पाब्लो नेरुदा की दो प्रेम कवितायेँ
मैंने तुम्हें नाम दिया है महारानी
तुमसे ज्यादा कद्दावर लोग हैं, ज्यादा कद्दावर
तुमसे ज्यादा खरे लोग हैं, ज्यादा खरे
तुमसे ज्यादा खुशनुमा लोग हैं,ज्यादा खुशनुमा
लेकिन तुम महारानी हो.
तुम जब गलियों से होकर गुजरती हो
कोई तुम्हें पहचान नहीं पाता
कोई देख नहीं पाता तुम्हारा बिल्लौरी मुकुट
कोई निरख नहीं पाता, लाल सुनहरी कालीन
जिस पर से होकर तुम गुजरती हो
वह मायावी कालीन
और जब तुम सामने आती हो
सारी नदियाँ मेरे भीतर कल कल कर उठती हैं.
घंटियाँ आसमान गुंजाने लगती हैं.
और समूची दुनिया एक ऋचा की गुंजार से भर जाती है
सिर्फ तुम और मैं
सिर्फ तुम और मै मेरे प्यार
उसे सुनते हैं
तुम्हारी हँसी
रोटी मुझसे छीन लो अगर चाहो
हवा छीन लो लेकिन
अपनी हँसी न छीनना मुझसे
गुलाब न छीनना मुझसे
वह नुकीला फूल जिसे तुमने तोडा
पानी जो यक- ब –यक
तुम्हारी ख़ुशी में से फूट निकलता है.
तुममें उठती चांदी की औचक हिलोर.
कठिन ,कठोर है मेरा संघर्ष
थकी और भारी आँखें लिए मैं वापस आता हूँ
कभी-कभी बेहौसला, दुनिया को देख कर,
लेकिन जब तुम्हारी हँसी फूटती है
आसमान तक उठ जाती है मुझे तलाशती हुई
और जिंदगी के सारे दरवाजे मेरे लिए खोल देती है.
मेरे प्यार,
सबसे काले दौर में भी प्रकट होती है तुम्हारी हँसी
और अगर यक- ब-यक
तुम्हें मेरा खून गली के पत्थरों को रंगता नजर आये
प्रिये, तुम हँसना
तुम्हारी हँसी मेरे हाथों के लिए
चमकीली तलवार बन जायेगी.
शरत में सागर से नीचे
तुम्हारी हँसी को उसका फेनिल प्रपात निर्मित करना है
और बसंत में प्रिये
मैं तुम्हारी हँसी को
अपने प्रतीक्षित पुष्प की भांति देखना चाहता हूँ
नीलकुसुम की भांति
अपने अनुगुंजित देश के गुलाब की भांति
तुम्हारी ख़ुशी में से फूट निकलता है.
तुममें उठती चांदी की औचक हिलोर.
कठिन ,कठोर है मेरा संघर्ष
थकी और भारी आँखें लिए मैं वापस आता हूँ
कभी-कभी बेहौसला, दुनिया को देख कर,
लेकिन जब तुम्हारी हँसी फूटती है
आसमान तक उठ जाती है मुझे तलाशती हुई
और जिंदगी के सारे दरवाजे मेरे लिए खोल देती है.
मेरे प्यार,
सबसे काले दौर में भी प्रकट होती है तुम्हारी हँसी
और अगर यक- ब-यक
तुम्हें मेरा खून गली के पत्थरों को रंगता नजर आये
प्रिये, तुम हँसना
तुम्हारी हँसी मेरे हाथों के लिए
चमकीली तलवार बन जायेगी.
शरत में सागर से नीचे
तुम्हारी हँसी को उसका फेनिल प्रपात निर्मित करना है
और बसंत में प्रिये
मैं तुम्हारी हँसी को
अपने प्रतीक्षित पुष्प की भांति देखना चाहता हूँ
नीलकुसुम की भांति
अपने अनुगुंजित देश के गुलाब की भांति
हँसो रात पर
हँसो दिन पर
चन्द्रमा पर हँसो
इस द्वीप की बलखाती गलियों पर हँसो
हँसो इस बेढंगे बालक पर
जो तुम्हें प्यार करता है,
लेकिन जब मैं अपनी आँखें खोलूं
बंद करूँ जब मैं अपनी आँखें
जब मेरे कदम बाहर निकलें
जब मेरे कदम वापस लौटें –
रोटी को बेशक मुझे इंकार कर देना
हवा, रोशनी,वसंत को भी चाहे ;
लेकिन अपनी हँसी को कभी नहीं ...
हँसो दिन पर
चन्द्रमा पर हँसो
इस द्वीप की बलखाती गलियों पर हँसो
हँसो इस बेढंगे बालक पर
जो तुम्हें प्यार करता है,
लेकिन जब मैं अपनी आँखें खोलूं
बंद करूँ जब मैं अपनी आँखें
जब मेरे कदम बाहर निकलें
जब मेरे कदम वापस लौटें –
रोटी को बेशक मुझे इंकार कर देना
हवा, रोशनी,वसंत को भी चाहे ;
लेकिन अपनी हँसी को कभी नहीं ...
कभी नहीं, वरना में मर जाऊँगा.
सुन्दर ।
ReplyDeleteअच्छी लगीं दोनों कवितायेँ.
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल सोमवार (17-10-2016) के चर्चा मंच "शरद सुंदरी का अभिनन्दन" {चर्चा अंक- 2498} पर भी होगी!
ReplyDeleteशरदपूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुंदर कविताएँ।
ReplyDeleteभावपूर्ण !
ReplyDeleteसुन्दर कविताएँँ और सुन्दर अनुवाद।
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