ये झर जाने के दिन हैं इसलिए खूब झर रही हूँ. झर झर झर. पूरी तरह से झर जाना चाहती हूँ. सांस सांस झर जाना चाहती हूँ. देह से झरती इक इक साँस को झरते हुए देख रही हूँ. ठीक उसी तरह जैसे देखती हूँ पेड़ों से गिरते पत्तों को. झरना दुःख नहीं है, पूरा होना है. लम्हों का पूरा होना, साँसों का पूरा होना. स्वाभाविक जो भी है सुख है, झरना भी, उगना भी. प्रेम भी, विरह भी. जीवन भी, मृत्यु भी.
मैंने मृत्यु को कई बार अपने आसपास देखा है, स्पर्श किया है. देह की मृत्यु को भी और देह में मृत्यु को भी. कई बार लगता है मैंने चखा है मृत्यु को, मेरी जिह्वा पर स्वाद है मृत्यु का और वो बुरा नहीं है. यह अवसाद नहीं है, यह जीवन है. जीवन में होना है, जीवन की इच्छा का होना है. बहुत सारा जीने की ख्वाहिश है ये.
झील के किनारे की वो रात याद आ रही है जब सिगरेट के धुएं के बीच एक जोर से आई सिसकी को जिगरी दोस्तों से छुपा लिया था. समन्दर किनारे की वो रात भी याद आ रही है जब सारी रात लहरों को काटते हुए काट रहे थे दुःख और बेवजह के ठहाकों में खुद को छुपा रहे थे. उन लहरों में खुद को बहा आये थे, उन बेवजह के ठहाकों में जीने की इच्छा को बचा लाये थे.
मृत्यु में कोई दुःख नहीं है जीवन में है. जीवन जिए बिना मरने को तैयार नहीं हूँ. हालाँकि इस युध्ध में मरती हूँ रोज ही. देह की मृत्यु के अपने मायने हैं. उनमें कुछ दुःख भी हैं, कुछ बेबसी भी. उन दोस्तों को याद करती हूँ जो देह से मुक्त हुए. कमल जोशी की वॉल पर रोज ही जाती हूँ, मनोज पटेल को पढ़ते-पढ़ते ही सो जाती हूँ अक्सर. और भी कुछ दोस्त हैं जो चुपके से चले गए. किसी दिन मैं भी चली जाऊंगी. बिना किसी को कुछ भी बताए. बस कि सैलाब से डर लगता है. पीछे से उठने वाले शोर से डर लगता है, रूदन की वीभत्सता डराती है बहुत.
मृत्यु जब शांति है तो मृत्यु के बाद इतना कोहराम क्यों...देह की मृत्यु पर ही कोहराम क्यों? जीते जी मरते हुए लोग आस पास होते हैं हम उन्हें देखते भी नहीं.
मुझे न ये दुनिया कभी समझ आती है, न ये ही लगा कि दुनिया को मैं समझ आती हूँ. बस कि बिना जिए मरने को जी नहीं करता इसलिए हर लम्हे को पूरी शिद्दत से जीती हूँ. हालाँकि रोज ही देखती हूँ एक एक कर हाथेलियों से झरती लकीरों को...एक रोज झर जायेंगी सारी लकीरें, फिर उगेगा कुछ नया.
झर रहा है झर झर झर मौसम
पत्ते ही नहीं झर रहे पेड़ों से
जिए जा चुके लम्हे झर रहे हैं
कुछ बिना जिए लम्हे भी
देखा देखी आतुर हैं झरने को
जी जा चुकी साँसे झर रही हैं
उम्मीदों की शाख पर अटकी
पीली पड़ चुकी आखिरी पत्ती
झर सकती है किसी भी वक़्त
चांदनी झर रही है बेवजह बेपनाह
जीवन का मुसाफ़िर चल रहा है लगातार
झर रही हैं दूरियां
एक दुःख है जो झरा नहीं पूरा
मोहब्बत की आखिरी लकीर
अभी अटकी है हथेलियों में
उसी में अटकी हैं आखिरी साँसे
मृत्यु नहीं है हालाँकि देह का झरना.
सही कहा
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (19-03-2018) को ) "भारतीय नव वर्ष नव सम्वत्सर 2075" (चर्चा अंक-2914) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
ब्लॉग बुलेटिन टीम की ओर से आप सभी को नव संवत्सर और नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं। विक्रम संवत 2075 आप सबके जीवन में सुख, समृद्धि और अच्छा स्वास्थ्य लेकर आये यही हमारी कामना है।
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, नव संवत्सर और नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
sundar abhivyakti
ReplyDeleteआदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' १९ मार्च २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
ReplyDeleteटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
निमंत्रण
विशेष : 'सोमवार' १९ मार्च २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने सोमवारीय साप्ताहिक अंक में आदरणीया 'पुष्पा' मेहरा और आदरणीया 'विभारानी' श्रीवास्तव जी से आपका परिचय करवाने जा रहा है।
अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
ये झर जाना कई बार बेहद तोड़ता है, जैसे आपके सामने एक पत्ता सूख हुआ और किसी ने उसे हथेलियों में दबा चूर-चूर कर दिया। आप न हंस सकते है न रो सकते हैं।
ReplyDeleteमुझे भी ऐसा ही लगता है जो आपने यहाँ शब्दों में ढाला है।