Friday, November 11, 2016

इक तेरी आदत...


आदत है बेवजह मुस्कुराने की
ख़ामोशी को नोच कर फेंक देने की
और मौन के गले में
शोर का लॉकेट लटका देने की

तमाम ताले छुपा देने की
और उन तालों की तमाम चाबियाँ
कमर में लटकाकर
ठसक से घूमते फिरने की

चाय की तलब में
सिगरेट का धुआं मिलाने की
और 'अच्छे लोगों' के बीच बैठकर
'अच्छी न लगने वाली' बातें करने की

सर्द रातों को मुठ्ठियों में लेकर
और बिना शॉल ओढ़े नंगे पाँव घुमते हुए
माँ की मीठी डांट खाने की

बेवजह कहीं भाग जाने की
और सड़कों के माथे पे लिखे तमाम पते मिटाकर
वापस लौट आने की

जाने पहचाने चेहरों से
अपनी उदासियाँ छुपाने की
और अजनबी कन्धों से
टिककर फफक के रो लेने की

अपने हाथों की लकीरों को
कभी गुम होते, कभी उगते देखने की
और कच्ची नींदों में पक्के ख्वाब उगाने की

प्रार्थनाओं के सीने से लगकर
खूब रो लेने की
मंदिर के घंटों की बेचारगी में
अज़ान की आवाज़ को सिमटते देखने की

आदत है रोज थोड़ी सी बेचैनी जीने की
बूँद भर जीने के लिए रोज समन्दर भर मरने की
बस कि नहीं पड पायी आदत अब तक
तेरे ख्याल को झटक कर जी पाने की...

आदतें भी अजीब होती हैं....




5 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 13 नवम्बर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. आदतें भरने से पहले खाली हो जाएँ
    अजीब सा ख़ाली होना ही है।

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  3. सुन्दर रचना

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