उधड़ी हुई नींद से उठकर खिड़कियां खोलती हूँ, चाँद आसमान पे टंगा हुआ है. बेचारा चाँद। मैं तो बेचारी नहीं हूँ. अपनी रगों में दौड़ते लहू को महसूस करती हूँ. मरी नहीं हूँ अभी. इसलिए बेचैन हूँ. कमरे में रौशनी भर चुकी है, अब कोई साये नहीं हैं. अख़बार दूर पड़ा है, टीवी चैनल देखने का मन नहीं, अंदर का धुआं, गुस्सा, हताशा, झुंझलाहट सब मिलजुलकर जिद्दी बनाते जा रहे हैं. बालकनी में खूब फूल खिले हैं.... खूब, वो मेरा गुस्सा थामते हुए कहते हैं कि जिस बसंत में हवाओं में 'इंक़लाब' की खुशबू हो उसमें निराश नहीं हुआ जाता। मेरी मुठ्ठियाँ कसती जाती हैं, आँखों के आसपास जो अटका हुआ था उसे राह मिल जाती है...
सामने एक राह खुलती है, पीठ पर फिर बैग रखा है, हाथ में फिर एक टिकट है, दिल में एक नए सफर का सुकून है, एक सफर ही है जो हौसला देता है और हमारा राहगीर होना बचाये रखता है... ''हम लड़ेंगे साथी,' घर से निकलते हुए अनजाने ही होंठ बुदबुदाते हैं.... मुक्कमल सुबह की तलाश सबका हक़ है.... सबका हक़... कमज़र्फ अँधेरे के आगे घुटने नहीं टेकेंगे, कभी नहीं...
प्रेरक लेख
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