- प्रतिभा कटियार
अपनी स्मृतियों को रिवाइज करती हूं तो खुद को स्मृति के उस पहले पन्ने के सामने खड़ा पाती हूं, जिस पर मरीना ने लिखा था, मुलाकातें मुझे अच्छी नहीं लगतीं. माथे टकरा जाते हैं. जैसे दो दीवारें. मुलाकातें मेहराब होनी चाहिए. उस वक्त मेरी उम्र कोई दस या बारह वर्ष के आसपास रही होगी. और मरीना की ये पंक्तियां उसकी कविता की लाइनें भी नहीं थीं. लेकिन ये शब्द $जेहन में ठहर गये. इन्हीं का हाथ पकड़कर मैंने कविता की दुनिया में प्रवेश किया. कविता मुझे हमेशा लुभाती रही. इसके बाद देश और विदेश के न जाने कितने कवियों को पढ़ा. पाश, ब्रेख्त, नेरूदा, शिंर्बोस्का, शमशेर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, अज्ञेय, मुक्तिबोध, जाने कितने नाम आसपास मंडराते रहते हैं. कितनी कविताएं हैं, जो हमेशा साथ चलती रहती हैं.
कविताओं के संसार में विचरने और उससे बाहर आने के दौरान समय एक बात मैंने शिद्दत से महसूस की कि कविता कहां है और कहां नहीं यह सवाल अब तक अनुत्तरित ही है. मैंने कई बार कविता को वहां पाया, जहां उसके होने की उम्मीद नहीं थी. मसलन कभी किसी की बात में, कभी किसी मुलाकात में, फिल्म के किसी डॉयलॉग में, किसी कहानी के एक अंश में, तेज धूप में नंगे पांव भागती जाती स्त्री के आंचल में छुपे एक मासूम की मुस्कुराहट में. इसके उलट कई बार कविता वहां नहीं भी मिली, जहां इसकी तलाश थी. मसलन किसी के कविता संग्रह में, किसी कवि गोष्ठी में, कविता के किसी ब्लॉग पर. यह अजीब सा इत्तफाक अब तक लगातार उपस्थित या अनुपस्थित होता रहता है. इसी बीच ऐसा भी होता है कि कोई सुंदर कविता न$जर से गुजरती है और दिल और दिमाग में हमेशा के लिए ठहर जाती है.
मेरे लिए कविता गहरी संवेदना से उपजी ऐसी अभिव्यक्ति है जो आगे बढ़कर पढऩे वाले की अनुभूतियों को गले लगा लेती है. उसे उद्वेलित करती है, कभी-कभी तो शांत भी करती है. उसे प्यार करती है तो उसके साथ सदा के लिए जज़्ब हो जाती है. पाठक चाहकर भी उस कविता से पीछा नहीं छुड़ा पाता फिर कविता का आकार कवि से बड़ा हो जाता है.
समकालीन दौर में कविता के सम्मुख मुझे सबसे बड़ी चुनौती यही लगती है कि कविता को जहां होना चाहिए वो अक्सर वहां नहीं होती. अखबारों में काम करते हुए साहित्य पेज की जिम्मेदारी निभाते हुए कविताओं के ढेर में खुद को खूब धंसा हुआ पाया है. लेकिन उस ढेर में अक्सर कविताएं नहीं होती थीं. यही कारण था कि कविता प्रेमी होने के बावजूद एक समय में कविता के नाम से खौफ़ खाने लगी थी. आज भी कमोबेश वैसे ही हालात हैं. ढेरों ब्लॉग्स हैं, पत्रिकाएं हैं, रचनाधर्मिता अपने चरम पर है लेकिन कविता कहां है? कहां है वो कविता जो अपने समय को, समाज को रेखांकित करती है. कहां है वो कविता जो हमारा हाथ पकड़कर कहती है, हम हैं ना. वो कविता कहां है जिसकी उंगली पकड़कर हम अवसाद की लंबी यात्रा से विराम पायें. ऐसा नहीं है कि ऐसी कविताएं नहीं हैं लेकिन बहुत कम हैं.
कविता की फॉर्म या टेक्नीक को लेकर मेरा कोई आग्रह कभी नहीं रहा. छंदबद्ध हो या न हो, वो गद्य शैली में हो या पद्य शैली में, उसके संग कितने भी प्रयोग किये गये हों लेकिन उसमें एक अनुभूति हो और इतनी सामथ्र्य हो कि वो अपने रस को खोये बगैर अपने भीतर विचार को पल्लवित होने दे और पाठक से एकाकार हो सके. उसके भीतर प्रवेश करने के लिए पाठक को मशक्कत न करनी पड़े.
मशक्कत, यह शब्द आजकल कविताओं से संग काफी जुड़ा हुआ पाती हूं. अक्सर अपने साथियों से सुना है. जो कविता के खांटी पाठक नहीं हैं, कहते हैं कि यार कविता समझ में नहीं आती. उन्हें जब कविता को खोलकर समझाया तो उन्हें आनंद आया. तो नई कविता को अपने भीतर थोड़ा सा सहज भाव लाने की जरूरत मुझे महसूस होती है. दुरूहता, जटिलता और बोझिलता कविता के रस को कम न कर दें. कविता का अंतिम शरण्य तो पाठक ही है ना अगर वो उस तक ही नहीं पहुंच रही है तो कुछ तो सोचना होगा.
अब सवाल पाठक का है तो पाठक की चिंता कोई कवि क्यों करे. कविता लिखते वक्त कवि किसी के बारे में नहीं सोचता. वो एक गहन पीड़ा से गुजर रहा होता है. उससे मुक्ति का उसके पास एक ही रास्ता होता है कविता. न वो पाठकों के बारे में सोचता है, न संपादकों के बारे में वो बस अपनी पीड़ा से मुक्ति पाने के बारे में सोचता है. उस वक्त कविता की टेक्नीक, उसे कैसा होना चाहिए, कैसा नहीं होना चाहिए इस बारे में सोचने की फिक्र नहीं होती. ऐसे में वो भला पाठक के बारे में क्योंकर सोचे.
मेरे लिए कविता गहरी संवेदना से उपजी ऐसी अभिव्यक्ति है जो आगे बढ़कर पढऩे वाले की अनुभूतियों को गले लगा लेती है. उसे उद्वेलित करती है, कभी-कभी तो शांत भी करती है. उसे प्यार करती है तो उसके साथ सदा के लिए जज़्ब हो जाती है. पाठक चाहकर भी उस कविता से पीछा नहीं छुड़ा पाता फिर कविता का आकार कवि से बड़ा हो जाता है.
समकालीन दौर में कविता के सम्मुख मुझे सबसे बड़ी चुनौती यही लगती है कि कविता को जहां होना चाहिए वो अक्सर वहां नहीं होती. अखबारों में काम करते हुए साहित्य पेज की जिम्मेदारी निभाते हुए कविताओं के ढेर में खुद को खूब धंसा हुआ पाया है. लेकिन उस ढेर में अक्सर कविताएं नहीं होती थीं. यही कारण था कि कविता प्रेमी होने के बावजूद एक समय में कविता के नाम से खौफ़ खाने लगी थी. आज भी कमोबेश वैसे ही हालात हैं. ढेरों ब्लॉग्स हैं, पत्रिकाएं हैं, रचनाधर्मिता अपने चरम पर है लेकिन कविता कहां है? कहां है वो कविता जो अपने समय को, समाज को रेखांकित करती है. कहां है वो कविता जो हमारा हाथ पकड़कर कहती है, हम हैं ना. वो कविता कहां है जिसकी उंगली पकड़कर हम अवसाद की लंबी यात्रा से विराम पायें. ऐसा नहीं है कि ऐसी कविताएं नहीं हैं लेकिन बहुत कम हैं.
कविता की फॉर्म या टेक्नीक को लेकर मेरा कोई आग्रह कभी नहीं रहा. छंदबद्ध हो या न हो, वो गद्य शैली में हो या पद्य शैली में, उसके संग कितने भी प्रयोग किये गये हों लेकिन उसमें एक अनुभूति हो और इतनी सामथ्र्य हो कि वो अपने रस को खोये बगैर अपने भीतर विचार को पल्लवित होने दे और पाठक से एकाकार हो सके. उसके भीतर प्रवेश करने के लिए पाठक को मशक्कत न करनी पड़े.
मशक्कत, यह शब्द आजकल कविताओं से संग काफी जुड़ा हुआ पाती हूं. अक्सर अपने साथियों से सुना है. जो कविता के खांटी पाठक नहीं हैं, कहते हैं कि यार कविता समझ में नहीं आती. उन्हें जब कविता को खोलकर समझाया तो उन्हें आनंद आया. तो नई कविता को अपने भीतर थोड़ा सा सहज भाव लाने की जरूरत मुझे महसूस होती है. दुरूहता, जटिलता और बोझिलता कविता के रस को कम न कर दें. कविता का अंतिम शरण्य तो पाठक ही है ना अगर वो उस तक ही नहीं पहुंच रही है तो कुछ तो सोचना होगा.
अब सवाल पाठक का है तो पाठक की चिंता कोई कवि क्यों करे. कविता लिखते वक्त कवि किसी के बारे में नहीं सोचता. वो एक गहन पीड़ा से गुजर रहा होता है. उससे मुक्ति का उसके पास एक ही रास्ता होता है कविता. न वो पाठकों के बारे में सोचता है, न संपादकों के बारे में वो बस अपनी पीड़ा से मुक्ति पाने के बारे में सोचता है. उस वक्त कविता की टेक्नीक, उसे कैसा होना चाहिए, कैसा नहीं होना चाहिए इस बारे में सोचने की फिक्र नहीं होती. ऐसे में वो भला पाठक के बारे में क्योंकर सोचे.
एक पुल चाहिए- कवि की अपनी सीमाएं हैं और पाठक की अपनी. लेकिन दोनों की सीमाओं के बीच एक पुल की दरकार होती है. जो उन दोनों को करीब लाती है. कविता भी है और उसके पाठक भी लेकिन उन दोनों का संयोग करने वाले पुल अक्सर जर्जर पाये जा रहे हैं. इन पुलों में साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं, संग्रहों के अलावा भी कुछ चीजें शामिल होने की जरूरत है. पिछले दिनों मैंने थियेटर एप्रिसिएशन और फिल्म एप्रिसिएशन कोर्स के बारे में सुना. तभी यह ख्याल आया कि ऐसा ही कुछ कविता के बारे में क्यों नहीं होना चाहिए. पाठक तक पहुंचने की सारी यात्रा कवि ही क्यों तय करे, कुछ यात्रा तो पाठक को भी तय करनी चाहिए. अपनी समझ, सामथ्र्य को परिष्कृत और सुदृढ़ करते हुए कविता की ओर प्रस्थान करने के लिए.
विचार, प्रतिबद्धता, शुद्धता, सामाजिक परिवर्तन में कविता की भूमिका जैसे सवालों से बहुत दूर होता है कवि मन जब वो कविता लिख रहा होता. किसी श्रेणी का ख्य़ाल रखकर कविता नहीं लिखी जाती. हां, लिखे जाने के बाद वो किस श्रेणी में आती है, यह अलग बात है. कविता लिखना शब्दों से खेलना नहीं है. सुंदर शब्दों में भावों को उड़ेलना भर नहीं है, पूरे समय, समाज से जुडऩा है. कवि की प्रतिबद्धताएं, समझ, दृष्टि, संवेदना जितनी सक्रिय होती है कविता अपने आप उसी दिशा में जाती है. ये श्रेणियां हैं तो बहुत महत्वपूर्ण लेकिन कवि को इनसे निरपेक्ष होकर ही रहना चाहिए. क्योंकि तीव्र अनुभूति वाली प्रेम कविताओं में ऐसे राजनैतिक और सामाजिक सरोकारों को जज्ब होते भी देखा है जो राजनैतिक और तथाकथित प्रतिबद्ध कविताओं में नहीं दिखता. कविता अपने मूल में जितनी सहजता से सामने आती है वही ठीक है.
जहां तक सामाजिक सरोकारों की बात है तो मन में हमेशा से यह सवाल रहा कि हमारे यहां कब किस कवि को उसकी कविता के चलते जेल में डाला गया. कब किस कविता को प्रतिबंधित किया गया. कविता पूरे वेग के साथ बिना किसी की परवाह के अपने समय की जटिलताओं के खिलाफ खड़ी होती है . मुझे व्यक्तिगत तौर पर ऐसी कविताओं की तलाश हमेशा रहती है जो पढऩे वालों की आत्मा पर चोट करे. जिसका असर सदियों तक बना रहे. बनावटी प्रतिबद्धता, बनावटी सरोकार कविता की कलई अपने आप खोल देते हैं. कवि को लगता है कि उसने तो कमाल कर दिया था लेकिन असल में कमाल हो नहीं पाता. यानी कविता लिखने से पहले कवि का आत्मिक और वैचारिक शुद्धिकरण (माफ़ कीजिए ये काफी दक्षिणपंथी शब्द है फिर भी जरूरी है). उसकी समझ का साफ होना बहुत जरूरी है. क्योंकि उलझी हुई समझ से लिखा गया कहां ठहरेगा? ये हम सब जानते हैं. पानी के बुलबुले से उठेंगे फिर गुम हो जायेंगे और हम रोते रह जायेंगे कि मेरी कविता को पहचान नहीं मिली. यही है आज की कविता के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है. एक अच्छी रचना को साधुवाद देना जितना जरूरी है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी है एक बुरी रचना की आलोचना करना. आलोचना की आज के दौर में सख्त जरूरत है. तीखी आलोचना. जो कविता की दुनिया में उग आये कूड़ा-करकट को साफ करे और सुंदर कविताओं का रास्ता साफ करे. आलोचनाएं निष्कपट होनी चाहिए और उन्हें पूरी सहदयता के साथ स्वीकार किया जाना चाहिए.
विचार, प्रतिबद्धता, शुद्धता, सामाजिक परिवर्तन में कविता की भूमिका जैसे सवालों से बहुत दूर होता है कवि मन जब वो कविता लिख रहा होता. किसी श्रेणी का ख्य़ाल रखकर कविता नहीं लिखी जाती. हां, लिखे जाने के बाद वो किस श्रेणी में आती है, यह अलग बात है. कविता लिखना शब्दों से खेलना नहीं है. सुंदर शब्दों में भावों को उड़ेलना भर नहीं है, पूरे समय, समाज से जुडऩा है. कवि की प्रतिबद्धताएं, समझ, दृष्टि, संवेदना जितनी सक्रिय होती है कविता अपने आप उसी दिशा में जाती है. ये श्रेणियां हैं तो बहुत महत्वपूर्ण लेकिन कवि को इनसे निरपेक्ष होकर ही रहना चाहिए. क्योंकि तीव्र अनुभूति वाली प्रेम कविताओं में ऐसे राजनैतिक और सामाजिक सरोकारों को जज्ब होते भी देखा है जो राजनैतिक और तथाकथित प्रतिबद्ध कविताओं में नहीं दिखता. कविता अपने मूल में जितनी सहजता से सामने आती है वही ठीक है.
जहां तक सामाजिक सरोकारों की बात है तो मन में हमेशा से यह सवाल रहा कि हमारे यहां कब किस कवि को उसकी कविता के चलते जेल में डाला गया. कब किस कविता को प्रतिबंधित किया गया. कविता पूरे वेग के साथ बिना किसी की परवाह के अपने समय की जटिलताओं के खिलाफ खड़ी होती है . मुझे व्यक्तिगत तौर पर ऐसी कविताओं की तलाश हमेशा रहती है जो पढऩे वालों की आत्मा पर चोट करे. जिसका असर सदियों तक बना रहे. बनावटी प्रतिबद्धता, बनावटी सरोकार कविता की कलई अपने आप खोल देते हैं. कवि को लगता है कि उसने तो कमाल कर दिया था लेकिन असल में कमाल हो नहीं पाता. यानी कविता लिखने से पहले कवि का आत्मिक और वैचारिक शुद्धिकरण (माफ़ कीजिए ये काफी दक्षिणपंथी शब्द है फिर भी जरूरी है). उसकी समझ का साफ होना बहुत जरूरी है. क्योंकि उलझी हुई समझ से लिखा गया कहां ठहरेगा? ये हम सब जानते हैं. पानी के बुलबुले से उठेंगे फिर गुम हो जायेंगे और हम रोते रह जायेंगे कि मेरी कविता को पहचान नहीं मिली. यही है आज की कविता के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है. एक अच्छी रचना को साधुवाद देना जितना जरूरी है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी है एक बुरी रचना की आलोचना करना. आलोचना की आज के दौर में सख्त जरूरत है. तीखी आलोचना. जो कविता की दुनिया में उग आये कूड़ा-करकट को साफ करे और सुंदर कविताओं का रास्ता साफ करे. आलोचनाएं निष्कपट होनी चाहिए और उन्हें पूरी सहदयता के साथ स्वीकार किया जाना चाहिए.
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ReplyDeletemy new iphone 4! Just wanted to say I love reading through your blog and look forward to all your posts!
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पठनीय
ReplyDeletehttps://mahoday.blogspot.in/
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २६ मार्च २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आपकी रचना लिंक की गई इसका अर्थ है कि आपकी रचना 'रचनाधर्मिता' के उन सभी मानदण्डों को पूर्ण करती है जिससे साहित्यसमाज और पल्लवित व पुष्पित हो रहा है। अतः आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
ReplyDeleteटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
बहुत उम्दा
ReplyDeleteप्रिय रचनाकार,
ReplyDeleteमेरे भीतर आपके शब्दों की स्वर लहरियाँ बजती हैं। उनके हाव भाव, उन शब्दों की स्पष्ट आवाज़े गूँजती हैं कानों में मेरे । उन्हें जज़्ब कर के , अगली रचना के इंतज़ार में बैठता हूँ। वो रचनाएं जो मुझसे संवाद करती हैं, मैं उन शब्दों के भीतर की कशिश महसूस कर सकता हूँ। पढ़ी जा चुकी रचना और आने वाली रचना के बीच का समय उन्ही पढ़ी जा चुकी रचना के रंग में रहता है।
नई रचना अवाक कर देती है नए रंग लाकर । बेहद संतुलन बना के चलना पड़ता है, इन ऊँचें नीचे टेढ़े मेढ़े रास्तों पर चलते वक़्त। न जाने कौन सा हवा का झोंका उड़ा दे उदासियों की परतों को। इतनी उम्मीदें जगती हैं इन शब्दों से, इतनी ऊर्जा मिलती है कि मन कहता है प्रेम से खूबसूरत तो दुनिया की कोई शै, है ही नही। मैं उन पंक्तियों के आखीर को जरूर देखता हूँ, उनमें लिखा होता है "प्रेम में खिलना"। उन पंक्तियों को लेकर मैं भागता हूँ नई नई जगहों पर।
विस्तार के संकुचन से आहत सभ्यताएं मिलती हैं। जिये के निशान नही मिलते। कोई कुछ भी महसूस नही कर पा रहा है। जिस धरती के गुरुत्वाकर्षण से उनमें भार की अनुभूति जगी होगी, जिस आसमान से उन्हें छत का आभास हुआ होगा, जिस पानी, हवा, प्रकृति के स्पर्श से जीवन के संकेत मिले होंगे...वो सब उनके जीवन में अब नही दिखते। मै शब्दों की जैविक खाद डाल देता हूँ उनकी जड़ों में, फिर भागता हूँ अपने ठीये पर । एक नई रचना, एक नया राग, प्रेम में बुझी हुई कहानी, टूटते हुए तारों के रूमान से भरी आकाशगंगा भर देती है मुझे प्रेम के संसार से। मुझे शब्द मुक्त करते हैं, बंधनों से, दुनियावी झंझावातों से, जमा पुंजियों से, भविष्य के खतरों से।
"प्रेम में खिलना" का अर्थ क्या सही पढ़ पाया हूँ मैं ? या प्रेम का लिखा जाना अभी बाकी है ?
एक पाठक
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ReplyDeleteThe account helped me a acceptable deal. I had been tiny bit acquainted of this your broadcast offered bright clear idea
aap bahut zyada khoobsoorat likhti hain. :)
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक रचना।
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक रचना,
ReplyDeleteमेरे लिए कविता गहरी संवेदना से उपजी ऐसी अभिव्यक्ति है जो आगे बढ़कर पढऩे वाले की अनुभूतियों को गले लगा लेती है. उसे उद्वेलित करती है, कभी-कभी तो शांत भी करती है. उसे प्यार करती है तो उसके साथ सदा के लिए जज़्ब हो जाती है. पाठक चाहकर भी उस कविता से पीछा नहीं छुड़ा पाता फिर कविता का आकार कवि से बड़ा हो जाता है.