Friday, December 1, 2017

कोई वीरानगी ठहरती नहीं- देवयानी भारद्वाज


देवयानी का यह लेख (उन्हू लेख नहीं अपने समय को पूरी सच्चाई और ईमानदारी से जिए के साथ आइने के सामने उसका खड़ा होना) ही मेरा उससे प्रथम परिचय है. इस लिखे हुए का सारा जिया हुआ मेरे उससे परिचय से पहले का है. मैं उसके इस लिखे के जिए में से किसी भी लम्हे की गवाह नहीं हूँ. लेकिन उसके शब्दों की जीवन्तता, उसके जिए हुए का ताप और नमी को उसके लिखे हुए को पढ़ते हुए देह पर रेंगते हुए खूब महसूस किया है. इसे जब भी पढ़ा सिसकियों से खुद को बचा नहीं पायी. आज यह लेख देवयानी ने 'प्रतिभा की दुनिया' को देकर इस दुनिया को रोशन किया है. आज के दौर में भले ही हम कितने ही रैडिकल क्यों न हों प्रेम को शादी की ड्योढ़ी पर सर टिकाना ही पड़ता है. फिर कितनी ही आंधियां और तूफ़ान आयें, हम अपने रिश्ते को बचाने के लिए ऐसे-ऐसे जतन करते हैं, जिनके बारे में हमने खुद भी कभी नहीं सोचा था. लेकिन एक रोज जब सारी उम्मीदें चुक ही जायें और अपना ही  फैसला मुंह चिढ़ाने लगे तब क्या हो आखिर? ऐसे हालात में जहाँ एक बड़ा वर्ग घिसटता चला जाता है देवयानी ने अपने ही फैसले से खुद को आज़ाद करते हुए हुए अपना सम्मान भी बचाया और जीने की इच्छा भी. प्रेम के नाम पर अपनी अस्मिता की बलि कब तक दी जा सकती है आखिर. देवयानी भरद्वाज की डायरी के यह कुछ पन्ने जो 'बेदाद-ए-इश्क़, रुदाद-ए-शादी' नामक पुस्तक में संकलित हैं आज यहाँ साझा करते हुए खुश हूँ - प्रतिभा 

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जीवन जब अपेक्षाओं से कमतर मिलता है, तो उसे याद करके भी मन छोटा होता है। बहुत कुछ ऐसा है जिसे याद करना मन छोटा करता है, लेकिन ऐसा भी बहुत कुछ है जो अपेक्षा से ज्‍यादा उदात्‍त रहा। मैं जीवन के उन उदात्‍त पक्षों की बात करना चाहूंगी। बस इतनी सी बात है कि जिन रिश्‍तों में साथ और संरक्षण मिलने की अपेक्षा थी अधिकांश जीवन उन्‍हीं रिश्‍तों में अपने अधिकारों के लिए टकराते हुए बीता। जो लिखने जा रही हूं उसे लिखते हुए किसी के प्रति कोई गुस्‍ताखी नहीं करना चाहती। लेकिन अंदर जो इतना कुछ सुलगता रहता है उसे कहना भी एक तरह की मजबूरी ही है। यह शायद कोई प्रेम कहानी नहीं, बल्कि जीवन के प्रति प्रेम, बराबरी और आजादी के सपने के प्रति प्रेम, उसे पाने की जिद और उसमें टूटने बिखरने की कहानी है। कहने को प्रेम भी किया और जिससे प्रेम किया उसी से विवाह भी किया, उसी प्रेम के लिए घर से भाग कर गई और आखिर एक दिन उस प्रेम से भी भाग आई। लेकिन यह बार-बार का भागना किस बात से भागना था?

मैं कौन-  
पिता - लेखक। मां - गृहस्‍थन। एक बड़ा भाई और एक छोटी बहन । गांव से उठकर आए इस सामान्‍य नौकरीपेशा परिवार में छोटे शहरों में बच्‍चों की जैसी प‍रवरिश होती है उससे कुछ बेहतर ही वातावरण हमने पाया। लेखक पिता और घर में लेखकों-साहित्‍यकारों का आना-जाना और विभिन्‍न कार्यक्रमों में शामिल होना वे अवसर थे जो घर से इतर एक दुनिया की खिड़की हमारे लिए खोलते थे। न्‍याय और बराबरी ऐसे विचार थे जो मुझे इस दुनिया को देखने समझने का चश्‍मा देते थे। अपने इर्द-गिर्द हर छोटी-बड़ी लड़ाई बस उसी के लिए चलती रही। ख्‍वाब तो दुनिया को बदलने के थे, लेकिन जीवन अपनी ही जद्दोजहद में बीतता गया।

जब बारहवीं कक्षा में पढ़ने के दौरान मेरे लिए आने वाले रिश्‍तों पर विचार किया जाने लगा तो मानो मेरे पांवों के नीचे से जमीन सरक गई थी। पहली बार अपने लड़की होने के नाते गैर बराबरी का प्रश्‍न इतने स्‍पष्‍ट रूप में सामने खड़ा था। मैं अपने जीवन में क्‍या करना चाहती हूं, उसके बारे में मेरी ही राय की कोई अहमियत नहीं थी। यहां तक कि मुझ से पूछा भी नहीं जा रहा था कि मैं अपने आने वाले जीवन के बारे में क्‍या सोचती हूं। क्‍या करना चाहती हूं? कैसा जीवन साथी चाहती हूं? कब शादी करना चाहूंगी? चाहूंगी भी या नहीं चाहूंगी? यह हालात तब थे जबकि बचपन से घर में प्रगतिशील वातावरण मिल रहा था। स्‍कूल में तमाम गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर हिस्‍सा लेती थी। मेरी सक्रियता छुपी हुई नहीं थी। पापा के साथ सीधा संवाद नहीं होता था। लेकिन अब ऐसे हालात सामने थे जब आमने-सामने बात करने और उनका प्रतिरोध करने की जरूरत महसूस होने लगी थी। इसका साहस जुटाने में काफी वक्‍त लगा और तब तक संयोग ने ही साथ दिया कि दो बार रिश्‍ते तय कर दिए जाने के बावजूद शादी के अंजाम तक जाने से बची रही। इस बीच कनु के साथ दोस्‍ती में मैंने जाना कि पिता-पुत्री के बीच रिश्‍ते कितने सहज और दोस्‍ताना भी हो सकते हैं। हालांकि अनुभव तो प्रज्ञा दीदी, संज्ञा और रमेश अंकल के रिश्‍तों को देखने का भी था, लेकिन उन्‍हें आमने-सामने देखने का मौका कम मिलता था। कनु को ज्‍यादा करीब से देखा और यह समझ आया कि अगर आपको कुछ अनुचित लगता है तो उस पर सवाल उठाना ही होता है।

तो एक तरफ आगे की पढ़ाई जारी रखने की इच्‍छा और दूसरी ओर यह आशंका कि ग्रेजुएशन पूरी होने तक तो शादी तय कर ही दी जाएगी। इस बीच इतना फर्क जरूर आ गया था कि जिन मसलों पर पापा के सामने मुंह नहीं खुलता था, उन पर अब उनसे बहस करने लगी थी। उस वक्‍त तो यही लगता था कि मेरे प्रगतिशील पिता मेरे जीवन के निर्णयों के बारे में उस तरह प्रगतिशील क्‍यों नहीं। आज लगता है कि उन्‍होंने धुर मरुस्‍थल के एक किसान परिवार से निकल, अपने बूते महानगरीय जीवन में खुद को स्‍थापित किया। उनके मन में उस वक्‍त तक बच्‍चों को लेकर आकांक्षाएं इतनी भर थीं कि उन्‍हें आधारभूत शिक्षा मिले और वे अपनी प्रदत्‍त भूमिकाओं का ठीक से निर्वाह करने लगें। मैं तो अपने परिवार की ऐसी पहली लड़की थी जिसने न सिर्फ स्‍कूल में दाखिला लिया बल्कि स्‍कूल-कालेज की पढ़ाई पूरी कर ली थी। उनके फ्रेमवर्क में वे पूरी जिम्‍मेदारी के साथ अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे थे।

हालांकि उस उम्र में पापा के साथ कोई भी बहस भारी चुनौती सी लगती थी। मानो अपना समूचा अस्तित्‍व दांव पर लगा हो। लेकिन उन्‍होंने हमें बहस करने के भरपूर मौके दिए. उन्‍होंने हमें उनके निर्देशों को मानने का आदेश नहीं दिया बल्कि माना कि हम जो चाहते हैं उसमें गलत कुछ नहीं लेकिन उनका परिवेश और पृष्‍ठभूमि हमें अपने जीवन के निर्णय लेने की आजादी नहीं देता। उनकी आशंकाए निर्मूल नहीं थीं, लेकिन हमारे निर्णय भी गलत नहीं थे। वे स्‍वयं पितृसत्‍ता के प्रतिनिधि नहीं थे, लेकिन उसके दबावों से मुक्‍त भी नहीं थे। आखिर हमारी मन-पसंद शादियों की कीमत उन्‍होंने अपने परिवार से बहिष्‍कार स्‍वीकार कर चुकाई। वे अपनी मां और भाइयों के परिवारों के साथ उस सूत्र का टूटना नहीं चाहते थे। लेकिन उस व्‍यवस्‍था में सब एक-दूसरे के आगे विवश होते हैं। एक ऐसी व्‍यवस्‍था जिसके अंदर सब रिश्‍ते मजबूरी के होते हैं, और जो लोगों की असुरक्षा और अकेले छूट जाने के डर पर पलती है। वहां व्‍यक्ति की कोई स्‍वतंत्र सत्‍ता नहीं है तो सर्वजन हित की भी कोई संकल्‍पना नहीं है, बल्कि एक रूढ़ सामुहिकता का ही वर्चस्‍व उसमें बना रहता है। तो बस पिताजी को फतवे मिलने लगे थे, यदि बच्‍चों की शादियां जाति से बाहर हुई तो हुक्‍का पानी बंद। पापा की स्थिति दो पाटों के बीच फंसे व्‍यक्ति की सी थी. वे बच्‍चों के लिए जिन खिड़कियों को खोल आए थे, उन्‍हें बंद भी नहीं करना चाहते थे। वे दोनों तरफ समझाइश की कोशिश करते और इसी दुविधा की कीमत उन्‍होंने दोनों पक्षों के साथ एक तरह के अलगाव के रूप में चुकाई। आज भी उसकी परछाइयां पूरी तरह उनका पीछा छोडती नहीं हैं। खैर, पापा ने उस वक्‍त भरपूर विरोध जताया लेकिन जब भी मैंने दो-टूक निर्णय कर लिया तो मेरा साथ दिया। मम्‍मी ऐसे हर मोड पर अपेक्षाकृत ज्‍यादा उदारता के साथ नए को स्‍वीकारने के लिए तैयार नजर आई और जीवन की हर मुश्किल घड़ी में भावनात्‍मक संबल बनी रहीं, आज भी हैं।

आज पीछे मुड़ कर देखती हूं तो अफसोस इस बात का होता है कि जिस प्‍यार के लिए मैं इतना दूर निकल आई, उस प्‍यार को उस दूर तक निभाया नहीं जा सका। हमारा समाज और परिवार हमें यह मौका देता ही नहीं कि हम प्‍यार को समझ सकें। क्‍या स्‍त्री और पुरुष के बीच प्‍यार की स्‍वाभाविक परिणति शादी और बच्‍चे ही हो सकते हैं? दोस्‍ती, प्‍यार, रिश्‍ते इस सबके इतने रूढ़ दायरे हमने अपने आस-पास खड़े किए हैं जिनमें सांस लेने की गुंजाइश बहुत कम है। हम एक दायरे को तोड़ते हैं और एक नया दायरा अपने गिर्द खड़ा कर लेते हैं। स्‍तरीकरणों में बंटी सामंती पितृसत्‍तामक व्‍यवस्‍था हमारे सबकांशस पर इस कदर हावी है कि हर कदम पर खुद से ही सवाल करने की जरूरत है। जरा सी चूक और पीछे का बुना सारा ताना-बाना बिखर जाता है।

खुलते वातायन -
वे सर्दी के शुरुआत के दिन थे 1992 के। तब तक बाबरी मस्जिद गिराई नहीं गर्ह थी, लेकिन साम्‍प्रदायिकता का जहर हवाओं में घुलने लगा था। मैं बीकानेर के महारानी कालेज में कला संकाय में बीए तृतीय वर्ष में पढ़ रही थी। पापा-मम्‍मी शहर में नहीं थे इसलिए कभी-कभार हरीश भादानी ताउजी मेरी खोज खबर लेने कनु के घर आते थे। कनु मेरी सहेली जिसके घर में उस बरस मैं रह कर पढ़ाई कर रही थी। हम दोनों की सामाजिक राजनीतिक मसलों में दिलचस्‍पी देख वे अक्‍सर हमें वातायन के दफ्‍तर आने का भी बुलावा दे जाते। कनु विज्ञान की छात्रा थी और पढ़ाई के दबाव के चलते समय नही निकाल पाती, लेकिन मेरी अभिरुचियां मुझे वहां खींच ले जाने लगीं। वहीं मेरी मुलाकात शिवकुमार और मूलचंद नाम के दो युवाओं से हुई। मूलचंद पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता थे और साथ ही बड़ी-पापड़ के अपने कुटीर उद्योग को भी संभालते थे। शिवकुमार बीए के दूसरे साल में थे और पेंटिंग के भी छात्र थे। वे कविता भी लिखते। हम तीनों घंटों आपस में बहसों में उलझे रहते। शिवकुमार का सौम्‍य व्‍यक्तित्‍व जिस तरह की छवि रच रहा था मैं उसके मोह में बंधती जा रही थी। साथ बैठ कर वातायन के लिए रचनाएं चुनना, उन पर चर्चा करना, वातायन में आने वाले तमाम वरिष्‍ठ रचनाकारों से मिलना, हरीश जी की दी नई पुरानी किताबों को पढ़ना, किस्‍से सुनना इस सब के बीच जीवन की दिशा बदलने लगी।

इस बीच बाबरी मस्जिद गिरा दी गई। शहर में सभाओं का माहौल था। बहसों का माहौल था। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने राजनीति में धर्म के हस्‍तक्षेप पर बहस करवाई, जिसमें मैंने भागीदारी की। धर्म के दखल का पुरजोर विरोध किया और पहला पुरस्‍कार जीता। इसी बीच शिव ने शहर की इकलौती कला गैलरी में अपने चित्रों की प्रदर्शनी लगाई और शहर के तमाम संस्‍कृतिकर्मी इसे देखने पहुंचे। प्रदर्शनी पर मैने समीक्षा लिख कर यहां-वहां भेजी और वह कई जगह प्रकाशित भी हुई। हम दोनों ही अपनी पढ़ाई में मदद के लिए अक्‍सर मधुलिका दीदी के पास भी साथ-साथ जाने लगे। वे शिव के कालेज में व्‍याख्‍याता थी और मेरा उनके साथ परिचय पापा के जरिए पहले से था। वे भी वातायन में काम में सहयोग किया करती थीं। हम जब उनके घर में होते तब कई बार मधु दी हम दोनों को घर में अकेला छोड़ कालेज चली जातीं। पूरे घर में बस हम दोनो होते और अपने-अपने में सिमटे बैठे रहते। उस समय में एक-दूसरे से बात करने का साहस भी जाने कहां हवा हो जाता। बीच की असहजता को तोड़ने के लिए जबरन कुछ बात कर लेते और फिर चुप। लेकिन आस-पास उसकी उपस्थिति सुहाती थी। मधु दी आतीं तो हमारी बातों का सिलसिला फिर शुरू होता। हम दोनों वातायन के काम से सांखला प्रिंटर तो कभी डाकघर या रेल्‍वे स्‍टेशन भी साथ-साथ जाते। बीकानेर जैसे छोटे से कस्‍बे में हमारा यूं साथ घूमना कई लोगों ने नोटिस किया, लेकिन कोई कहे तो क्‍या कि हम डाक साथ डालने क्‍यों गए या प्रेस में किस काम से गए। यहां-वहां से दिल्‍ली में पापा-मम्‍मी के कानों तक भी बातें पहुंचने लगी थीं कि मेरा एक लड़के के साथ मेलजोल बढ़ रहा है। पर सीधे ऐतराज करने जैसा कहीं कुछ था ही नहीं तो कोई कहे भी तो क्‍या? फिर भी हमारी दोस्‍ती को लेकर घर में एक असहजता और चिंता है इसका पता मुझे भी चलने लगा था।

बीकानेर के उन दिनों हम दोनों ने मिल कर अपने स्‍तर पर एक पत्रिका निकालने का भी विचार बनाया। हरीश जी यह कहते कि तुम्‍हें अलग पत्रिका निकालने की क्‍या जरूरत। वातायन है तो सही, तुम उसमें जैसे चाहो वैसे काम करो, लेकिन ऐसा लगता कि कुछ ऐसा होना चा‍हिए जो हमारा अपना हो। युवाओं का हो। कैसा होगा, उसका कोई ठीक-ठाक स्‍वरूप तो मन में नहीं था। फिर शहर के युवा साथियों से रचनाओं का सहयोग मांगा तो उन्‍होंने अपना लिखा पूरा पुलिंदा ही हमें थमा दिया कि छांट लो। इधर परीक्षा भी सर पर थी और वह योजना ज्‍यादा दूर न जा सकी। मुझे परीक्षा के बाद दिल्‍ली लौटना था पापा-मम्‍मी के पास। मैं योजना बना रही थी कि शायद आगे की पढाई जेएनयू या डीयू में करने को मिले, इसी बीच पापा का तबादला जयपुर हो गया। मैं बीकानेर छोड जयपुर आई तो शिव भी स्‍टेशन छोडने आया और उसने अपने बनाए कई चित्र मुझे उपहार में दिए। पहले भी वह अपने कई चित्र मुझे भेंट कर चुका था। हम अच्‍छे दोस्‍त थे और एक-दूसरे को पसंद भी करते थे, अब तक इसके इतर रिश्‍ते या प्रेम की कोई बात हमारे बीच नहीं थीं। लेकिन मैं पसंद करती थी उसे और चाहती थी कि वह भी मुझे चाहे।

जयपुर में राजस्‍थान विश्‍वविदयालय में उसी हिंदी विभाग में पढ़ने के खयाल ने भी रोमां‍चित किया जिसमें खुद पापा ने पढ़ाई की थी। संयोग से हिमांशु और प्रभात जैसे उत्‍साही सहपाठी मिले और पता चला कि विभाग में ही नहीं विभिन्‍न विभागों में फैली एक दोस्‍त मंडली से मैं जुड़ती चली जा रही थी। हम लोग 'वितान' के नाम से विश्‍वविद्यालय में संगोष्ठियां करते, हस्‍तलिखित पत्रिका निकालते और सारे विभागों में घूम-घूम कर उसे लोगों तक पहुंचाते। शहर की अन्‍य गतिविधियों में भी भागीदारी करते। यहां की गतिविधियों के बारे में मैं शिव को पत्रों में लिखती और उसे जब भी जयपुर आने का अवसर मिलता वह यहां आता। मेरे दोस्‍त उसके भी दोस्‍त बनने लगे थे। उस जमाने में वेलेंटाइन डे का शोर नया-नया था। यह शायद 1994 का 14 फरवरी का दिन था। विश्‍वविद्यालय में साथ की लड़कियां वेलेंटाइन के बारे में बातें कर रही थीं और विभाग के बाहर सड़क पर मैं भी उनके ही बीच खड़ी थी। बस यूं ही पीछे नजर घुमाई और सड़क के छोर पर शिव आता हुआ नजर आया। ऐसा लगा जैसे वह शायद आज के दिन कुछ सोच कर ही आया था, लेकिन न उसने कोई फूल उपहार में दिया न उस तरह का कोई जेस्‍चर ही दिखाया। यह अलग बात है कि इस बीच वह मेरे प्रति अपने अनुराग को व्‍यक्‍त करने लगा था और मेरी सहमति का इंतजार करता था। इस बार वह दो-तीन दिन शहर में रहने वाला था और लगभग रोजाना ही हमें मिलना था। उस दिन दोपहर घर की बालकनी में बैठ हम घंटो बतियाते रहे। पास ही दादी बैठ अपनी पैनी निगाहों से हमें ताकती रहीं और उसी के बीच हमने पता नहीं कब कुछ ऐसा एक-दूसरे से कहा कि मेरा मन संभाले न संभलता था और उसके भी पांव जमीन पर न गिरते थे। इस तरह वह मुझ से विदा ले वापस जाने के लिए रवाना हुआ।

इसी साल बीए पूरी होने के साथ ही उसने भी राजस्‍थान विश्‍वविद्यालय के समाज-शास्‍त्र विभाग में एमए में दाखिला ले लिया। इस बीच मैं आकाशवाणी में 'युववाणी' कार्यक्रम की कम्‍पीयरिंग के लिए जाती थी। एमए फाइनल के बीच में ही राजस्‍थान पत्रिका में मेरा चयन बतौर प्रशिक्षु पत्रकार हो गया। घर में लड़कों से मेरी दोस्‍ती, अखबार की नौकरी और दफ्‍तर से देर तक घर लौटना और शादी के प्रसंगों को लेकर पर्याप्‍त तनाव रहने लगा था। इधर भाई ने भी घर में अपने प्रेम का ऐलान कर दिया। उसे कहा गया कि बहनों की शादी होने तक वह विजातीय शादी नहीं कर सकता। पर मैं कहां चुप रहने वाली थी। भाई का घर पर बहसों में ही नहीं कोर्ट और आर्यसमाज के मंदिर तक हर जगह साथ दिया। गांव से संदेश आया लड़के की शादी बाहर कर भी दोगे तो स्‍वीकार लेंगे, पर लड़कियों की शादी बाहर की तो समाज से बेदखल होना पड़ेगा। आखिर भाई की पसंद को परिवार की स्‍वीकृति मिली और उसकी शादी परिवार की सहमति से हुई। पर मेरी शादी को लेकर तनाव बढ़ता जा रहा था। विश्‍वविद्यालय जाने में मेरी रुचि शिव के साथ समय बिताने, दोस्‍तों के साथ होने वाली संगोष्ठियों में शामिल होने के लिए रहती। ‘वितान’ की ओर से नुक्‍कड नाटक होते तो मैं भीड़ में खड़े रहने के लिए भी पहुंच जाती। कोई भूमिका निभाना तो संभव होता ही न था, एक तरफ नौकरी और दूसरी ओर घर के हालात उसमें बस दोस्‍तों के साथ बनी रहती, इतना ही मेरा योगदान होता। जीवन कई दिशाओं में भाग रहा था। एक तरफ रचनात्‍मक अभिरुचियां अपने लिए जगह तलाशतीं। घर-दफ्‍तर-प्रेम-लेखन-समाजिक सक्रियता इस सबके बीच कोई संतुलन नहीं सधता था। जिन सार्वजनिक मंचों पर और लोगों के बीच मैं, शिव और हमारे दोस्‍त आते-जाते वही लोग और जगहें पापा के भी आने-जाने की जगहें होतीं। पापा मेरे लेखन, मेरी सक्रियता से खुश होते, लेकिन उनकी दुश्चिताएं और उनके साथ मेरा टकराव भी अपनी जगह बदस्‍तूर जारी रहे। तब ऐसा लगता था कि शादी होगी और सब ठीक हो जाएगा। हम खुल कर सभा संगोष्ठियों में भाग लेंगे, पढेंगे-लिखेंगे और अपने मन का काम करेंगे।

शादी यानि बगावत- 
मुझ से करीब डेढ़ साल बाद शिव की भी राजस्‍थान पत्रिका में नौकरी लगी और घर में बढ़ते तनावों के चलते 10 सितम्‍बर 1996 को हमने दोस्‍तों के बीच आर्यसमाज में शादी कर ली। कुंतल और कनु तक को शादी में शामिल न कर पाई और कुंतल इस बात से बेहद आहत भी हुई पर नहीं चाहती थी कि पापा एक साथ दोनों बेटियों की ओर से छला गया महसूस करें। हिमांशु और विश्‍वंभर हम दोनों के हाथों लिखी चिटठी लेकर पापा के पास गए। घर में तनाव अपने चरम पर था। संयोग से रामबक्ष जी पापा के पास आए हुए थे, उन्‍होंने पापा को सहारा दिया। हम दोनों दूसरे दिन पापा-मम्‍मी का आशीर्वाद लेने पहुंचे। घर में तनाव का माहौल था। पहली बार पापा ने हम दोनों को सामने बिठा कर बात की। मैं रोए जा रही थी। पापा ने पूछा क्‍यों रो रही है, क्‍या अपने किए का अफसोस है। मैंने कहा नहीं। आखिर तमाम गिले-शिकवों के बाद यह तय किया गया कि पापा-मम्‍मी रिसेप्‍शन कर मुझे विदा करेंगे तब तक मैं घर में ही रहूंगी। लेकिन उस वक्‍त हम दोनों को वापस साथ में विदा किया गया और यह तय किया गया कि अगले दिन शिव अपने मम्‍मी-पापा से बात करने जोधपुर जाएगा और मैं घर आ जाऊंगी। मम्‍मी ने मुझे पायल, बिछुए पहनाए, हाथों में मेंहदी लगा कर विदा किया। इस बीच भाई-भाभी की पहली बेटी के जन्‍म में बस कुछ ही दिन बाकी थे, इसलिए रिसेप्‍शन का समय बच्‍चे के जन्‍म के सप्‍ताह भर बाद 22 सितम्‍बर का दिन तय किया गया।

रिसेप्‍शन और उसके बाद तमाम घड़ि‍यों के अनेक छोटे-बड़े अच्‍छे और कठिन क्षण थे, लेकिन हमने जब सहजीवन शुरू किया तो वह दोस्‍तों ही नहीं दोनों परिवारों के बीच भी मिसाल था। हम दोनों मिल कर रसोई में काम करते और मिल कर ही दोस्तों के साथ गप्‍पबाजी में शामिल होते। शिव पत्रिका में साहित्‍य के पन्‍नों पर अच्‍छा काम कर रहा था, लेकिन उसकी संपादक के साथ गणित ठीक न थी और वह अक्‍सर परेशान होता कि संपादक उसके काम में दखलंदाजी चाहते हैं जबकि वह अपने ढंग से काम करना चाहता। उसकी दूसरी तकलीफ यह भी थी कि नौकरी के चलते वह चित्रकारी के लिए समय नहीं निकाल पाता। मैं कभी शादी के पहले भी उससे कहती रही थी कि कहां जरूरी है कि पुरुष कमाए और औरत घर में रहे। तुम चाहो तो अपने कला कर्म पर ज्‍यादा समय बिता सकते हो और घर चलाने के लिए पैसा तो मैं भी कमा सकती हूं। शादी के लगभग छह माह के बाद हम दोनों की सहमति से शिव ने नौकरी छोड़ दी। अब वह कभी-कभार मिलने वाली परियोजनाओं से जुड़ जाता, लेकिन दीर्घकालीन नौकरी का दबाव उस पर नहीं था। इसी बीच अब तक काले-सफेद रंगों में काम करने वाले शिव के चित्रों में रंगों का प्रवेश हुआ। उसने पेंसिल और क्रेयॉन से कुछ अच्‍छे रंगीन काम भी किए और जयपुर में जवाहर कला केंद्र में उसकी चित्र प्रदर्शनी आयोजित की गई।

कई लोग आए, काम देख कर गए, कुछ ने सराहा, कुछ ने नकारा लेकिन शिव का काम करना बदस्‍तूर जारी रहा। हमारा घर दोस्‍तों का अड्डा था जहां हम हर शनिवार शाम साथ बैठते, एक-दूसरे की कविताएं सुनते और उन पर जबरदस्‍त खिंचाई करते। लेकिन हम दोनों की कविता का मुहावरा भी बदल रहा था। धीरे-धीरे ऐसा भी होता जा रहा था कि दोस्‍तों के इतर सार्वजनिक जीवन में मेरी भागीदारी सिमटती जा रही थी। और शादी के दो-ढाई साल बीतने के बाद तक आते-आते मेरा कविता लिखना लगभग थम गया। शिव का भी लिखना लगभग बंद था। वह अक्‍सर बात-बेबात कहता ''लाइफ स्‍पॉइल हो गई।'' मुझे बुरा लगता, लेकिन धीरे-धीरे आदत हो गई और ऐसा लगने लगा कि वह यूं ही कहता है, दरअसल उसका वह मतलब नहीं है। अब लगता है कि शायद उस वक्‍त वह शादी के लिए तैयार नहीं था, लेकिन मेरी परिस्थितियों के दबाव के आगे शायद पीछे हट नहीं सका। शायद उसे तुरंत ही यह अहसास होने लगा था कि यह उसका इच्छित जीवन नहीं, लेकिन मुझे आहत नहीं करना चाहता था, इसलिए कभी कह न पाया हो। यह सब मेरे अनुमान हैं। वह क्‍या सोचता है यह तो साहचर्य के तमाम वर्षों के दौरान एक पहेली ही बना रहा था। हमने समाज निर्धारित भूमिकाओं से हट कर अपने लिए जीवन चुना तो लेकिन अपनी दुश्चिंताओं पर आपस में बात करने का स्‍पेस नहीं बना पाए। मैंने परिवार की आर्थिक जिम्‍मेदारी संभाली, लेकिन शिव के कुछ बरताव मुझे पसंद नहीं आते थे। मुझे ऐसा लगता कि मेरे प्रयासों को फॉर ग्रांटेड लिया जाता है, लेकिन मैं उससे कह नहीं पाती थी। डर लगता था कि यदि बदली हुई भूमिका को चुना है तो इसका अहसास या गिल्‍ट उसे न दूं कहीं। उसके अहम को ठेस न पहुंचे। आज सोचती हूं कि अहम और ठेस की चिंता में यदि उस वक्‍त टकरावों को टाला न होता तो शायद ज्‍यादा ईमानदार जीवन जीया होता। यहीं अपने प्रगतिशील और पितृसत्‍तात्‍मक संस्‍कारों, अपने कांशस और सबकांशस के बीच के टकराव को देख पाती हूं।

सार्वजनिक जीवन में अधिक सक्रियता की चाह रखती थी लेकिन नौकरी के अलावा मेरा जीवन घर की चहारदीवारी में सिमटता जा रहा था। शिव ने कभी प्रत्‍यक्ष मुझे कहीं भागीदारी करने से मना किया हो, ऐसा नहीं था। लेकिन उसने कभी बढ़ कर मुझसे साथ चलने का आग्रह भी नहीं किया। ऐसे कार्यक्रम अक्‍सर शाम में होते और वह मुझे कहता तुम दिनभर की थकी होगी, आराम करो मैं जा कर आता हूं। वैसे भी कार्यक्रम कुछ खास नहीं। सब दोस्‍त जा रहे हैं, इसलिए मैं भी जा रहा हूं। मैं सोचती, लेकिन दोस्‍त तो वे मेरे भी हैं। हर बार यह याद दिलाने का लेकिन मन नहीं करता था। और यह सच भी था कि दिन भर की थकी होती थी, लेकिन सार्वजनिक सक्रियता मुझे नहीं थकाती जिससे ज्‍यादा इस तरह के संवाद थकाते और इन पर बहस करने का इरादा थकाता था।

धीरे-धीरे दोस्‍तों की शनीवारीय बैठकें चाय की बजाय शराब की पार्टियों में बदलने लगीं और नियमितता भी जाती रही। हम दोनों की कविता का मुहावरा बदल रहा था। आज इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि हम दोनों कहीं अपने भीतर यह जान रहे थे कि कुछ गड़बड़ है, लेकिन उसे जिस वक्‍त समझना और सुलझाना चाहिए था उस वक्‍त व‍ह पता नहीं किन दूसरी बातों के बीच गुम होती चली गई। परस्‍पर संवाद का स्‍पेस लगभग नदारद था। सारी बातें दोस्‍तों के बीच ही होतीं। मैं दफ्‍तर से लौटती और वह घर से निकल जाता, सारे दिन घर में रहने की ऊब से थका-हारा। मैं प्रतिरोध नहीं कर पाती। मुझे समझ ही नहीं आता कि मैं उसके पर्सनल स्‍पेस में कैसे दखल दूं। यह भी नहीं समझ आता था कि मेरा स्‍पेस और मेरे च्‍वॉइसेज के साथ क्‍या हो रहा है। छोटी-छोटी बातों को जीवन के नमक की तरह स्‍वीकार कर लिया था। सारी जद्दोजहद इस बात की रहती कि वो जैसा है, उसे उस रूप में स्‍वीकारूं, लेकिन उस क्रम में मैं जैसी थी उससे बदल रही थी। अपने प्रति वैसे ही स्‍वीकार की जगह मैं नहीं बना पाई।

इस बीच शादी के तीन साल बाद अभिज्ञान का जन्‍म हुआ। एक बार हम दोनों फिर खिल गए। शिव अभिज्ञान को खाना खिलाने से लेकर उसकी नैपी बदलने तक कोई भी काम उसी सहजता के साथ करता जिसके साथ मैं करती थी। उसके इन व्‍यवहारों से ही मैं तो इतनी आच्‍छादित रहती थी कि मुझे कुछ और सूझता ही कहां था और सच कहें तो जो 'पितृसत्‍ता' हम दोनों के सबकांशस में जड़ें जमाए बैठी थी वह हमें परस्‍पर इन ऊपरी व्‍यवहारों के आगे नजर नहीं आती थी।

मैं अपने मातृत्‍व अवकाश के दौर में शिव के माता पिता के पास जोधपुर गई हुई थी। जब लौट कर आई तब एक दिन माफी मांगते हुए उसने बताया कि उसने वे सारे पत्र फाड दिए हैं जो शादी से पहले उसने मुझे लिखे थे। मैं बेहद आहत हुई। लेकिन वह तो माफी मांग चुका था। जब भी किए नए हर्ट पर उस घटना का जिक्र किया उसने कहा तुम मुझे इस बात का कितनी बार गिल्‍ट दोगी। मेरी तकलीफ यह थी कि उसी प्रकृति के दुख यदि बार बार जीवन में आते हैं तो यह कैसे न बताऊं कि यह उसी घटना का दोहराव है। मुझे लगता था पत्र मेरी वह संपत्ति थे, जिस पर किसी और का कोई अधिकार नहीं था।

अभिज्ञान के जन्‍म के कुछ दिन प‍हले से शिव 'दिगंतर' में बच्‍चों के लिए कला का शिक्षाक्रम विकसित करने पर काम करने लगा था। साल भर की परियेाजना थी यह भी। उसने दफ्‍तर में बात की कि उसे दोपहर तीन बजे तक घर लौटना होगा और मैंने बात की कि मैं शाम तीन बजे की शिफ्‍ट में काम करूं ताकि दोनों बच्‍चे को भी समय दे सकें और उसे किसी अन्‍य के भरोसे न छोड़ना पड़े। वह सुबह मेरे उठने तक दफ्‍तर के लिए निकल जाता और रात मैं 9 बजे के करीब घर लौटती तब तक वह सोने की तैयार में होता। साल भर य‍ह व्‍यवस्‍था चली और फिर उसकी परियोजना खत्‍म हो गई। अब फिर वह घर में और मैं दफ्‍तर में।

इन्‍हीं दिनों में अभिज्ञान का पहला जन्‍मदिन आया। उसका जन्‍म मेरे जन्‍मदिन से ठीक एक दिन पहले यानि 12 दिसंबर 1999 को हुआ था। जब उसका पहला जन्‍मदिन मनाया तो सब मेरे जन्‍मदिन के बारे में पूछ रहे थे और मैं कहती अब अभि के जन्‍मदिन में ही मेरा भी शामिल है। शादी के बाद के इन चार सालों में पहली बार मैं अपने जन्‍मदिन पर दफ्‍तर गई। रात को घर लौटी तो पूरा घर अंधेरे में डूबा था। घंटी बजाई तो शिव ने दरवाजा खोला और मुझे गोदी में उठा अंदर कमरे में ले आया। मैं जब तक कुछ समझ पाती घर में सब तरफ रोशनी जगमगा रही थी और घर दोस्‍तों से भरा था। हम सबने खूब देर तक नाच कर उस दिन को सेलिब्रेट किया। जीवन में ऐसे उत्‍सव के कई समय आए, लेकिन रोजमर्रा के जीवन का अपना एक ढर्रा भी होता है।

मैं बच्‍चे के साथ वक्‍त बिताने को तरसती, लेकिन काम करना भी मेरा ही चुनाव था। उसके पास बच्‍चे के साथ बिताने को भी भरपूर समय था और अपनी चित्रकला के लिए भी। लेकिन जल्‍दी ही बच्‍चे की देखभाल उसे थकाने लगी और डेढ साल के अभिज्ञान को हमने क्रेच भेजने का निर्णय किया। मैं ऑफिस जाते हुए उसे क्रेच छोड़ती और लौटते हुए लेकर आती। इसी बीच मुझे प्रेम भाटिया फैलोशिप मिली जिसके तहत मुझे गांवों से शहरों की ओर पलायन पर अध्‍ययन करना था। मैं अपना लिखा शिव के साथ पढ़ना और उस पर बात करना चाहती और वह मुझे कह देता तुम लिख कर रख दो मैं बाद में पढ़ लूंगा। मुझे उपेक्षा महसूस होती, मैं आहत होती, लेकिन उसे यह समझा नहीं पाती कि क्‍यों उसका उसे उस वक्‍त सुनना जरूरी है। मेरे लिए दिन भर की नौकरी से लौटने और रात में जाग-जाग कर बच्‍चे को संभालने के साथ यह अध्‍ययन जारी रखना विशेष श्रमसाध्य काम था और मुझे उसका सहयोग चाहिए था। ‘कम्‍पेनियनशिप’ की ‘स्पिरिट’ की कमी जो मुझे खटकती थी, उसे मैं पहचान नहीं पा रही थी और लगातार पीछे हटती जा रही थी। इस रिश्‍ते में अपने अधिकारों और कर्तव्‍यों को हमने ठीक से परिभाषित नहीं किया था और एक असंतुलन था जो लगातार बढ़ता जा रहा था। हम दोनों के बीच दोस्‍ती और बराबरी के समीकरण बिगड़ने लगे थे। परिवार के सह-जीवन में साझा और व्‍यक्तिगत स्‍पेस को भी हमने ठीक से परिभाषित नहीं किया, आर्थिक और भावनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍वों को भी ठीक से बांटा नहीं था।

हम दोनों का ही कविता लिखना लगभग छूट चुका था। अभिज्ञान के जन्‍म के बाद मेरा अखबार में फिल्‍मों पर लिखना बंद हो गया। छोटे बच्‍चे के साथ मेरे लिए यह संभव नहीं रह गया था। यहां तक कि अन्‍य फीचर लेखन भी लगभग छूट चुका था। उन दिनों मैंने अभिज्ञान के साथ खूब कहानियां पढीं और बुनी भी। छत पर टहलते हुए अंग्रेजी राइम्‍स को अंग्रेजी में गाने के साथ ही उनके हिंदी अनुवाद करके भी गाए। उसके साथ बतियाते हुए मैं अपना बचपन फिर से जी रही थी। जीवन मासूमियत, प्‍यार और ममता से लबरेज था। इस सबमें इतना सुख था कि वाकई कुछ छूटना महसूस नहीं होता था। यह वक्‍त फिर नहीं आएगा, बाकी सबकुछ आगे किया जा सकता था। शिव की पेंटिंग लगातार जारी थी। वह काले सफेद से रंगों पर आया। उसने पेंसिल, पेन, चारकोल और क्रेयॉन के बाद पेंसिल और एक्रेलिक रंगों से काम करना शुरू किया। फिर कैनवास पर काम करना शुरू किया। शुरू में कैनवास तैयार करना भी एक संघर्ष होता, लेकिन हर फार्म को अपनी तरह एक्‍सप्‍लोर करने की उसकी जिद ही उसे रास्‍ता भी दिखाती। फिल्‍म निर्माण में भी उसने हाथ आजमाया।

इसी बीच गिरिराज का जयपुर आना हुआ। शायद 2004 के आस-पास। उसने आग्रह कर मेरी कविताएं सुनने की जिद की, उन्‍हें सुना और सराहा भी। एक दिन पूछा ''आप खुद को एक पोएट के रूप में एसर्ट क्‍यों नहीं करतीं?'' मैंने कहा ''मैं अब कविता लिखती ही कहां हूं!'' उसने फिर पूछा ''क्‍यों नहीं लिखतीं?'' और मेरा जवाब था ''जीवन से शायद इतना संतुष्‍ट हो गई हूं कि लिखने की जरूरत नहीं रही।'' इस तरह ठहाके के साथ वह वार्तालाप तो खत्‍म हुआ, लेकिन गिरिराज के सवाल ने उस दिन से मन में एक बेचैनी को तो जगा दिया था। उसने बाद में मुझे आग्रह कर सहृदय सृजन संवाद से जोड़ा, लेकिन मैं कहीं कुछ भी योगदान कर ही नहीं पाती थी। इसलिए किसी भी मंच से जुडना निरर्थक लगता था। इसी बीच उसने जब प्रतिलिपि शुरू की तो वर्ष 2008 में आग्रह कर वितान के सभी साथियों की रचनाएं प्रकाशित कीं। मेरी कविताएं तब तक आखिरी बार 1998 में कथन में प्रकाशित हुई थीं। बीच के सालों में लिख भी रही थी, तो इस तरह फुटकर डायरियों के पन्‍नों में पडा रहता था, जिसकी ओर खुद मेरा भी ध्‍यान नहीं गया था। जब गिरिराज ने आग्रह कर रचनाएं मांगी और यह भी कहा कि आप बेशक पहले छपी हुई ही दीजिए, लेकिन वितान के सारे कवियों को एक साथ प्रकाशित करना है तो मैंने घर में बिखरी अपनी डायरियों को टटोलना शुरू किया। और मुझे यह देख कर हैरानी हुई कि इन सालों में भी मैं इक्‍का-दुक्‍का कविताएं यहां-‍वहां लिख कर छोड़ देती रही थी। दरअसल मैं उन्‍हें कविता मानती ही नहीं थी, इस बार पढ़ा तो उनमें कुछ खुद ही मुकम्‍मल कविता सी लगीं और मैंने उन्‍हें प्रतिलिपि में भेजा।

डायरियों को इस तरह खंगालने के दौरान मैंने देखा कि अपने फुटकर डायरी लेखन में मैं जगह जगह अपने अकेलेपन, अवसाद, संवादहीनता और टूटन को दर्ज कर रही थी। मैं हैरान थी कि शादी के ठीक बाद से मेरी यह महसूसियत गहराती जा रही थी और शिव की निर्लिप्‍तता बरकरार थी। मेरा लिखना फिर शुरू हुआ । बहुत सारा भावुक और सतही लिखा। ऐसे ही कभी गिरिराज से ही आग्रह किया कि मुझे ब्‍लॉग बनाना सिखाओ और बातों-बातों में मेरे नाम से ब्‍लॉग भी बना डाला। साल भर तक इस पर सिर्फ अधूरी पंक्ति का एक पोस्‍ट पडा रहा। धीरे-धीरे फिर लिखना शुरू हुआ तो उसे ब्‍लॉग पर पोस्‍ट करना भी शुरू किया तो लोगों ने पढ़ना और फॉलो करना भी शुरू कर दिया। इससे संबल मिलता गया और लिखने का सिलसिला फिर चल पड़ा। मेरे लिखने के प्रति शिव लगभग तटस्‍थ रहता। मैं थी कि उसे ही अपना पहला पाठक मानने पर आमादा रहती।

प्रमोद बीते तमाम सालों में बहुत निकट दोस्‍त बनता गया था। मैंने अपनी कविताएं उसे सुनाना शुरू किया और उसने उन पर संजीदगी के साथ बात की। उनकी स्‍ट्रेंथ को रेखांकित किया तो कहां कविता कमजोर होती है उस पर भी बात की। यही वह दौर भी था जब वह खुद भी कई सालों के बाद फिर से लिख रहा था। उसने बेहद सुंदर प्रेम कविताएं लिखी। उसने जिस तरह के बिंबों का इस्‍तेमाल किया वह दुर्लभ है। वैसे भी अब वे सारे दोस्‍त शहर में रहे नहीं थे, और वृहत्‍तर घेरे से मेरा तो संपर्क लगभग समाप्‍तप्राय ही था। ऐसे में कभी-कभार प्रमोद, प्रभात, रवि, कमल आदि दोस्‍तों के साथ कविता पाठ होता वर्ना अपना ब्‍लॉग था जहां अपना लिखा पोस्‍ट कर देती। जैसे-जैसे अपने जीवन पर खुद से प्रश्‍न करना शुरू किया, लिखना भी बढ़ता गया और कुछ हद तक बेहतर भी हु‍आ ही शायद।

लेकिन जीवन को जिस तरह साथ जीना चाहा, वह साथ छूटता जा रहा था। हम दोनों ही तो कुछ बेहतर, कुछ सृजनात्‍मक करते हुए जीना चाहते थे। लेकिन परस्‍पर संवाद का मुहावरा विकसित नहीं कर पाए। हम शायद एक-दूसरे को सुन नहीं पाएं, समझ नहीं पाए। बहुत बरस पहले एक बार हम दोनों ही लवलीन दी के साथ बैठे बातें कर रहे थे तब मैंने कहा था कई बार रात में सोते हुए जब शिव का हाथ थाम लेती हूं तो ऐसा लगता ही नहीं है कि इसके पीछे एक पूरा व्‍यक्ति भी मौजूद है, बस वह एक हाथ भर ही मेरे हाथ में है, ऐसा लगता है। शिव ऐसे रूपकों को सराह देता, लेकिन उसके पीछे की व्‍यथा को नहीं पढ़ पाता था। मैं उसके डिटैचमेंट को महसूस कर रही थी, कह भी रही थी, लेकिन सुना जाए इस तरह कहना मुझे नहीं आया। और शायद कहे गए को कैसे सुना जाए यह उसे भी नहीं आया। उसे लगता मैं शिकायत करती हूं, उसे गिल्‍ट देती हूं, लेकिन यदि मुझे कोई कमी महसूस होती है तो कहने के अलावा उसे व्‍यक्‍त करने का कोई और भी तरीका होता है यह मुझे आया ही नहीं। वह किसी बात के लिए जरा सा असंतोष व्‍यक्‍त कर देता और मैं उस परिस्थिति को बदलने में जुट जाती। मैं अपनी पूरी शिद्दत के साथ अपनी तकलीफ व्‍यक्‍त करती और अंत में इस अहसास के साथ छूट जाती कि मैं उसे गिल्‍ट देती हूं, शिकायत करती हूं, कमियां निकालती हूं। मैं धीरे-धीरे एक झगड़ालू औरत में तब्‍दील हो रही थी। अभिज्ञान से साढ़े आठ साल के बाद 21 मई 2008 को जब दूसरे बेटे अनि का जन्‍म हुआ तब तक हमारा रिश्‍ता पटरी से उतर चुका था।

अपनी बेड़ि‍यां, अपनी आजादी-
मैंने पाया कि मैं लगातार शिव को समझने की जद्दोजहद में अपने और बच्‍चों के जीवन के साथ प्रयोग किए चली जा रही हूं। हर प्रयोग में पूरे मनोयोग से खप जाती हूं, लेकिन उसका असंतोष मिटता नहीं है। मैंने कभी नहीं चाहा बच्‍चे को क्रेच में भेजूं, लेकिन अभिज्ञान को भेजना पड़ा। मेरी नौकरी यदि हमारे अपने ढंग से जीवन को खोजने में बाधा है तो नए सिरे से जीवन की तलाश की जाए, 2004 मैंने नौकरी छोड़ दी। सोचा अपनी तरह से काम करेंगे। स्‍कूली शिक्षा के प्रति असंतोष था इसलिए प्री-प्राइमरी के बाद अभिज्ञान को स्‍कूल से निकाल लिया, 'होम स्‍कूल' किया। कुछ बच्‍चों के साथ अपनी तरह का स्‍कूल बनाने की भी का‍ेशिश की। उम्‍मीद थी कि हम दोनों और कुछ दोस्‍त मिल कर मनचाहे काम और मनचाहे जीवन को जीने के लिए स्‍पेस बना पाएंगे। लेकिन इस दौर में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं कि मेरा धैर्य छूटने लगा था। बहुत थोडे ही दिनों में यह योजना कुछ कदम चल कर दफन हो गई। तमाम बने-बनाए ढांचों को तोड़ कर देखा, लेकिन जीवन था कि पटरी पर आता ही नहीं था। इस बीच 2008 में अनि का जन्‍म हुआ, और मेरा यह अहसास गहराता जा रहा था कि अब इस रिश्‍ते का निर्वाह संभव नहीं। हम एक ही छत के नीचे बहुत दूर जा चुके थे। मुझे यह समझ आने लगा कि आर्थिक कमान को फिर नियमित करना होगा, यदि खुद को और बच्‍चों को जिंदा रखना है तो उन तमाम व्‍यवस्‍थाओं में लौटना होगा, जिन्‍हें तोड़ कर इतना दूर तक आ गर्इ हूं। शिव से कहती कि मैं इतने छोटे बच्‍चे को छोड़ नौकरी में जाना नहीं चाहती तो जवाब मिलता ''तुम मुझ पर दबाव बना रही हो।'' वह रात को देर तक दोस्‍तों के बीच रहता और दोपहर देर तक सोया रहता। मैं अस्‍त-व्‍यस्‍त जीवन को सम्‍हालने का कोई सिरा नहीं पा रही थी। अभिज्ञान को फिर स्‍कूल में दाखिला कराया और मैं छोटे अनि को लेकर जोधपुर नौकरी करने चली गई। लेकिन हालात में कोई बदलाव नहीं आया, बल्कि वे बदतर होते जा रहे थे।

टूटने का एक क्षण ऐसा था कि मैं एक पंडित के कहने पर कालसर्प की पूजा कर रही थी और उदयपुर के पास बेणेश्‍वर धाम में झील में पानी के बीच खडी हो चांदी के सांप बहा रही थी। मुझे सिर्फ इस बात का इंतजार था कि एक बार शिव हाथ थाम कर कहेगा कि ''डी, पागल हो गई हो। यह तुम क्‍या कर रही हो? तुम कब से इन बातों में यकीन करने लगीं?'' लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जब पंडित ने चारों तरफ बैठे लोगों के बीच कहा कि ''यह तो यह आदमी है कि आपके जैसी महिला के साथ निबाह रहा है'' तो शिव ने जोर का ठहाका लगाया और मेरी आंखों से आंसू बहने लगे। मैं बस इतना भर कह पाई कि यह बात ठीक नहीं है। पंडित अपने कहे पर शर्मिंदा हो गया, लेकिन शिव को अहसास नहीं हुआ कि मैं आहत हुई हूं।

मेरी शादी की कीमत मेरे माता-पिता ने अपने परिवार से बहिष्‍कृत हो कर चुकाई थी और उस शादी का विफल होना मेरे लिए एक बदलाव का विफल होना था, अपने पिता से नजर मिलाने का अधिकार खो देना था। मैं यह कैसे भूल सकती थी कि दादी की मौत पर उदास मेरे पिता को उनके भाइयों के बीच बैठने का अधिकार हासिल नहीं हो सका था। लेकिन जीवन है जिसके लिए पिता को छोड़ कर गई उसी के बरक्‍स फिर खड़े होने के लिए भी पिता ही थे, जो मेरे साथ खड़े थे।

अब मेरे लिए यह संभव नहीं बचा था कि दोनों बच्‍चों की जरूरतों को पूरा करने के साथ शिव के खर्चे भी उठा सकूं, मुझे मजबूरन उसे अपने लिए काम तलाशने के लिए मजबूर करना पड़ा। जब तक वह आर्थिक रूप से आत्‍मनिर्भर न हो जाए मैं उससे अलग नहीं हो सकती थी। वे तमाम अपमान जिनके खिलाफ मैं उसके और दुनिया के बीच खड़ी थी वे सारी बातें मैं खुद उससे कह रही थी और वह अपमान से आहत काम की तलाश में चला गया। उसने नौकरी करने के लिए अहमदाबाद शहर को चुना और मेरे जीवन में कभी लौट कर नहीं आया। मुझे उम्‍मीद थी कि शायद काम की जिम्‍मेदारी कोई बदलाव लाए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वह अपनी आय का बहुत छोटा सा हिस्‍सा घर भेजता और उसमें भी अनियमितता बनी रहती। मैं जब उससे जानना चाहती कि उसका बाकी वेतन कहां खर्च हो जाता है तो वह दो टूक कह देता ''यह जानना तुम्‍हारी गरिमा के अनुकूल नहीं।'' मैं हैरान; सोचती यह व्‍यक्ति जो पिछले पंद्रह बरस मेरे अकाउंट का एटीएम कार्ड अपनी जेब में लेकर घूमता रहा, यदि तब उसकी गरिमा के अनुकूल था तो आज यह पूछना मेरी गरिमा के प्रतिकूल कैसे हो सकता है? वह दो दिन के लिए भी घर आता तो शाम दोस्‍तों के साथ बिताना चाहता। यह जानने में उसकी रुचि न थी कि उसके पीछे दोनों बच्‍चों का और मेरा जीवन कैसे बीतता है। लगातार उपेक्षा, अपमान और गैर जिम्‍मेदाराना व्‍यवहार के चलते उस रिश्‍ते में मेरी आस्‍था टूटती जा रही थी। मैं हर संभव वह रास्‍ता तलाश रही थी जो उसे परिवार और जिम्‍मेदारी का अहसास कराए।

अखबार की नौकरी के दौरान जो जमीन का एक छोटा सा टुकडा हमने खरीदा था उस पर मकान बनाने की बात भी हम पिछले कई सालों से करते आए थे। बदलते हालात में मुझे यह लगने लगा था कि यदि अब घर न बना तो शायद कभी न बन सके। मैंने उसे एक और पैमाने की तरह लिया। शायद घर बनाने की जिम्‍मेदारी उसे अपने व्‍यवहारों पर सोचने और कुछ जिम्‍मेदारी से पेश आने के लिए समझाए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हालांकि घर के बारे में हर निर्णय उसके साथ बात करते हुए किया, लेकिन अब मैं यह समझने लगी थी कि निर्णय मुझे ही करने होंगे। उसको यह काम झमेले लगते थे और वह इनमें पड़ना नहीं चाहता था। मैं बस इतना सोचती कि मैं कर लूंगी बस वह साथ रहे। लेकिन उसे शायद ऐसा लगता कि मैं यह जताना चाहती हूं कि मैं उसके बिना भी सब कर सकती हूं। वह घर की नींव रखने के लिए भी नहीं आया। मैं कहती ''अब आ जाओ शिव मैं अकेले कर नहीं पाती हूं इतना सब, थक जाती हूं।'' वह कहता ''एंजाय नहीं कर रही?'' मैं फोन करती और कहती ''तुम्‍हारी याद आती है'' वह कहता ''मत किया करो''। मैं दोनों बच्‍चों के स्‍कूल, अपनी नौकरी, नौकरी के टूर्स, ऑफिस की पॉलिटिक्‍स, जयपुर माहनगर की ओर-छोर दूरियों को लांघते हुए साथ-साथ मकान बनवा रही थी। ठेकेदारों के साथ बहस मुबाहिसे। पापा कुछ समय निकाल कर दिन में काम को देख आते, लेकिन मकान के स्‍वरूप को लेकर उनके और मेरे बीच भी मतभेद और टकराव उभरते ही रहते। मैं घडी की सूई के साथ भागती जाती थी, लगातार पिछड़ती, तन से और मन से टूटती जाती --- बस एक उम्‍मीद कि यह वक्‍त बीत जाएगा। सब ठीक होगा। हम फिर साथ रहेंगे। आखिर तो उसने प्‍यार किया है मुझसे, कभी तो व‍ह प्‍यार फिर उमड़ आएगा। लेकिन टकराव हमारे इस तरह के होते कि धीरे-धीरे यह समझ आने लगा कि अब हम दोनों के बीच वह स्रोत सूख चुका है।

आखिर थक हार कर साइकेट्रिस्‍ट के पास गई । उसने मेरी बातें सुनी और कहा तुम एक डिफिकल्‍ट इंसान के साथ जी रही हो, खुद को बचा लो। तुम उसे न बदल सकती हो न समझा सकती हो। मैंने खुद पर ध्‍यान देना शुरू किया। पहले ही बहुत अपेक्षाएं पाली नहीं थीं, लेकिन अब हर दिन और दो कदम पीछे हटती जा रही थी, ताकि अचानक पीछे लौटना न पड़े। आखिर मकान बन कर पूरा हुआ। मैं वह व्‍यक्ति थी जिसने कभी किसी कर्मकांड में यकीन नहीं किया था। बचपन में मामा को देख किए मंगलवार के व्रत छोड दें तो कोई सोमवार नहीं किया, कभी करवा चौथ जैसे व्रत नहीं किए। लेकिन अब देख रही थी कि परिवार बिखर रहा है। डर लगता था कि लोग कहेंगे मकान बनाने में वास्‍तु का खयाल नहीं रखा या पूजा पाठ नहीं किया। मैंने पंडित बुला कर मकान की नींव रखवाई और पूजा-पाठ के साथ गृह प्रवेश किया। मेरे लिए यह कर्मकांड कोई अर्थ नहीं रखते थे। पहली बार पंडित के कहने पर शिव के पांव छुए। दोस्‍ती, बराबरी, सम्‍मान और प्‍यार यह शब्‍द उस रिश्‍ते में से कूच कर गए थे। फिर एक दिन नए मकान में रहना शुरू करने के बाद जब वह अहमदाबाद से घर आया तो मैंने कहा ''सुनो, मैं जानती थी मकान बनाना तुम्‍हारे मिजाज को मेल नहीं खाता। यह तो मुझे ही बनाना था। क्‍या हम अब भी हमारे रिश्‍ते को फिर संभाल सकते हैं? मुझे कोई शिकायत नहीं तुमसे। बस हम मिल कर अपने परिवार को संभालते हैं।'' वह बिना कोई जवाब दिए चला गया और देर रात को घर लौटा। जिस रिश्‍ते को ठीक नहीं होना था वह न हुआ। उन डीटेल्‍स का कोई मतलब नहीं जो रोजाना यह समझा रहे थे कि बस अब बहुत हुआ। आखिर 4 जून 2013 को हम कानूनन उस रिश्‍ते से आजाद हो गए।

दोस्तियां और रिश्‍ते
शादी के बाद मैंने अपने या शिव के माता-पिता के सामने कभी अपने निजी जीवन के दुख नहीं गाए। यही लगता था कि जब यह निर्णय हमारा था तो उसे जीना भी हमारी जिम्‍मेदारी है। यहां तक कि कभी-कभार दोनों ही परिवार उसके काम न करने पर प्रश्‍न उठाते तो मैं ही बीच में कूद पडती कि यह हमारा निर्णय है और हमें इसमें परेशानी नहीं। ऐसा नहीं था कि शिव के साथ उन परेशानियों पर बात न करती हूं, लेकिन हम आपस में जिम्‍मेदारियों को कैसे परिभाषित करते हैं, वह उस परम्‍परागत फ्रेमवर्क से अलग है ऐसा मुझे लगता था। हालांकि वह हमारे जीवन को किस तरह देखता है यह उसकी बातों से समझ नहीं आता था। बस वह जिस तरह जीता था मैं उसी तरह जीते चली जा रही थी। जब अहमदाबाद चले जाने के बाद भी उसकी तरफ से परिवार के प्रति रुख में कोई बदलाव नहीं आया तो पहली बार मैंने उसके माता-पिता के सामने बात करना चाहा, लेकिन वहां से जवाब मिला अब क्‍यों कह रही हो? तुमने शादी की थी तब ही हमने कहा था। पति-पत्‍नी के बीच कोई और कुछ नहीं कह सकता। आपस के मामले हैं, आपस में सुलझाओ। सास मेरी बात सुनती, रोतीं, लेकिन कुछ कर नहीं पातीं। ससुर कहते कि तुम उसको गुलाम बना कर रखना चाहती हो। उसके परिवार की तरफ से एक पूरी चुप्‍पी अपना ली गई थी। उसके माता-पिता या भाइयों ने मुझे फोन तक करना बंद कर दिया था। छोटा भाई कभी-कभार फोन कर लेता, दुखी होता, लेकिन इससे ज्‍यादा वह कुछ नहीं कर पाता। वह एकमात्र ऐसा व्‍यक्ति था जिसने कहा ''भाभी यदि ऐसे हालात हैं तो आपको अपने जीवन के बारे में सोचना चाहिए। इस उम्र में आकर किसी व्‍यक्ति का रवैया नहीं बदल सकता।'' लेकिन आगे उसे भी वही रुख अपनाना था जो घर के बडों की सलाह थी, लेकिन आज भी कहीं एक भावनात्‍मक स्‍तर पर यह महसूस करती हूं कि शायद उसके मन में मेरे प्रति कोई सम्‍मान शेष है।

दोस्‍त अधिकांश उदास होते, लेकिन उनकी भी विवशता यही कि चालीस के पास पहुंच रहा व्‍यक्ति यदि अपनी जिम्‍मेदारी नहीं समझता तो उसे कोई नहीं समझा सकता। अधिकांश दोस्‍त दोनों के दोस्‍त बने रहे। कुछ का धीरे-धीरे मेरे साथ संवाद बिल्‍कुल खत्‍म हो गया। कुछ का शायद उसके साथ भी नहीं रहा। बहुत कम थे जिन्‍होंने अपनी पक्षधरताएं चुनीं। एक मित्र फेसबुक पर उसके असहाय अकेलेपन पर इस कदर उदास होते कि मुझसे सहा न गया और उन्‍हें बता कर मैंने उन्‍हें ब्‍लॉक कर दिया। उनके पोस्‍ट मेरी मानसिक शांति को भंग करते थे।

प्रमोद हम दोनों के जीवन का अभिन्‍न हिस्‍सा रहा। वितान के वे सारे दोस्‍त जो शादी से पहले कभी कभार मेरे घर भी आया करते थे। वे ही दोस्‍त शादी के बाद घर आते और यदि शिवकुमार घर पर न होता तो वे दरवाजे से ही लौट जाते। मैं आग्रह करती ''शिव नहीं तो क्‍या मैं तो हूं,'' लेकिन वे लौट जाते। इसी तरह किसी दिन प्रमोद भी दरवाजे से लौटने लगा और मैंने कहा ''शिव नही है तो क्‍या मैं तो हूं।'' और प्रमोद रुक गया। हम दोनों ने साथ चाय पी, खूब गप्‍पें लगाई। और उस दिन के बाद कभी ऐसा नहीं हुआ कि प्रमोद शिव के न मिलने पर दरवाजे से लौट गया हो। वह मेरा दोस्‍त, सखा बनता चला गया। वह ऐसा दोस्‍त था जो हम दोनों का एक साथ भी दोस्‍त था और दोनों का अलग-अलग भी उतना ही आत्‍मीय दोस्‍त हमेशा बना रहा। एक ऐसा दोस्‍त जो तलाक के दिन अदालत तक में हम दोनों के साथ था। दोनों से गले मिल रहा था और दोनों को सवाल कर रहा था कि ''तुम लोग ठीक से सोच तो लो कि कर क्‍या रहे हो?'' किसी भी रिश्‍ते को किस उदात्‍तता के साथ जिया जाता है, यह प्रमोद से सीखा जा सकता है। वह अच्‍छे दिनों में भी हमारे व्‍यवहारों पर सवाल उठाता था और कठिन दिनों में भी हमारे साथ रहा। कई बार रात बारह बजे भी जरूरत पडी तो हम दोनों की नहीं जिस किसी भी दोस्‍त ने प्रमोद को फोन किया, यदि प्रामेद शहर में है और वह पहुंचा न हो ऐसा नहीं हुआ। वह एकमात्र ऐसा दोस्‍त है जो यह कह सकता है कि यदि मुझे पक्ष चुनना हुआ तो मैं देवयानी का चुनूंगा। कई बार जब मेरे दोनों बच्‍चे बीमार थे और मुझे दफ्‍तर से घर पहुंचने में देर होने वाली होती तो वह मुझसे पहले वहां पहुंच कर दोनों बच्‍चों को अपनी गोद में सुलाए मिला। मेरी नौकरी के तनाव इतने ज्‍यादा थे कि उसमें मानवीय स्‍पेस की गुंजाइश तलाशना मुश्किल होता जा रहा था तब प्रमोद शहर के ओर-छोर नाप कर कभी अभिज्ञान को उसके मैच के लिए लेने और पहुंचाने जा रहा था तो कभी बच्‍चों को गणित की कठिनाइयां हल करने में मदद कर रहा था। कभी-कभी लगता है कि अगर प्रमोद नहीं होता तब भी क्‍या मैं इतना तनाव झेल पाई होती। दोस्‍ती, प्‍यार और मनुष्‍यता के किसी भी पैमाने पर उसकी कोई बराबरी संभव नहीं। एक ऐसा इंसान जो खुद टूट कर भी आपके साथ बना रहता है।

कमल-अनुपमा, रवि जी ऐसे दोस्‍त हैं जिन्‍होंने अलग-अलग मौकों पर अपने घर आने का निमंत्रण दे कर यह अहसास दिया कि मैं अकेले नहीं हूं। लेकिन कई दोस्तियों के स्‍परूप बदले। कई पुराने दोस्‍त दूर हुए तो कई नए दोस्‍त बने। बिना किन्‍हीं व्‍यक्तिगत संदर्भों के फेसबुक पर दो-एक दोस्‍तों ने जीवन को नए सिरे से समझने में मदद की। किसी दोस्‍त से फोन पर लंबे-लंबे वार्तालाप ने टूटते-बिखरते मन को संभलने में सहारा दिया। पापा-मम्‍मी का घर दूर नहीं और उम्र और स्‍वास्‍थ्‍य की तमाम परेशानियों के बावजूद वे हैं तो जीना आसान है।

अभिज्ञान कब बेटे से दोस्‍त बन गया पता ही नहीं चला। दोनों बच्‍चे बेहतरीन दोस्‍त बनते जा रहे हैं। अपनी-अपनी उम्र से कहीं ज्‍यादा सयाने दोस्‍त। जब रात दिन घड़ी के साथ भागते-भागते निढाल हो जाती हूं, माइग्रेन होता है तो दोनों बच्‍चे मिल कर हाथ, पैर, सर दबाते हैं। अपने प्‍यार से इस कदर भर देते हैं कि थकान जाती रहती है, जीवन से प्‍यार हो जाता है। अभिज्ञान अपने छोटे भाई अनि के लिए एक संरक्षक की भूमिका लेता जा रहा है वह दिल को सुकून से भर देता है।

जो टूटता है मन के भीतर वह यह खयाल है कि पिता होते हुए भी बच्‍चों के जीवन में पिता की उपस्थिति नहीं है। यह वक्‍त इस जद्दोजहद का नहीं कि बच्‍चे पिता से और पिता बच्‍चों से कब और कैसे मिले, बल्कि इस बात का था कि बच्‍चे अपने सपनों के पंख फैलाएं और मां-पिता साए की तरह उनके साथ चलें।

अपने जीवन में कहने को कई दोस्‍त हैं, लेकिन मन के किसी एक कोने में एक वीरानगी छाई है। अपने घर में जब गुलमोहर और कचनार फूलते हैं तो मन के भीतर एक टीस उठती है कि यही तो वह समय था जिसे एक-दूसरे का हाथ थाम कर, कांधे पर सर टिका कर अपने भीतर जज्‍ब कर लिया जा सकता था। लेकिन यह वीरानगी बहुत देर नहीं ठहरती, बच्‍चों के साथ यह मन ज्‍यादातर तो खुशगवार ही रहता है।

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