Sunday, January 21, 2018

मुन्नार की पुकार और जीने की तलब


जीवन से जैसे-जैसे नमी की कमी होती जाती है सपने में नदियों, झरनों, समन्दर, बारिश की आवाजाही बढ़ जाती है. पिछ्ला पूरा बरस सपने में बारिशों का बरस रहा. आँख खुलती तो एक लम्हे की फुर्सत का मुंह ताकते भागती फिरती. आंखें मूंदती तो कोई नदी पुकार लेती. यह नदी, जंगल, झरने या समन्दर और रास्तों की पुकार न होती तो जीवन कितना उदास बीतता. छोटे बच्चे जिस तरह माँ के आंचल को हथेलियों में दबाकर सोते हैं उसी तरह इन पुकारों को मुठ्ठियों में भींचकर सो जाती. इस सोने में सुख था. यह पुकार असल में यात्राओं की पुकार थी. जिन्दगी के सबसे मुश्किल दिनों में यात्राओं ने हाथ थामा था. पीठ सहलाई थी. रास्तों ने प्यार किया था, मौसमों ने कलेजे से लगाया था. भीतर की तमाम जद्दोजहद, उतार चढ़ाव, उलझनों को यात्राओं में पिघलते देखा है, महसूस किया है. यात्राओं ने सारी अकराहटों, टकराहटों को धो सोखकर, धो पोंछकर, ताजा और ऊर्जावान बनाकर वापस भेजा फिर से जिन्दगी से जूझने को. मेरा तजुर्बा कहें या ढब कि जिन्दगी से जूझे बगैर जिन्दगी हाथ नहीं आती और इसके लिए बहुत ताकत चाहिए. यह बात कि यह ताकत यात्राओं से मिलती है सबसे पहले बताई थी मेरी प्यारी दोस्त निधि सक्सेना ने. उसका यात्रा संस्मरण पढ़ते हुए हूक उठी थी बस निकल पड़ने की. बस इस हूक का उठाना ज़रूरी था. इसके बाद इस हूक को सहेजना.

यह अजीब बात है कि मेरी यात्राओं से दोस्ती तब हुई जब जिन्दगी से कट्टी हुई. लेकिन धीरे-धीरे यह बदला भी कि जिन्दगी से कट्टी हुए बगैर भी यात्राओं से दोस्ती बनी रही. 

हरा और पानी मेरी कमजोरी है. एक तिनका हरा देखकर जो जो बावली हो जाती हो अगर उसे हरे का समन्दर मिल जाए तो उसकी हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है. हैवलॉक, कश्मीर, लन्दन, स्कॉटलैंड सब मुझे मंत्रमुग्ध करता रहा. उत्तराखंड के हरे ने, यहाँ की बारिशों ने तो हाथ थामकर रोक ही लिया है. 

कई सालों से मुन्नार का हरा आकर्षित करता रहा है. मुन्नार एक पुकार बनकर भीतर बसा हुआ है बरसों से. किन्ही बेहद दर्दमंद दिनों में, उदासी के लिहाफ दुबके हुए मुन्नार की टिकट करा ली. जिन्दगी ने हंसकर कहा, जाने नहीं दूँगी, कि हजार मुश्किलें जाने से ठीक पहले. लेकिन उस ख्वाब की पुकार और सामने रखी टिकट हौसला बनाये रहे. मैंने जिन्दगी से कहा, 'लड़ मत, तुझसे वहीँ मिलूंगी, मुन्नार के हरे समन्दर, झरनों के बीच, 
आज यात्रा का आरम्भ है हालाँकि मैं जानती हूँ कि अपने भीतर तो मैं बरसों से इस यात्रा में हूँ. पिछली यात्रा लंदन की थी कोई डेढ़ बरस पहले. उसके बाद अब निकलना है. ऐसा नहीं कि इस बीच कहीं जाना नहीं हुआ. बल्कि पिछला बरस तो भागते ही बीता, बैंगलोर, हैदराबाद, रायपुर, भोपाल ,जयपुर दिल्ली लखनऊ की तो बात ही नहीं. लेकिन कहीं जाना यात्रा में होना नहीं होता शायद, यात्रा पर निकलने से पहले, सामान पैक करते हुए खुद को अनपैक करना ज़रूरी होता है. तमाम मसायलों को ब्रेक देना. जेहन को खाली करना ज़रूरी है. 

कल रात तक जाने से पहले की जिन्दगी को समेटने का दबाव था. आज कुछ भी नहीं...सामने रखी टिकट मुस्कुरा रही है उसके पार मुस्कुरा रहा है एक खूबसूरत हरा समन्दर...खुद से किया वादा निभाने जा रही हूँ कि जियूंगी जी भर के इस बरस...

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