ये मेरे फ्रॉक वाले दिनों की बात है. 6 या 7 बरस की उम्र रही होगी शायद. त्योहारों पर हमेशा गाँव जाना होता था. हमारे घर में पूजा-वूजा का रिवाज तो कभी रहा नहीं. हाँ खाना-पीना बनता था मजे का, तरह -तरह का और दीवाली है तो दिए जलाते थे, होली हुई थी आल्हा की महफ़िल सजती थी और रंगों में सारा गाँव सराबोर भी होता था. वैसे मैंने अपने पूरे गाँव में ही पूजा-पाठ का विधान देखा नहीं, बाद में जब थोड़ी बड़ी हुई तब पता चला कि यह हमारे बाबा राम स्वरुप वर्मा के विचारों का नतीजा था कि समूचे क्षेत्र से कर्मकांडों की छुट्टी हो चुकी थी .
खैर, आज जिस याद ने हाथ थामा है वो है दीवाली की रात और दूसरे दिन के बचपन के खेल. तब मोमबत्तियां कम मिट्टी के दिए ज्यादा जलाये जाते थे. दादी बहुत सारे दिए जलाती और एक बड़ी सी थाली में उन्हें रखकर गांव भर में जगह-जगह उन्हें रखने को चल देतीं. दादी का हाथ पकड़कर उनके साथ जाना और दिए सजाना मेरा प्रिय काम था. पहला दिया घूरे (जहाँ गोबर इकठ्ठा किया जाता है) पर रखा जाता, फिर जहाँ जानवर बांधे जाते थे वहां कुछ दिए रखे जाते, फिर खेतों की तरफ जाते हम, खेतों में दिए रखते, रास्ते में कोई उपेक्षित सा मंदिर दिख जाता तो वहां भी दिया रखते.
दादी बोलती कम थीं, लेकिन उनके काम करने में एक लय थी जो महसूस की जा सकती थी. लौटते वक़्त गाँव की आभा देखते ही बनती थी. हमारी तरह और भी बच्चे अपनी दादी, बाबा, चाचा ताऊ का हाथ थामे निकले होते थे दिए रखने. रास्ते भर हम एक-दूसरे से उल्लास से मिलते और धरती के हर कोने का अँधेरा मिटाने की तरफ लपकते जाते. इसके बाद शुरू होता एक-दूसरे के घर जाने का और घर की बनी मिठाइयाँ खाने का. किसके घर की जलेबी इस बार गजब बनी है, किसके घर के मोतीचूर के लड्डू की चाशनी गड़बड़ा गयी पूरे गाँव को पता होता था. बल्कि सुबह से ही जलेबी बनाने वाली लत्ती (वो कपड़ा जिसमें मैदा भरकर जलेबी बनाई जाती है ) अगर कोई अच्छी बन गयी तो पूरे गाँव में टहलने लगती थी. बाद में मिठाईयों में समोसे भी जुड़ने लगे, दही बड़े और नमकपारे भी.
दीवाली पर घर के जानवरों को रगड़- रगड़ कर नहलाना और उनके गले में नयी घंटियां बांधना, उनके शरीर पर रंग बिरंगे गोले बनाकर उनको प्यार से सजाना भी मजेदार होता था.
दीवाली का उत्साह पूरे गाँव में एक सा दिखता था, बिना किसी वर्गभेद के, जाति भेद के. क्योंकि अगर गाँव में कोई गमी (किसी की मृत्यु ) हुई है तो पूरा गाँव उस गमी में शामिल होता था और हर घर में त्योहार की लौ मध्धम हो जाती थी.
हम बच्चों की चांदी होती थी. पूरे वक़्त उत्साह से इसके उसके घर जाना, खाना-पीना, खेलना, शरारतें करना. दीवाली के अगले दिन का हमें बहुत इंतजार होता था. हम बच्चे लोग सुबह जल्दी जागते, बिना किसी के जगाये. जानते हैं क्यों? क्योंकि सुबह हमें रात के जले दीयों को इकठ्ठे करने निकलना होता था. हम जल चुके दिए इकठ्ठे करते, यह हमारा प्रिय खेल था. जिसके पास जितने ज्यादा दिए वो उतना ज्यादा खुश, फिर इन दीयों से तराजू बनती जिनसे खील खिलौने तोले जाते. ये सब बचपन के दिवाली वाले खेल थे. एक और खेल था, तब कच्चे रास्ते होते थे अब तो खैर सब पक्का हो गया है, तो उन कच्चे रास्तों की मिट्टी के खूब सारे ढेर बनाते थे हम और किन्ही ढेरों में दिया छुपा होता था. अब बूझना होता था दुसरे साथी को की दिए वाला ढेर कौन सा है. जो सही बता देता दिया उसका. और जाहिर है जिसके पास जितने ज्यादा दिए वो उतना बड़ा विजेता.
सारा दिन हम मिट्टी में सने, खील बताशे चबाते, दिए जमा करते, घर वालों की पुकार को अनसुना करते कभी-कभी पिट भी जाते. इस तरह हमारी दीवाली तब तक चलती रहती, जब तक बड़ों का वापस काम पर लौटने का और हमें स्कूलों में धकेले जाने का वक़्त नहीं आ जाता.
फेसबुक पर दीवाली के तमाम अपडेट्स के बीच रह-रह कर बचपन की यादें कौंधती रहीं. जलते हुए दीयों के पीछे भागती, चमकती हुई चीज़ों के पीछे भागती इस दुनिया को देखती हूँ तो सोचती हूँ बचपन के उस खेल में जीवन का कितना बड़ा फलसफा छुपा था, बुझ जाना ख़त्म हो जाना नहीं होता, असल खेल तो उसके बाद शुरू होता है...
आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा 02-11-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2776 में की जाएगी |
ReplyDeleteधन्यवाद
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 87वां जन्म दिवस - अब्दुल कावी देसनवी - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteसच ! दीवालों पर लिसाई पुताई,उसके बाद हाँथ के छापे डाल देना किसी कोने पे, अंधेरा ढलते ही कई दिन पहले से आंखों में दिवाली के दिए झिलमिलाना, हफ्तों दूध की कटौती कर कर के खोए की मिठाई बनना, दीयों को जलाना दूसरे दिन उन्हें जमा करना,अधजली मोम बत्तियों के मोम को जमा करके कटोरी में मोमबत्ती बना लेना, बिन दगे हुए पटाखे खोजना, अलाई बलाई जलाना और न जाने क्या क्या !
ReplyDeleteमेरा बचपन भी ठीक ऐसा ही गुजरा है और हर दीवाली मैं अपने बचपन को जीने की कोशिश करती हूं। वाकई उससे प्यारा कुछ भी नहीं।
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