Thursday, September 15, 2016

कंधे से सटकर बैठने में बहुत सुख है...



जब खुद को उतारकर रख देती हूँ खुद से दूर कहीं ठीक उसी वक़्त किसी को अपने बहुत करीब पाती हूँ. चेहरा कोई नहीं बनता, एहसास होता है कि कोई है...बहुत करीब. ठीक उस तरह जिस तरह उसे होना चाहिए, बिलकुल उतना ही जितने की दरकार है न कम न ज्यादा. वो जो होना है वो उस उतारकर रखे गए के करीब बैठा होता है, कंधे से सटकर.

कंधे से सटकर बैठने में बहुत सुख़ है. सीलन से सर्द दीवार पे जब धूप गिर रही हो उस वक़्त उस दीवार से सटकर खड़े होना या उससे पीठ टिकाकर बैठने का सुख उसे कैसे पता. मैं दूर से बैठकर उसका खेल देखती हूँ. वो मेरी हथेलियों में धूप के सिक्के रखता है. ठीक उसी वक़्त सर पर खड़े पलाश के पेड़ की छाया गिरती है. हाथ पर दो सिक्के एक साथ रख जाते हैं...धूप भी, छाया भी...ऐसे ही मेरे चेहरे पर दो लकीरें गिरती हैं, तिरछी रेखाएं. चाँद और सूरज की रौशनी एक साथ...वो अपनी हथेलियों से कभी चाँद को ढांप देता है, कभी सूरज को...चेहरे पर अँधेरा नहीं गिरने देता...ये कोशिश भीतर के अँधेरे को रौंदने की है दरअसल...उसे मेरे चेहरे को सिर्फ अपनी हथेलियों से ढांपकर अँधेरा करना पसंद है...

पहाडी रास्तों पर हाथ पकड़कर भागता फिरता है वो मेरे साथ, बारिशों को उछालता है, मेरी तमाम तनहाइयों को फूंककर उड़ा देता है. मैं उसे दूर से देखती हूँ अपने ही साथ घूमते, चाय पीते, नज़र से नज़र जोड़कर घंटों बैठे रहना. मेरे तमाम दर्द वो अपनी अंजुरियों में सहेजता है, उन्हें पी जाना चाहता हो जैसे...कहता है वो तुम हो सिर्फ तुम ही...इस दुनिया में मेरी इकलौती प्रेमिका, न तुमसे पहले कोई न तुम्हारे बाद कोई...मैं सिसक उठती हूँ....सदियों से यही सुनने को हर प्रेमिका भटक रही है कितने जंगलों, रेगिस्तानों में...

फिर जैसे ही मैं अपना हाथ थामती हूँ...वो गुम हो जाता है...कहीं नजर नहीं आता. भीतर कुछ रेंगता महसूस होता है लेकिन. वो जो चला गया वो कौन था...वो जो मेरे मैं से अलग होने पर ही आता है...और मैं के करीब आते ही गुम हो जाता है...

जानती मैं भी हूँ....कि वो कौन है...फिर भी उसे चेहरे में तलाशने की आदत से बाज नहीं आती...अपने ही एहसास का कोई चेहरा होता है क्या...मैं दूर से देखती हूँ अपना चेहरा...दिप दिप करती चेहरे पर पड़तीं लकीरें...मुस्कुराती हूँ...

6 comments:

  1. शुभ प्रभात दीदी
    माता-पिता हों
    भाई-बहन हो
    पति-पति हो
    अथवा सहयात्री हो
    कंधे से कंधा जुड़ना
    अकस्मात ही होता है
    और भान होता है कि
    कोई सहारा तो है
    हमारे करीब
    सादर

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  2. मेरे मिजाज की कविता है यह तो! ...बहुत बढ़िया.

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  3. वाकई, यह तो एक सुन्दर कविता है.

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  4. वह कौन जो हर पल साया सा साथ चलता!

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  5. अति सुन्दर रचना। सस्नेह

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