लो जी, एक बार फिर करवाचौथ के मुद्दे पर चुप लगाकर रखने के मेरे निश्चय को डिगा ही दिया गया. इस बार यह काम किया है उत्तराखंड सरकार ने. सुबह-सुबह अदरक इलायची वाली चाय का जायका बेमजा कर दिया इस खबर ने कि उत्तराखंड सरकार करवाचौथ पर अवकाश घोषित करके इसे महिला सम्मान दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया है. माने कि देवियों, करवाचौथ के निर्जल अवकाश ने आपके दैवीय प्रभुत्व को और ऊंचा कर दिया है. मजे की बात यह है कि हमेशा की तरह पितृसत्ता का यह खेल एक बार स्त्रियों के खिलाफ ही है और लग इस तरह रहा है जैसे ये उनके हक में लिया गया कोई फैसला है.
महिला सम्मान दिवस मनाने के लिए स्त्रियों द्वारा पति की लम्बी आयु की कामना करने वाले इस निर्जला उपवास को क्यों चुना होगा सरकार ने? इस तरह तो बहुत सारे व्रत उपवासों को भी इस नज़र से देखे जाने की ज़रूरत होगी. आखिर क्यों हर बरस करवाचौथ का यह पागलपन बढ़ता ही जा रहा है..? क्योंकि इस खेल के बढ़ते जाने से सबका फायदा है सिवाय उस स्त्री के जो इसके निशाने पर है...वो ख़ुशी ख़ुशी सज संवर के तैयार होकर, न सिर्फ पितृसत्ता की जड़ें मजबूत कर रही है, इससे खुश भी है.
हम पढ़ते लिखते लोग हैं, समाज हैं. जनगणना के पिछले आकडे बताते हैं कि हम एक अशिक्षित समाज से शिक्षित समाज में तब्दील हो चुके हैं. हमने पहले की अपेक्षा ज्यादा डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस, पीसीएस पैदा किये हैं. ये डिग्रीधारी समाज सचमुच शिक्षित भी हुआ है क्या इस पर काफी सवाल हैं. हमारी सोचने विचारने की गति और दिशा कहाँ से तय होती है. क्या हम स्वयं तार्किक होते हैं या हवाओं के रूख के साथ चल पड़ते हैं.
सवाल सिर्फ करवाचौथ का नहीं है सम्पूर्णता में हमारे सोचने और विचारने का है, बने-बनाए चमकीले रास्तों को छोड़कर चलने का है. क्यों किसी स्त्री ने खुद आवाज नहीं उठाई कि ‘महिला सम्मान दिवस’ के तौर पर मनाने को यही त्यौहार मिला था सरकार को. यह सरकार का स्त्रियों को तोहफा नहीं है उसके द्वारा पित्र्सत्ता को मजबूत करने की साजिश है. सरकार की भूमिका होती है कि वो ऐसे समाज का निर्माण करे जहाँ सबके हितों की रक्षा हो. समता, समानता के समाज की संविधान की परिकल्पना को सरकारें इस तरह मुह चिढाएंगी तो क्या उम्मीद की जा सकती है.
महिला सम्मान दिवस...ये सरकारी उन्माद की इंतिहा है, अख़बार, टीवी चैनल कई सालों से जिस तरह इस पागलपन से उफनाये रहते हैं वो कम नहीं थे क्या जो अब सरकारें भी कूद पड़ी हैं इस यज्ञ में. आखिर किस ओर जा रहे हैं हम? अभी हम इन बातों की बहस में ही उलझे थे कि हमारी शिक्षा हमें कितना तार्किक बना रही है. क्या हम वैज्ञानिक सोच के समाज होने की ओर अग्रसर हो सकेंगे कभी. कोई बड़ी बात नहीं कि कल को पाठ्यपुस्तकों में करवाचौथ, अहोई अष्टमी आदि की कथाएं शामिल हो जाएँ.
निश्चित रूप से महिलाएं सरकार की इस घोषणा से खुश होंगी. महिला सम्मान दिवस के तौर पर करवा चौथ मनाते हुए शायद ही किसी के मन में यह ख्याल आये कि यह असल में पतनशील समाज की ओर बढ़ना है. यही है पितसत्ता का खेल. एक सिंहासन बनाकर उस पर स्त्रियों को बिठा दो. जयकारे लगाओ उनकी ममता के, समर्पण के, उनकी खामोश रहकर सब सहने की शक्ति के, अपने लिए नहीं दूसरों के लिए सोचने के, खुद भूखे रहकर परिवार का पेट भरकर अन्नपूर्णा बनने के, खुद एनीमिया से जूझते हुए मुस्कुराते रहने के, बीमारी की हालात हो या गर्भ का नौवां महीना, उनके निर्जला व्रत रहकर पति और पुत्र की लम्बी आयु की कामना करने के...जय हो...जय हो देवियों...देखो तुम्हारे इस त्याग पर सरकार ने खुश होकर अवकाश घोषित कर दिया है. इसके लिए सरकार ने अपना मोतियों का हार तुम पर निछावर किया है और तुम्हारे सम्मान के रूप में इस दिवस को महिला सम्मान दिवस घोषित किया है. तुम्हारा सिंहासन जितना मजबूत होगा उतना मजबूत होगा पित्र्सत्ता का सिंहासन. स्त्रियों को भी खुद को दैवीय सिंहासन पर बैठने में आनंद आता है और अपने पति को परमेश्वर बनाने में. गैर बराबरी की बुनियाद पर बने रिश्तों वाले समाज में किस निरपेक्ष भाव की उम्मीद कर रहे हैं हम. किस प्रगतिशीलता की.
प्रगतिशील महिलाएं भी अपनी प्रगतिशीलता को कुछ देर को स्थगित कर ही देती हैं. कि मेहँदी, चूड़ी, गहनों से चमकता बाज़ार खींचता जो है. धर्म से, आस्था से, फैशन और बाज़ार तक आते हुए हम भूल गए कि भाई के द्वारा ढेर सारा सामान लेकर न पहुँचने पर छोटी बहू को ताने मारने वाली करवाचौथ की कथा के भीतर किस तरह का मर्म है छुपा है...कि पति की लम्बी आयु के लिए एक भाई का होना ज़रूरी है, उसका धन धान्य से परिपूर्ण होना ज़रूरी है तभी व्रत सफल होगा.
खैर, परम्पराओं के उन्माद के, उनके पोषण के इस खेल में अब जबकि सरकारें भी शामिल हो चली हैं तो बाज़ार के इस उत्सव की चमक को बढ़ना ही है. महिलाओं के सम्मान के बहाने उन्हें लगातार रूढ़िवादिता की ओर धकेलना कौन सी प्रगतिशीलता का परिचायक है सोचना तो होगा ही.
एकदम सही, यही होता आया है, कैसे महिला सशक्तिकरण होगा। क्या यही महिला का सम्मान है? जायज सवाल पर शायद ही सब इस तरीके के खेल को समझ सकते है। सब अपने उसी सोंच में जकड़े रहने में अपनी भलाई समझते है जिन्हें कुछ लोग सहभागी बनाने का निश्चय कर लेते है ।
ReplyDeleteजड़ें गहरी हैं इन व्यवस्थाओं की... ! उत्तराखंड सरकार ने जो निर्णय लिया वह शायद ही इस सोच के साथ लिया गया हो,महिलाओं का राजनितिक इस्तेमाल करने की सोच रही होगी। जो आप बात कह रही हैं वह सही है सोला आने। मुझे नहीं लगता सरकारें इतनी गहरी समझ रखती हैं। यदि सरकारें इस समझ के साथ ये काम करती तो निश्चित ही कोई न कोई विरोधी दल उसके खिलाफ खड़ा होता राजनीतिक फ़ायदा ही लेने के लिए सही ।सरकारों के पास इसकी समझ नहीं। सरकार और समाज तो छोड़िये वायुमंडल में पितृसत्ता घर कर गयी है। बलि हमेशा उत्सव के आवरण में ढक के ली जाती है।
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