एक पूरा दिन स्कूल में बिताने की योजना आखिर पूरी हुई। देहरादून से पहाड़ी रास्तों पर होते हुए करीब 18 किलोमीटर की दूरी तय करके मैं सीआरसी मंजू नेगी के साथ ठीक साढ़े सात बजे राजकीय प्राथमिक विद्यालय व राजकीय माध्यमिक विद्यालय सरखेत पहुंच चुकी थी। सारे रास्ते बादलों की आंखमिचैली चलती रही। जगह-जगह रास्ते टूटे मिले, चारों ओर से पानी की कलकल की आवाजें थीे। ये वही रास्ते थे जो एक समय में आग में जलते और सूखे मिला करते थे। पहाड़ों पर जीवन सिर्फ मनोरम नहीं होता, मुश्किल भी बहुत होता है। सरखेत तक का रास्ता मेरे लिहाज से ठीकठाक मुश्किल था। रास्ते टूटे हुए मिले, कहीं सड़कों पर ही नदी बहती मिली। कई बार लगता कि अब आगे कोई रास्ता हो ही नहीं सकता कि तभी एक पगडंडी नजर आती। रास्ते में दो गाड़ियां गिरी हुई मिलीं। हम स्कूल पहुंचे तो स्कूल के ठीक बगल से कलकल करती बरसाती नदी, स्कूल के सर पर मंडराते बादल, प्रार्थना में लीन बच्चे देख रास्तों की सारी मुश्किलें एक पल में ही गुम हो गईं।
हां, मन में यह बात जरूर चल रही थी कि शिक्षक रोज इन्हीं रास्तों से स्कूल आते-जाते हैं यह आसान तो न होता होगा। बिना इन स्कूलों तक पहुंचे यहां की भौगोलिक चुनौतियों को समझा जा सकना मुश्किल है। स्कूल का मैनेजमेंट पहली नज़र में ही पूरी तरतीब में नजर आया। हर क्लास में बढ़िया फर्नीचर है, कक्षाओं में भरपूर रोशनी है, बच्चों के लिए बुक बैंक है जिसमें काफी किताबें हैं और जिनका रख-रखाव बच्चे ही करते हैं।
बच्चों के साथ हिंदी की कक्षा में मौलिक कहानी बनाये जाने की प्रक्रिया चल रही थी। जल्द ही मैं भी उस प्रक्रिया में शामिल हो गई। शु़़रू-शुरू में संकोच करते बच्चे जल्द ही खुल जाते हैं। कहानी और कविता में क्या अंतर है इस पर वो अपनी तरह से बात करते रहे। बच्चे मुक्त हैं, खुलकर बोलते हैं।
घंटी बजी और इंटरवल हुआ। यही वो वक्त था जब शिक्षिकाओं से बिना उनके काम में दखल दिये इत्मिनान से बातचीत की जा सकती थी। बच्चे मिड-डे मील खा रहे थे, और मैं भी। आलू न्यूट्रीला की स्वादिष्ट सब्जी और भात। मेरी कोशिश होती है कि चाहे जरा सा ही लेकिन मिड-डे मील चखूं जरूर। देखें तो हमारे बच्चे क्या और कैसा खा रहे हैं। खाना स्वादिष्ट और साफ सुथरा था।
भात खाते हुए हमारी बातचीत विस्तार लेती है। यहां पर दो अलग-अलग प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों में छह शिक्षिकाएं हैं जो देहरादून से ही आती हैं। एक वैन शिक्षिकाओं ने तय की है जिससे वो आती हैं। कुछ अपनी एक्टिवा से भी आती हैं। बरसात में काफी दिक्कत होती है। उन्होंने बताया कि बीती रात एक साथी अध्यापक की गाड़ी पलट गई। अब मुझे समझ में आया कि रास्ते में जो पलटी हुई गाड़ी मिली थी वो किसी शिक्षक साथी की थी। पता चला पिछले सप्ताह एक महिला शिक्षिका की स्कूटी पलट गई थी। जिन बातों को सुनते हुए मेरा मन घबरा रहा था, वो उन्हें बेहद सहज ढंग से कह रही थीं। “मैडम गाड़ी तो पलटती रहती हैं। काफी शिक्षकों की पलट चुकी है। हर बरसात में 7 या 8 शिक्षकों की गाड़ी तो पलट ही जाती है।“ खुद लज्जावती सकलानी मैडम ने बताया कि वो पिछले साल तक स्कूटी से आती थीं फिर एक रोज उनकी गाड़ी पलट गई और काॅलर बोन टूट गई इसलिए अब स्कूटी से नहीं आतीं। इस बातचीत में एक बात समझ में आ रही थी कि ये शिक्षिकाएं इन मुश्किलों के लिए इस कदर अभ्यस्त हैं कि उन्हें इसमें कुछ भी खास बात नहीं लगती।
18 किलोमीटर की दूरी से आना और जाना एक सामान्य बात है, वो कहती हैं और टीचर तो इससे भी दूर जाते हैं। उन्हें आने में एक से डेढ़ घंटा लगता है और इतना ही वापस जाने में। दिल्ली या मुंबई या अन्य मैदानी इलाकों में रहने वालों को अठारह किलोमीटर को समझने के लिए एक बार पहाड़ों को समझना होगा कि यह पहाड़ के 18 किलोमीटर हैं मैदान के नहीं।
बात यहीं खत्म नहीं होती जरा बच्चों की भी बात करते हैं। यहां बच्चे डोमकोट, टिमली मानसिंह, तक्षिला, धनकू का सेरा आदि अलग-अलग गांवों से आते हैं। इन गांवों की दूरी 2 किलोमीटर से 7 किलोमीटर के दरम्यिान है। यह दूरी बच्चे पैदल पूरी करते हैं। स्कूल आने के लिए कुछ बच्चे एक नदी और पहाड़ पार करते हैं और कुछ सिर्फ पहाड़। डोमकोट गांव से स्कूल की दूरी तकरीबन 7 किलोमीटर की है, जहां से काफी बच्चे आते हैं और यह खड़ी चढ़ाई वाला गांव है। एक तरफ से बच्चों को आने में डेढ़ घंटे का समय लगता है। माध्यमिक से निकलने के बाद इन बच्चों को आगे की पढ़ाई के लिए मालदेवता के जिस इंटर काॅलेज में जाना है वो और भी दूर है। बहरहाल, ये दूरियां हमें आपको तो लग सकती है , न बच्चों को दूरियों से कोई शिकायत है न शिक्षकों को।
शिक्षिकाओं की चिन्ता टूटे रास्ते नहीं, स्कूल की शहर से दूरी नहीं, आने-जाने में लगने वाला समय नहीं बल्कि गर्मी की छुट्टियों में बच्चों के लिए आये अनाज का उनमें ठीक से वितरण करना है, कमजोर बच्चों के लिए इतवार को अतिरिक्त कक्षाएं लगाना है, उनकी चिंता है कि किस तरह बच्चों को पढ़ाई में इतना मजबूत बनाया जा सके कि आगे चलकर उन्हें कोई दिक्कत न हो। सीआरसी मंजू नेगी शिक्षकों का हौसला बन खड़ी रहती हैं, वो सुझाव देती हैं कि बच्चों से खूब लिखवाना चाहिए इससे उनमें आत्मविश्वास भी आता है सीखना पक्का होता है।
इस बीच छुट्टी की घंटी बजी और बच्चे बस्ते समेटने लगे। एक वैन इंतजार कर रही थी, जिसमें पास के स्कूलों के सभी शिक्षक इकट्ठे जाते हैं। वक्त पर स्कूल पहुंचने के लिए घर से छह बजे निकले ये शिक्षक अपने काम को लेकर कोई शिकायत नहीं करते, उन्हें चिंता है तो बस इतनी कि उनके बच्चे ठीक से पढ़ जाएं, कुछ बन जाएं।
शिक्षा के सफर में कितने ही बादल आयें, कितनी ही सड़कें टूटें, नदियां उफनायें, शिक्षा मजे में है...बच्चों की काॅपियों में दर्ज हो रहे हैं उनके सुनहरे ख्वाब...शिक्षिकाओं के आंखों में चमक रहा है सुकून कि बच्चे पढ़ रहे हैं...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (30-07-2016) को "ख़ुशी से झूमो-गाओ" (चर्चा अंक-2419) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'