हम जिस सफर पर उस रोज देहरादून से निकले थे उसकी दूरी का ठीक-ठीक पता नहीं था। चलने की धुन में दूरियां नापने का जी भी तो नहीं करता। लेकिन उस रोज जिस सफर पर निकले थे उसमें मौसम की तल्खियां साथ थीं। सर पर झर झर झरती धूप को तो हमने अपना ही लिया था लेकिन थोड़ी ही दूर जाकर पता चला कि यह सिर्फ धूप का मामला नहीं है। जंगलों में लगी आग की तपिश भी हमें घेरने लगी। देहरादून के करीब ही है मालदेवता, केशरवाला संकुल में आता है। हम यहीं के स्कूलों की ओर निकले थे।
मालदेवता का पुल पार करते ही एक पहाड़ी सड़क से होते हुए हमें उस स्कूल तक पहुंचना था। पुल पर रुककर हमने सूखता हलक तर किया, सूखी नदियों को बेबसी से निहारा। ये वही नदी है जिसके किनारों पर कल कल बटोरने जिसमें पांव डालकर बैठने हम आया करते थे। उदास मन से हम आगे के सफर पर चल पड़े। बस जरा सी दूरी तय करते ही धुंआ नजर आने लगा, जल्द ही आग भी। पहले छोटी-छोटी आग मिली, टुकड़ों में फिर बड़ी लपटें उठती दिखीं। हवा के रूख के साथ लपटों का लहराना अचम्भित कर रहा था। अभी-अभी जिस सड़क से हम गुजरे थे उसे लपटें घेर रही थीं। एक मोर उस आग में झुलस के मर गया था और भी न जाने कितने पंछी झुलसे होंगे पता नहीं। मैं थोड़ा आगे जाकर आग की तस्वीरें लेना चाहती हूं फिर ठहर जाती हूं। बकरियों का रेवड़ दिखता है तभी, कुछ औरतें उन्हें हांक रही थीं। उन्हें देखकर लगा कि उन्हें इस आग की आदत थी...वो बेफिक्र आगे बढ़ी जा रही थीं। जाहिर है हम भी आगे बढ़े।
पहाड़ों पर कितनी ही मुसीबतें आयें ये अपनी खूबसूरती का कुछ न कुछ हिस्सा बचा ही लेते हैं। थोड़ी ही देर में हम आग के दायरे से बाहर निकल आये। सुनसान सर्पीली सड़क पर हमारी बाइक दौड़ती जा रही थी। दूर-दूर तक कोई बस्ती नहीं, कोई मानुस नहीं। जी में यही ख्याल आता रहा कि यहां कोई स्कूल होगा क्या? कौन आता होगा यहां पढ़ाने और कौन पढ़ने। एक जगह कुछ घर दिखे लेकिन कोई व्यक्ति नहीं दिखा जिससे कनफर्म किया जा सके कि हम सही रास्ते पर हैं भी या कहीं और ही आ गये हैं। हम अंदाजे से आगे बढ़ते गये तभी एक पहाड़ी लड़का हमें दिखा उसे हमने पूछा भैया, ये बिजौली गांव इधर ही है क्या...उसने हाथ के इशारे से आगे की तरफ जाने को कहा। मैं सारे रास्ते यही सोच रही थी कि हम अपने घरों से निकलकर सब्जी मण्डी या आसपास के बाजारों में जाने को कितना बड़ा काम समझते हैं, यहां रहने वाले लोगों को तो नमक भी चाहिए तो कितनी दूरी तय करके शहर जाना पड़ता होगा। हालांकि यह तो फिर भी सड़क से जुड़े हुए गांव हैं वो गांव भी याद आते हैं जहां पैदल का ही रास्ता है सिर्फ। बहरहाल तकरीबन 18 किलोमीटर के पहाड़ी रास्ते के सफर के बाद आखिर हम पहंुच गये थे राजकीय प्राथमिक विद्यालय बिजौली।
थोड़े सी ढलान से उतरकर हम स्कूल के सामने आ खड़े होते हैं। मानो किसी ख्वाब के दर पर खड़े हों। स्कूल में मध्यान्ह भोजन का वक्त था। बच्चे खाना खाकर खेल रहे थे। पहाडि़यों से घिरा वो स्कूल किसी अलौकिक दृश्य सरीखा मालूम हो रहा था। कुछ पल स्कूल के बाहर खड़े होकर समूचे आनंद को दूर से महसूस करती हूं। मैं वहां पहुंचकर उस आनंद को बीच में तोड़ना नहीं चाहती। मैडम भी बच्चियों के साथ रस्सी कूद रही हैं। बच्चे मैडम से घबराये हुए नहीं हैं, मस्त हैं। हमारे भीतर पहुंचते ही गुड माॅर्निंग मैम का समवेत स्वर आह्लादित करता है। सारे बच्चों को छूने का मन करता है मानो इनको छू भर लेने से कितना कुछ ठीक कर लूंगी अपने भीतर।
अंदर संजीता गैरोला मैडम मिलती हैं। उनकी मुस्कान सफर की सारी थकान कम करने के लिए काफी थी। खुश होती हैं वो कि कोई उनके बच्चों से मिलने आया, इतनी दूर कौन आता है। बातों ही बातों में हम पूछते हैं किस तरह की चुनौतियां आती हैं यहां, वो अपनी मुस्कुराहट के साथ कहती हैं, चुनौती तो कोई नहीं है, न ही कोई समस्या। सब मजे में है। जितने बच्चे गांव में हैं सब स्कूल आते हैं, जितने स्कूल में आते हैं वो लगभग रोज आते हैं। सौ प्रतिशत नामांकन और उपस्थिति होती है। समुदाय के लोग काफी सहयोग करते हैं, हमारी बात को सुनते हैं और समझते हैं। जैसे शुरू में बच्चे नहाकर नहीं आते थे, या नाखून कटे नहीं या नाक बहाते हुए आते थे धीरे-धीरे बच्चों और समुदाय दोनों से बात की और खुद भी बच्चों को सफाई में मदद की अब कोई दिक्कत नहीं। सब बच्चे हमारे बहुत अच्छे हैं। बहुत मन से पढ़ते हैं, सीखते हैं। “हमारे“ शब्द को जिस लरज से संजीता और अनीता मैडम कहती हैं दिल को छू जाता है। हम यह उम्मीद ही कैसे कर सकते हैं कि जिनके मां-बाप दिन भर मजदूरी या किसानी करके लौटते हैं वो बच्चे को घर पर पढ़ायेंगे, यह जिम्मेदारी तो हमारी ही है। संजीता कहती हैं।
अनीता कहती हैं, बच्चों को सबसे पहले खुद पर आत्मविश्वास होना जरूरी है इसके बाद उनके कुछ भी सीखने की गति बढ़ जाती है। बच्चे कक्षाओं में लौट चुके हैं, बच्चे आत्मविश्वास से भरे हैं, बातचीत में शर्माते नहीं। कोई बच्चा अपने दोस्त को अंग्रेजी की कोई कविता सुना रहा है, कोई बच्चा काॅपी में चित्र बना रहा है...जेहन में आने वाले कल का एक सुंदर चित्र सा बनता है...दो कमरे के इस स्कूल में 14 बच्चे हैं। बच्चे कक्षाओं में आ चुके थे और हम उनके समय को चुराना नहीं चाहते थे। सो हम निकले इस वादे के साथ कि जल्द ही फिर लौटेंगे। एक मिनट रुककर शांत मनोरम पहाडि़यों से घिरे स्कूल को आंखों में भर लेना चाहती हूं।
लौटते वक्त बाइक ढलान पर दौड़ रही थी और मन में यह ख्याल कि क्यों जाते हैं लोग मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे...जो सुकून बच्चों की खिलखिलाहटों में हैं वो किस इबादत में है भला। लाओ अपने सारे चढ़ावे, सारी मन्नतें, व्रत, उपवास सब इन स्कूलों को मजबूत बनाने में लगाओ। बच्चों को प्यार करना, समझना, उनके साथ प्यार और सम्मान से पेश आना सीखो। इस देश का भविष्य कैसे न जगमगायेगा फिर। वापसी में मौसम बहुत नर्म हो चला था...
(दो माह पुराना लेख )
यात्रा संस्मरण से समाज को जोड़ना सफल। आप अच्छा लिखती हैं।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (21-07-2016) को "खिलता सुमन गुलाब" (चर्चा अंक-2410) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बढ़िया
ReplyDeleteलौटते वक्त बाइक ढलान पर दौड़ रही थी और मन में यह ख्याल कि क्यों जाते हैं लोग मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे...जो सुकून बच्चों की खिलखिलाहटों में हैं वो किस इबादत में है भला। लाओ अपने सारे चढ़ावे, सारी मन्नतें, व्रत, उपवास सब इन स्कूलों को मजबूत बनाने में लगाओ। बच्चों को प्यार करना, समझना, उनके साथ प्यार और सम्मान से पेश आना सीखो। इस देश का भविष्य कैसे न जगमगायेगा फिर। वापसी में मौसम बहुत नर्म हो चला था...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर विचार ...काश की सभी सोच पाते ऐसा ...