Friday, August 5, 2016

कोई कशिश तो शुरू से ही तुम्हारी ज़ानिब खींचती थी...

अदबी ख़ुतूत : दसवीं कड़ी 



सफ़िया का पत्र जाँ निसार अख़्तर के नाम

(सफ़िया: उर्दू के प्रसिद्धतम शायर मजाज़ की बहन और जाँ निसार अख़्तर की पत्नी )
15 जनवरी, 1951

अख़्तर मेरे,
पिछले हफ़्ते तुम्हारे तीन ख़त मिले और शनिवार को मनीऑर्डर भी वसूल हुआ। तुमने तो पूरी तनख़्वाह ही मुझे भेज दी। तुम्हें शायद तंगी में बसर करने में मज़ा आने लगा है। यह तो कोई बात न हुई दोस्त। घर से दूर रहकर वैसे ही कौन सी सुविधाएं तुम्हारे हिस्से में रह जाती हैं जो मेहनत करके जेब भी खाली रहे? ख़ैर, मेरे पास वो पैसे, जो तुमने बंबई से रवानगी के वक़्त दिये थे, जमा हैं।

अच्छा अख़्तर अब कब तुम्हारी मुस्कुराहट की दमक मेरे चेहरे पर आ सकेगी, बताओ तो? बाज़ लम्हों में तो अपनी बाहें तुम्हारे गिर्द समेट करके तुमसे इस तरह चिपट जाने की ख़्वाहिश होती है कि तुम चाहो भी तो मुझे छुड़ा न सको। तुम्हारी एक निगाह मेरी ज़िन्दगी में उजाला कर देती है। सोचो तो, कितनी बदहाल थी मेरी ज़िन्दगी जब तुमने उसे संभाला। कितनी बंजर और कैसी बेमानी और तल्ख़ थी मेरी ज़िन्दगी, जब तुम उसमें दाखिल हुए। मुझे उन गुज़रे हुए दिनों के बारे में सोचकर ग़म होता है जो हम दोनों ने अलीगढ़ में एक-दूसरे की शिरकत से महरूम रहकर गुज़ार दिये ।
अख़्तर मुझे आइंदा की बातें मालूम हो सकतीं तो सच जानो मैं तुम्हें उसी ज़माने में बहुत चाहती थी। कोई कशिश तो शुरू से ही तुम्हारी ज़ानिब खींचती थी और कोई घुलावट ख़ुद-ब-ख़ुद मेरे दिल में पैदा थी मगर बताने वाला कौन था कि यह सब क्यों?
आओ, मैं तुम्हारे सीने पर सिर रखकर दुनियाँ को मगरूर नज़रों से देख सकूंगी।

तुम्हारी अपनी
सफ़िया


(प्रस्तुति - प्रतिभा कटियार)

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