वो अवसाद कहते हैं) बड़ा दुःख गुजर रहा है, तो तुम्हें परेशान नहीं होना चाहिए बल्कि जीवन का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि जीवन ने तुम्हें बिसारा नहीं है.'
कैमरे का काम यानी सिनेमेटोग्राफी, बैक ग्राउंड म्यूजिक, कम, छोटे और प्रभावी संवादों ने फिल्म को खास बनाया है. फिल्म सिनेमा हॉल में छूट नहीं जाती, साथ चली आती है न जाने कब तक साथ रहने को जैसे साथ चलती रहती है कोई कविता, किसी नदी की नमी, किसी पेंटिंग की लकीरें, उसके रंग.
यह अक्टूबर हर महीने में घुल जाएगा.
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ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (16-04-2018) को ) "कर्म हुए बाधित्य" (चर्चा अंक-2942) पर होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
I do not watch films now in theatres except for a few rare ones in TV much later but this one has a strange softness to it,like the song Theher Jaa.
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया पढ़ कर यह फ़िल्म देखने का मन कर रहा है।शुक्रिया।
ReplyDeleteअच्छा लिखा है आप ने । थोड़ा और लिखना था।
ReplyDeleteनिमंत्रण
ReplyDeleteविशेष : 'सोमवार' १६ अप्रैल २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक में ख्यातिप्राप्त वरिष्ठ प्रतिष्ठित साहित्यकार आदरणीया देवी नागरानी जी से आपका परिचय करवाने जा रहा है। अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
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